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संस्कृति

सर्वव्यापी गयाजी

Swatva Desk
Last updated: September 13, 2025 5:00 pm
By Swatva Desk 192 Views
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12 Min Read
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सूरज नारायण सिंह उर्फ सूरज बाबा
युवा उद्यमी एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता

इतिहास की आड़ में गयाजी के माथे पर सनातन और बौद्ध संघर्ष के कलंक का गढ़ा गया आख्यान प्रमाण की कसौटी पर कपोल कल्पना साबित हो जाता है। अंग्रेजों द्वारा लिखवाये गए भारत के इतिहास में गयाजी से सम्बंधित पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोतों की घोर उपेक्षा की गयी है। संदर्भों को तोड़मरोड़ कर बौद्ध, वैष्णव और शैवों के बीच संघर्ष की काल्पिनिक कथाएं लिखी गयीं और उसे इतिहास का दर्जा दे दिया गया। जबकि प्राचीन ग्रंथों में पर्याप्त प्रमाण हैं जो गयाजी को सर्वव्यापी सर्वस्पर्शी तीर्थ बताते हैं।
अग्निपुराण, वायुपुराण, गरुड़पुराण में गयातीर्थ का माहात्म्य मिलता है। वायु पुराण के पच्चासवें अध्याय में गया को स्थापित करनेवाले चंद्रवंशी राजा मनु के पौत्र अमूर्त रय गय का वर्णन है। इसके पिता का नाम सुद्यम्न था। गय ने गया में जो यज्ञ किया उससे कई अन्न पर्वत खड़े हो गए थे। समस्त जीवात्माएँ तृप्त हो गई थीं। यहाँ उनके द्वारा किए गए यज्ञों में एक सौ अश्वमेघ यज्ञ, एक हजार राजसूय यज्ञ तथा एक सौ मनुष्यमेध यज्ञ थे। घृत के सैकड़ों कुंड बने थे और दूध-दही की नदियाँ बही थीं। ब्राह्मण को अनगिनत दक्षिणा मिली थी। मंत्रोच्चार से स्वर्गलोक गुंजित हो उठा था। यहाँ की गंगा स्वरूपा मोहना नदी ने समस्त कलुष घो डाला था।
महाभारत के 95वें अध्याय में वर्णन है -युधिष्ठिर ने ब्राह्मण शमठ से गयराज की उस अपूर्व यज्ञ की प्रशंसा सुनी थी। इसलिए उन्होंने गया आकर धर्मारण्य में चतुर्मास व्रत सम्पन्न किया था। यशस्वी गय की चर्चा रामायण में भी है जिन्होंने यहाँ पितृयज्ञ सम्पन्न किया था। गया माहात्म्य का काल ई० बारहवीं-तेरहवीं शती मानी जाती है।
इस गया को बुद्ध घोष गयाग्राम, गया क्षेत्र कहते हैं। वे गया की उत्पत्ति गया कश्यप से मानते हैं। महावग्ग में इनके दो भ्रातृ परिवार नदी कश्यप और महाकश्यप हैं। जातक कथा में इनका प्रसंग है। कहा जाता है कि काशी के नियंत्रक श्रद्धांग को अक्षयता ब्रह्मगया में मिली थी।
गौतम सिद्धार्थ ने सम्यक् सम्बुद्ध होने के बाद गयाशीर्ष पर धर्मानुशासन दिया था। बुद्ध घोष का काल ईसा की पाँचवीं शती बताया जाता है। इनका जन्म गया के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये श्रीलंका गए थे। सन् 637 ई० में चीनी यात्री गया से होते हुए बोधगया पहुँचा। वह सम्राट् कनिष्क का समकालिन था। उसने गया में सनातनी मंदिर और बौद्ध विहार दोनो देखे थे। उसने लिखा कि दोनो के बीच प्रेम सद्भाव था, दोनों एक दूसरे के पूरक थे।
बोधगया स्थित तारीडीह में प्राचीन ऐतिहासिक महत्त्व का पुरातात्विक उत्खनन हुआ है। पुरातत्त्वविदों् के अनुसार बोधगया और गया के समीप स्थित यह स्थान उत्तर प्रस्तर युग का हैं। उस युग से पाल राजाओं तक का सम्बन्ध इस स्थान से जुड़ता है।
वहाँ हुईं खुदाई से सात सांस्कृतिक विकास की स्थितियों का पता चलता है। उत्तर प्रस्तर युग (ई० पू० 25 वीं शती से ई० पू० 16 वीं शती), ताम्र-प्रस्तर युग (ई० पू० 11वीं शती से ई० पू० 17 वीं शती), लौह युग (ई० पृ० छठी शती से ई० पू० पहली शती), कुषाण काल (पहली शती ई० से तीसरी शती ई०) गुप्तकाल (चौथी शती ई० से आठवीं शती ई०), उत्तर गुप्तयुग तथा पाल युग (नवीं शती ई० से बारहवीं शती ई०)।

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नवीं शती ई० के धर्मपाल के समय के शिलालेख से स्पष्ट होता है कि बौद्ध सनातन धर्मावलम्बियों के प्रति सहिष्णु थे और शिव और ब्रह्मा के विग्रह की स्थापना में यहाँ उदार रहे। इस युग में गयातीर्थ की ख्याति बढ़ी और मंदिर खड़े होने लगे। इतिहासविद् मानते हैं कि गया-तीर्थ की पुराण कथा इन्हीं दिनों आख्यायित हुई। दसवीं शती का एक शिलालेख जो गया अक्षयवट के पास से मिला उससे गया में पिण्डदान का प्रमाण मिलता है। 1060 ई० वज्रपाणि के शिलालेख से पता चलता है कि गया एक बड़े नगर के रूप में विकसित हो रहा था। गया, प्रपितामहेश्वर मंदिर से उपलब्ध शिलालेख में जो 1242 ई० का है-उससे पता चलता है कि भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से भक्त गया श्राद्ध, पूजा-अर्चना करने आते थे। बारहवीं शती के बाद निरंतर तीर्थयात्री यहाँ आते रहे- ऐसा ऐतिहासिक आलेखों के संग्रह से विदित होता है। लक्ष्मणसेन, शक्तिपुर के दान अभिलेख से गयापाल तीर्थपुरोहितों का साक्ष्य मिलता है। माना जाता है- चौथी शती ई० से विष्णुपद तीर्थ के लिए तीर्थयात्री आने लगे थे। लेकिन विष्णुपद मंदिर का निर्माण अहल्याबाई, इंदौर की महारानी के द्वारा अठारहवीं शती में हुआ। महरौली स्तम्भ शिलालेख से अभिप्रमाणित है कि विष्णुपद था जहाँ वैष्णव चंद्रगुप्त द्वितीय ने संभवतः पूजा-अर्चना की थी।
नालंदा पुरातत्त्व संग्रहालय में उपलब्ध मुहर में गया वैश्य का उल्लेख मिलता है। इतिहासविद् राधाकृष्ण चौधरी कहते हैं- गया, गुप्तकाल के अंतिम महाराज कुमार अमात्य नंद के अधीनस्थ था। गुप्तकाल में वैष्णव संस्कृति उत्कर्ष पर थी। उस समय वैदिक ब्राह्मण धर्म के स्मार्त रूप में विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश की पूजा हो रही थी।
भागवत सम्प्रदाय में विष्णु ही वैदिक प्रजापति के अवतार माने जाते हैं। वैदिक ऋत का विकसित रूप अवतारवाद कहा जा सकता है। सूर्य विष्णु रूप में समस्त लोकों को धारण करता है। वह मरणधर्मा मनुष्य के द्वारा देखी गई, पृथ्वी, द्युलोक तथा अन्यान्य लोकों को आच्छादित किए है।
विष्णु को ‘वृहत् शरीरः’ कहा गया है और वह भक्तों के बुलाने पर आता है- प्रत्येत्याहवम्। महाभारत शांति पर्व के नारायणीय उपाख्यान से विष्णु की व्याप्ति के उल्लेख मिलते हैं। गया उसी विष्णु का तप क्षेत्र है।
विष्णु के अवतार तीन वर्गों में हैं- पशुयोनि, मिश्रित एवं अविकसित योनि तथा मानव योनि । श्री श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण-नागों में शेष, पशुओं में मृगराज, पक्षियों में गरूड़ तथा मत्स्यों में मगरमच्छ हैं। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान में छः तथा दस अवतारों के उल्लेख हैं। वाल्मिकीय रामायण के लंका कांड में भी अवतार के उल्लेख हैं। अनार्य संस्कृति से आर्य संस्कृति में आए पशुयोनि के अवतार सृष्टि विकास के विभिन्न सोपान माने जाते हैं। द्रविड़ों में मिश्रित योनियों की पूजा प्रचलित थी। नरगज तथा नृसिंह की प्रतिमाएँ सिन्धुघाटी के पुरातात्विक अवशेष में मिले हैं। गीता के दसवें अध्याय में आदित्य के द्वादश रूप-वामन विष्णु का उल्लेख है। भृगु, राम, वासुदेव-विष्णु रूप में मिलते हैं। महाभारत के रामोपाख्यान में राम, विष्णु हैं। हरिवंश पुराण में राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न विष्णु रूप हैं। बाल्मिकीय रामायण में नारद राम को ‘विष्णु-इव’ कहते हैं। रघुवंश में कालिदास ने राम को विष्णु कहा।
गुप्तकाल के मौखरियों को गया में राज्य करने की स्वायत्तता प्राप्त थी। इनके काल के शिलालेखों में यज्ञवर्मन, शार्दूल वर्मन, अनंत वर्मन के नामोल्लेख हैं। ये शिलालेख बराबर पहाड़ी तथा नागार्जुनी गुफा के लोमश ऋषि तथा गोपिका गुफा से हैं। अनंत वर्मन ने कृष्ण की मूर्ति प्रवरगिरि गुफा में स्थापित की थी जो गया के पास है। उसने भूपति शिव, पार्वती और कात्यायिनी की मूर्तियाँ भी बराबर तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफाओं में स्थापित की थी। उन शिलालेखों में बराबर पहाड़ी के शिखर पर सिद्धेश्वर महादेव का भी उल्लेख है। हवेनत्सांग के यात्रावृत्तांत में शिवमहेश्वर भक्त ब्राह्मण का उल्लेख आया है जिसने महाबोधि महाविहार को बनवाया था। इनके यात्रावृत्तांत में चर्चा है कि गया में एक हजार परम आदरणीय ब्राह्मण थे।

गया के पास नवादा से गुप्तोत्तर कालीन शिलालेख में विख्यात सम्राट् आदित्य सेन का पता चलता है जिसने मगध के सम्मान को बढ़ाया। बताया जाता है कि इन्होंने तत्कालीन बिहार के दक्षिणी तथा पूर्वी क्षेत्रों में राजनयिक विकास किए। इन्होनें विष्णु का एक बड़ा मंदिर बनवाया। इनकी पत्नी ने मंदार में एक सरोवर भी खुदवाया था। गुप्तकाल के बाद पालकाल में भी गया की ख्याति रही। गया में धर्मपाल ने चतुर्मुखी महादेव की स्थापना की थी जिन में शिव के साथ सूर्य भी आकीर्तित हैं। कुर्किहार से इस पाल-काल की बलराम, विष्णु तथा अन्य देवी-देवताओं की पाषाण तथा पीतल की मूर्तियाँ मिली हैं। ये मूर्तियाँ नवीं से बारहवीं शती के बीच की हैं।
नवीं-दसवीं शती के राजा नारायण पाल का नाम गया से जुड़ा मिलता है। उस समय सारंग तथा गदा लिए विष्णु की गया में प्रधानता थी। गया के कृष्णद्वारिका मंदिर में उपलब्ध सातवीं पंक्ति में मुरारी तथा विष्णु की परिचिति है। इसमें ब्राह्मणों के मठ की चर्चा है।
गया के अक्षयवट से प्राप्त शिलालेख में नारायण पाल के बाद गया पर सूद्रक के आधिपत्य का पता चलता है। नारायण पाल के अनंतर गया में विग्रह पाल तृतीय हुए। इनके पुत्र थे यक्षपाल। गया में शीतला स्थान इनकी कीर्ति है, जहाँ इन्होंने एक सरोवर भी खुदवाया। उपरोक्त कृष्णद्वारिका मंदिर के शिलालेख में इनके द्वारा एक जनार्दन मंदिर का भी उल्लेख है। सूद्रक के पारिवारिक सदस्यों ने गया में अपने आधिपत्य को पुनः स्थापित कर लिया था और पाल राज से अपने को मुक्त कर लिया था। यक्षपाल की राजशक्ति क्षीण हो गई थी और गया राजा पिथि के नियंत्रण में आ गया था।
गया-तीर्थ वैष्णों, शैवों, शाक्तों, जैनियों तथा बौद्धों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल रहा है। तत्काल, विष्णुपद के पास संवास-सदन समिति द्वारा निर्मित अतिथिगृह कभी जंगमबाड़ी कहलाता था। यहाँ पुराने शैव मठों के अवशेष थे जो देखने में बौद्ध चैत्य जैसे थे। कुछ विद्वानों का कहना है कि उक्त अवशेष के नीचे विष्णु की शेषशायी मूर्ति अंतर्गर्भित है।
ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में ‘गय’ वृशादि जि धातु से व्युत्पन्न गृह, सामग्री चल सम्पत्ति, पाया गया हो, जीता गया हो अर्थवाची है। लैक्सोग्राफी में इस पद का अर्थ गयाल, बैल की एक उपार्जुति है। हिंदी शब्दकोश में गय का अर्थ घर, धन, प्राण, आकाश, पुत्र, एक राजर्षि जिनकी यज्ञभूमि का नाम गया पड़ा तथा असुर है।

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