प्रशांत रंजन
देश भर के अखबारों में 8 जुलाई 24 को खबर छपी कि भारतीय रेल ने पिछले पांच—छ: वर्षों के मुकाबले इस वर्ष साधारण व नॉन-एसी स्लीपर कोच बनाने पर अधिक जोर देगी। खबर यह भी है कि इस साल कम से कम 10 हजार साधारण व नॉन—एसी स्लीपर कोच बनाने का लक्ष्य रेलवे ने रखा है, जिन्हें 150 नए अमृत भारत ट्रेनों में चलाया जाएगा। रेलवे द्वारा अपनी प्रथमिकता बदलने के कुछ अन्य आंकड़ों पर गौर कीजिए। 2019—20 में चेन्नई की इंटीग्रल कोच फैक्ट्री, कपूरथला की रेल कोच फैक्ट्री व रायबरेली की मॉर्डन कोच फैक्ट्री में संयुक्त रूप से 997 एसी कोच तैयार किए थे, जिसे 2024—25 में बढ़ाकर 2571 कर दिया गया था। लेकिन, आमचुनाव में भाजपा की सीटें घटने का असर अन्य क्षेत्रों के अलावा रेलवे पर भी पड़ा और अब रेलवे ने एसी के मुकाबले नॉन—एसी कोचों के निर्माण पर ध्यान लगाना शुरू किया है।
वंदे भारत का हाइप
हाल के वर्षों में वंदे भारत, तेजस, गतिमान आदि ट्रेनों को लेकर जिस प्रकार हाइप क्रिएट किया गया और बात—बात में रेलवे द्वारा ‘हवाई जहाज जैसी सुविधा’ देने का प्रचार किया गया, उस समय इस तथ्य को नजरअंदाज किया गया कि हर दिन लगभग ढाई करोड़ रेल यात्रियों में केवल पौने पांच प्रतिशत यात्री एसी कोचों में यात्रा करते हैं। यानी 95 प्रतिशत से अधिक यात्री अनारक्षित साधारण, नॉन—एसी स्लीपर कोचों में ही यात्रा करना अफोर्ड कर पाते हैं। ऐसे में सरकार ने रेलवे की जो पब्लिक पोस्चरिंग की, उससे देश के बड़े जनसमूह द्वारा सराहना नहीं मिली। पहली वंदे भारत को खुद प्रधानमंत्री ने हरी झंडी दिखायी, यहां तक ठीक था। लेकिन, हर अगली वंदे भारत का उद्घाटन करने पीएम खुद पहुंच जाते, यह अतिरेक हो गया। अब तक देश में ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने का काम प्राय: रेलमंत्री करते रहे हैं। पीएम के इस कृत्य से ‘सबका साथ’ वाले नारे को धक्का लगा। हालांकि बाद में वंदे साधारण या अमृत भारत ट्रेनों की घोषणा कर सरकार ने गरीब यात्रियों के रोष पर मरहम लगाने का कार्य शुरू किया। लेकिन, यह नाकाफी सिद्ध हो रहा। एक नाराजगी इससे भी हुई कि वंदे भारत गाड़ियों को बिफोर टाइम पहुंचाने के लिए दूसरी गाड़ियों को शंट किया जा रहा। ‘हवाई जहाज जैसी सुविधा’ पर किसी को आपत्ति नहीं है। पहले भी देश में शताब्दी व राजधानी गाड़ियां शुरू हुईं, अब बुलेट ट्रेन चलाने की योजना है। लेकिन, उस प्रयास में यात्रियों के उस बहुमत वाले समूह को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, जो वातानुकूलित कोच का टिकट अफोर्ड नहीं कर सकता। जिस देश में 80 करोड़ लोगों को नि:शुल्क अनाज बांटना पड़ रहा हो, वहां ‘हवाई जहाज जैसी सुविधा’ वाली ट्रेनों का उत्सव नहीं मनाया जा सकता।
स्पेशल ट्रेनों का दोगुना किराया
सरकार यहीं नहीं रुकी। बल्कि, रेलवे के माध्यम से एक के बाद एक सरकार ने ऐसे कदम उठा लिए, जिससे निम्न व निम्न—मध्यम वर्ग के करोड़ों लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई कि मोदी सरकार अमीरों के लिए सुविधाजनक रेलगाड़ी चला रही है। रेलवे के प्रति नकारात्मक छवि बननी शुरू हुई 2020 के अनलॉक के बाद से। हालांकि, लॉकडाउन के दौरान रेलवे ने मालढुलाई से लेकर अपने कोचों को कैंप अस्पताल बनाने व फंसे लोगों को उनके घर तक पहुंचाने के लिए जो असाधारण कार्य किए, उसकी सराहना हर किसी ने की। लेकिन, जल्द ही उन सारे सुकर्मों पर पानी फिर गया। इसकी शुरूआत हुई केवल नाम बदलकर बनाए गए स्पेशल ट्रेनों में दोगुना किराया वसूलने से। हालांकि, उन गाड़ियों में स्पेशल जैसा कुछ नहीं था। बस, 50 प्रतिशत यात्री क्षमता के साथ चलने वाली ट्रेनों के नंबर में अतिरिक्त शून्य लगाकर उन्हें स्पेशल की संज्ञा दी गई थी। लॉकडाउन के प्रभाव में दो—तीन महीने तक लोगों ने इस अनोखे, लेकिन अनावश्यक प्रयोग को बर्दाश्त किया। लेकिन, 2021 के अनलॉक के बाद जब करोनाकाल खत्म माना गया और देश का जनजीवन पूरी तरह पटरी पर लौट आया, तब भी रेलवे ने स्पेशल ट्रेनों के नाम पर अधिक किराया वसूलना जारी रखा। इसमें सबसे अधिक अखर गया कि पैसेंजर गाड़ियों में सफर करने वाले दैनिक यात्रियों से एक्सप्रेस का किराया वसूला गया। इस बढ़ाए गए किराये को अनलॉक—2021 के बाद तत्काल रोक देना चाहिए था। लेकिन, इसे आमचुनाव—2024 के मात्र दो महीने पहले वापस लिए गए। तब तक देर हो चुकी थी।
आमजन में आक्रोश
पटना—गया रेलखंड और पटना—बक्सर रेलमार्ग में चलने वाली अधिकतर पैसेंजर गाड़ियों में दैनिक यात्री सफर करते हैं। इनमें श्रमिक वर्ग से लेकर मध्यमवर्ग तक अधिक संख्या में होते हैं। जिस देश में 5—10 प्रतिशत रेल किराया बढ़ने पर संसद से सड़क तक हंगामा हो जाता है। वहां लगातार तीन वर्ष तक स्पेशल ट्रेनों के नाम पर 200 प्रतिशत किराया वसूले गए, तो लोगों आक्रोश होना स्वाभाविक था। इन दोनों रुटों पर मगध व शाहाबाद क्षेत्र के अधिकतर लोकसभा सीटें एनडीए हार गया। इस हार के लिए कई कारणों के अलावा क्या रेल यात्रियों की नाराजगी भी एक कारण था? खैर यह तो विश्लेषण का विषय है। लेकिन, इतना अवश्य है कि कोरोना के बाद भी रेल किराया सीधे दोगुना कर वसूलने से जनसमान्य में नाराजगी थी।
एरिस्टोक्रेट मंत्री
हाल के चार—पांच साल में आम आदमी की अनदेखी कर रेलवे की सारी ऊर्जा डिलक्स रेलगाड़ी चलाने में व्यय हुई। रेलवे को लग्जरी का पर्याय बनाने में वर्तमान रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव की भी रुचि है। आईआईटी कानपुर से एमटेक तथा अमेरिका से एमबीए करने वाले वैष्णव 1994 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं। 1999 में ओडिशा में आए तूफान में उन्होंने अपनी सूझबूझ से प्रशंसनीय कार्य किए थे। यानी उनकी योग्यता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। रेलवे के आधुनिकीकरण में हर पहलू पर वे स्वयं एक टेक्नोक्रेट की भांति चीजों को परखते हैं। कॉरपोरेट क्षेत्र में अपने कार्य अनुभव का उपयोग वे भारतीय रेल का मुनाफा बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। यह सब अच्छी बातें हैं। लेकिन, अपने एरिस्टोक्रेट स्वभाव की वजह से माध्यम वर्ग में रेलवे की किरकिरी भी उन्होंने कराई है। रेल आम भारतीयों को सीधे प्रभावित करता है, इसलिए प्रयास होना चाहिए कि रेलमंत्री जमीन से जुड़े नेता को बनाया जाए। लेकिन, यथार्थ जो हो, रेलमंत्री व स्वयं प्रधानमंत्री को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में रेलगाड़ी महज यातायात का साधन नहीं है, बल्कि यह आमजन की जीवनरेखा है। सरकार जितनी जल्द यह बात समझ ले, उसके लिए अच्छा होगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)