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स्वास्थ्य

चिकित्सक सम्मान के प्रतीक डॉ. यूएन शाही

Amit Dubey
Last updated: April 1, 2025 3:19 pm
By Amit Dubey 410 Views
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7 Min Read
डॉ. पारस नाथ सिन्हा,पीएमसीएच, सेवा ही धर्म, शताब्दी वर्ष
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पटना मेडिकल कालेज में चिकित्सक गौरव और मान-सम्मान की रक्षा की बात डॉ.उपेन्द्र नारायण शाही यानी डॉ.यूएन शाही के बिना पूरी नहीं होती। कालेज के पूर्ववर्ती छात्र डा.यूएन शाही से जुड़ी कई कथाएं सुनाने लगते हैं। इसमें बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ.श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल से जुड़ी कुछ कथाएं भी हैं। डॉ.शाही पटना मेडिकल कालेज अस्पताल के सर्जिकल वार्ड में राउंड दे रहे थे। तभी बिहार विधान परिषद् के एक सदस्य यानी एमएलसी धड़धड़ाते हुए वार्ड में घुस आए। डॉ. शाही ने उनके राजनीतिक औकात की चिंता किए बिना उन्हें वार्ड से बाहर ही ठहरने को कहा। राजनीतिक रोब की ठसक में एमएलसी साहब ने चिकित्सा के लिए अनिवार्य अनुशासन को नहीं माना। वे धड़धड़ाते हुए वार्ड में घुस गए। डॉ. शाही ने उन्हें वार्ड से निकाल दिया। इसके बाद पार्षद महोदय ने बिहार विधान परिषद् में विशेषाधिकार प्रस्ताव लाया। वह प्रस्ताव ध्वनि मत से पास भी हो गया। बिहार विधान परिषद् में सुनवाई प्रारम्भ हुई और काफी दिनों तक चली।

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तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ.श्रीकृष्ण सिंह विधायिका के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। वहीं दूसरे ओर वे डॉ.शाही को एक अच्छे सर्जन, शिक्षक एवं इंसान के रूप में जानते थे। उन्होंने डॉ. शाही को बुलवाया और उनको समझाया कि विधायिका सर्वाेपरि है, आप क्यों झगड़ा करके अपना समय और ऊर्जा बर्बाद कर रहे हैं? आप एक छोटा-सा खेद प्रगट लिखकर भेज दें, सब ठीक हो जायेगा। डॉ. शाही ने उनसे कहा, ‘‘श्रीमान, मैंने कोई गलती नहीं की है। मर्यादा का हनन पार्षद महोदय ने किया है, उन्हें खेद प्रगट करना चाहिए। मैं माफी नहीं मांगूंगा। यदि मुझे नौकरी छोड़नी पड़े या जेल भी जाना पड़े, तब भी मैं पीठासीन न्यायाधीश के सामने कहं दूंगा कि ‘‘मैंने कोई गलती नहीं की है। पर आपकी आज्ञा का पालन मैं अवश्य करूँगा’’। मुख्यमंत्री कुछ रुष्ट भी हुए और कहा कि जो मन में आए, कीजिये। डॉ. शाही ने वर्षों मुकदमा लड़ा और अंत में उनकी विजय हुई। अपने और चिकित्सकों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने काफी कष्ट और मानसिक तनाव झेला।

अंग्रेज 1947 में भारत छोड़कर चले गए। लेकिन, उनके द्वारा स्थापित प्रशासनतंत्र का औपनिवेशिक मिजाज कायम रहा। भारत के नौकरशाह चिकित्सक हों या शिक्षक सबसे स्वयं को उपर मानते हैं। डा.शाही से जुड़ी एक घटना बड़ी रोचक है। एक दिन सर्जरी विभाग के कई चिकित्सकों के साथ वे अपने ऑफिस-चैम्बर में बैठकर कुछ आवश्यक विमर्श थे। एक सज्जन बड़े रोब से आए और अपना नाम तथा साथ में आईएएस जोड़ा। डॉ० शाही ने उनसे सहज भाव से कहा, ‘‘कृपया कुर्सी पर बैठ जाएं।’’ उन महाशय को लगा कि शायद डॉ. शाही ने उनका ‘आईएएस’ प्रत्यय नहीं सुना। उन्होंने खड़े-खड़े ही कहा, ‘‘मैं आईएएस पदाधिकारी हूं।’’ डॉ.शाही ने छूटते ही कहा, ‘‘कृपया दो कुर्सी ले लें और बैठ जाएं’’, वे महोदय कट से गए। उनका काम डॉ. शाही ने कर दिया, जैसा वे सबों की मदद करते रहते थे। लेकिन, एक चिकित्सक व शिक्षक के नाते उन्होंने उन्हें आवश्यक शिक्षा भी दे दी।

डॉ. शाही समय और नियम के बड़े पाबंद थे। बड़े ही रोबीले और धारा प्रवाह बोलनेवाले थे। उनके छात्र कभी भी उनका क्लास नहीं छोड़ाना चाहते थे। क्लास में नियमित रूप से समय पर आना आवश्यक था, नहीं तो डॉ० शाही की झाड़ तुरन्त पड़ जाती थी। वे बड़े ही मेधावी, कर्मठ और समर्पित व्यक्ति थे। तीन वर्षों में उन्होंने पूरी-की-पूरी सर्जरी, कम-से-कम तीन बार प्रैक्टिकल, एक्स-रे, औज़ार, ऑपरेशन, जेनरल तथा इमरजेंसी-सर्जरी को अवश्य दुहरा दिया करते थे। डा शाही स्वयं भी मेधावी छात्र रहे थे। उन्होंने 1947 में प्रिंस आफ वेल्स मेडिकल कालेज पटना से ही एमबीबीएस किया था। सर्जरी में उनका रिकॉर्ड अंक (93 प्रतिशत) से ऊपर था। आगे भी वह रिकार्ड नहीं टूटा। छः महीने की हाउस-सर्जनी पूरी करने के पहले ही अतिविशिष्ट मेधा के आधार पर उन्हें सीधे स्थाई सिविल असिस्टेंट सर्जन बना दिया गया। यह उनकी बड़ी उपलब्धि थी। उनकी पदस्थापना बेतिया और पटना सिटी अस्पताल में हुई। एमबीबीएस रहते ही उन्हें 1949 में पटना मेडिकल कॉलेज़ के शल्य-विभाग में व्याख्याता (सह-प्राध्यापक) बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से एमएस (जेनरल सर्जरी) किया। उन्हें ‘रॉकफेलर फाउंडेशन स्कॉलरशिप मिली और वे एफआरसीएस करने तथा चेस्ट-सर्जरी में विशेष प्रशिक्षण हेतु ब्रिटेन गये। उनकी पढ़ाई चलती रही। वे कट्टर शाकाहारी थे। वहां निरामिष लोगों के लिए खान-पान की दिक्कत हो गई या भाग्य का ही फेर कहें कि उन्हें रीढ़ की हड्डी का टीबी हो गया। बीमारी की हालत में ही उन्होंने एडिनबरा से एफआरसीएस किया तथा चेस्ट-सर्जरी का प्रशिक्षण भी लिया। अपनी बीमारी के कारण उन्हें स्वदेश लौट आना पड़ा। यहां आकर वे अपने पुराने पद पर पटना मेडिकल कॉलेज़ में ही पदस्थापित हो गये। डा. शाही ऊपर से जितने भी कठोर दिखते, भीतर से उतने ही कोमल और सहृदय थे।

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सन् 1976 में डॉ.आरवीपी सिन्हा सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद डॉ. यूएन शाही सर्जरी के विभागाध्यक्ष बने। उसी समय पीएमसीएच का प्रशासन तीन भागों में बंट गया था। सर्जिकल एवं संबद्ध के अध्यक्ष डा.यूएन शाही बने थे। यहां भी उन्होंने पूर्ण मनोयोग से अपना काम किया। यह सब वार्ड, आपरेशन, मरीज़, पढ़ाई तथा प्रैक्टिस के साथ-साथ चला। शल्य-क्रिया के संसार में डा.शाही एक बड़ी हस्ती थे। वे बिहार एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया के प्रथम अध्यक्ष बने और कई वर्षों तक इस पद पर रहकर उन्होंने बिहार-चौप्टर को गति और दिशा दी। उनके कारण बिहार-चैप्टर की भूमिका एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया में बराबर महत्त्वपूर्ण रही। वे एसोसिएशन ऑफ सर्जन्स ऑफ इण्डिया में पेडियाट्रिक सर्जरी वर्ग के अध्यक्ष भी रहे और इसमें भी उन्होंने पेडियाट्रिक-सर्जरी को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने चेस्ट-सर्जरी के साथ-साथ पोर्टल हाइपरटेंशन के लिए लाइनो-रिन्ल ऐनासटोमोसिस पोरटाकेभल शंट और मीजोकेभल शंट-जैसे कठिन ऑपरेशन पीएमसीएच में नियमित रूप से किया। उनसे ही प्रेरणा पाकर पीएमसीएच के कई चिकित्सक लाइनोरिनल शंट और अन्य ऑपरेशनों को सफल रूप से करने की दक्षता पायी थी।

TAGGED: चिकित्सक, डॉ. यूएन शाही, पीएमसीएच, सम्मान
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