प्रशांत रंजन
सिनेमा का सही उपयोग मनोरंजन के साथ संदेशपरक कहानियां कहने में है। अगर ये कहानियां दर्शक की अपनी माटी से निष्पन्न हों, तो यह मन के अतिरिक्त हृदय को भी स्पंदित करती हैं। नितिन नीरा चंद्रा की नई फिल्म ‘करियट्ठी’ इन दोनों शर्तों को पूरी करती है। सारण जिला स्थित एक गांव के वैद्यजी के घर एक सांवली लड़की का जन्म होता है, जिसके बाद से हर जगह उसे घर, समाज, स्कूल आदि में उपहास का सामना करना पड़ता है। उसका नाम ‘रानी’ कहकर कोई नहीं पुकारता, बल्कि सब उसके श्यामवर्ण के कारण ‘करियट्ठी’ कहते हैं। उस लड़की का जीवन किस प्रकार आगे बढ़ता है व उसे किन संघर्षों का सामना करना पड़ता है, यही फिल्म की कहानी है।
नितिन चंद्रा एक गुणी—धुनी फिल्मकार हैं। बाजार के दबाव की चिंता किए बिना वे बिहार की कहानियां अपनी फिल्मों में कहते रहे हैं। देसवा, मिथिला मखान, जैक्सन हॉल्ट और करियट्ठी। उन्हें सिने—शिल्प पर पकड़ है। सरोज सिंह की कहानी पर पटकथा नितिन ने ही लिखी है। उनका कहानीपन ध्यान खींचता है। कथा एक सामान्य गति से आगे बढ़ती है और एक सोशल ड्रामा से शुरू हुई कथा कैसे बाद में मर्डर मिस्ट्री की ओर करवट लेती है, यह देखना रोमांचकारी अनुभव है। बीच—बीच में संवादों के माध्यम से फिल्मकार ने मुख्य विषय रंगभेद के अलावा जातिभेद, लिंगभेद, मानव स्वार्थ, शिक्षा का महत्व, दहेज मुक्त विवाह आदि को भी सहज रूप में प्रस्तुत किया है। अपनी फिल्मों में राजनीतिक कटाक्ष के लिए प्रसिद्ध नितिन ने इस फिल्म में भी बिहार की राजनीति को मुख्यमंत्रियों के नाम वाले संवाद के माध्यम से चर्चा में लाते हैं। एक पात्र की पसंदीदा फिल्मों के सवाल पर भोजपुरी की क्लासिक फिल्मों के नाम आते हैं। फिर एक जगह भोजपुरी के स्थान पर हिंदी को मातृभाषा बनाए जाने की वकालत एक पात्र करता है। यानी संवादों के सहारे फिल्मकार असल जीवन के सार्वजनिक मुद्दों को भी रेखांकित करते हैं। कहीं-कहीं हास्य उत्पन्न करने के सामान्य प्रयास भी हुए हैं।
भोजपुरी सिनेमा के बारे में आम धारणा है कि ये फिल्में फूहड़ संवाद, अश्लील दृश्य, अस्सी के दशक की बासी कहानी व सतही अभिनय से लदी होती हैं। करियट्ठी इन सारे पूर्वाग्रहों को न केवल तोड़ती है, बल्कि 20 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भोजपुरी के खाते में ऐसी फिल्म देती है, जिस पर इस समाज को गर्व हो सके। कथानक व फिल्मांकन के मामले में यह भोजपुरी फिल्म मराठी व मलयाली सिनेमा से सटकर खड़ी होती है। करीब 90 लाख रुपए में बनी इस फिल्म के केवल संवाद ही भोजपुरी नहीं है, बल्कि बिहार के गांव, खेत, खलिहान, घर, आंगन, ओसारा, टांगा, रिश्ते, परंपरा आदि में बिहार झलकता है। कैमरे को बिहार के लैंडस्केप में विचरने का मौका फिल्मकार ने दिया है। चंदन तिवारी की आवाज में हल्दी गीत आपको अपने गांव में हुई किसी शादी की याद दिलाएगा। मेले का दृश्य आपको अपने गांव का मेला दिखेगा। फिल्म की कहानी साठ के दशक से शुरू होती है। उस समय के वस्त्र, बर्तन, घर व अन्य अव्यय दिखाने का प्रयास फिल्मकार ने किया है। हालांकि, स्कूल आदि के दृश्यों में थोड़ी ढील हुई है।
कहानी भोजपुरी भूमि की भले है। लेकिन, मुख्य किरदार रानी यानी करियट्ठी इस धरती के किसी कोने में रहने वाली हर उस लड़की का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे अपनी त्वचा के रंग के कारण अपमानित होना पड़ता है। रानी के बाद जगदीश मास्टर का किरदार चेहरे में नकाब लगाए लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं प्रधान जी प्रगतीवादी सोच के लोगों का चेहरा हैं। समाज के ये रंग केवल भोजपुरी समाज तक सीमित नहीं हैं। इस दृष्टि से यह फिल्म भोजपुरी की सीमाओं से परे जाकर जीवन के खुरदरे यथार्थ के धरातल पर मानव मन को संबोधित करती है। विगत 25 वर्षों से बंबइया मसाला शैली में बनाई गई भोजपुरी फिल्मों ने इस समाज की जोकरनुमा कंडिशनिंग कर दी है। अधिकतम लाभ के सिद्धांत वाले फिल्मी कारखानों (प्रोडक्शन हाउस) के मालिकों ने भोजपुरिया चमक को स्याह कर दिया है, ऐसे में करियट्ठी भोजपुरी सिनेमा के शुक्लपक्ष आने का संकेत करती है, जहां मलयाली, बांग्ला या मराठी सिनेमा की भांति भोजपुरी का कुलीन समाज भी अपनी फिल्मों को सगर्व देख व सराह सके। 31 जनवरी से यह फिल्म प्रसार भारती के ओटीटी मंच ‘वेव्स’ पर नि:शुल्क उपलब्ध है।