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मनोरंजन

‘बहुमत’ से दूर सिनेमा: हमारे फिल्मकारों को राजनीति की सीमित समझ

Prashant Ranjan
Last updated: June 27, 2024 6:11 pm
By Prashant Ranjan 935 Views
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6 Min Read
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प्रशांत रंजन

देश में विगत तीन महीने से चुनाव का माहौल रहा। ऐसे में भारतीय राजनीति पर आधारित फिल्मों की चर्चा स्वाभाविक हो जाती है। मूक फिल्मों के दौर में धार्मिक विषय से शुरू हुई भारतीय सिनेमा की यात्रा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 50 व 60 के दशक में सामाजिक परिवेश, 70 व 80 के दशक में रोमांस व एक्शन आधारित अधिकतर फिल्में बनने लगीं। हालांकि, इस बीच विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में फिल्मकार भारत की राजनीति से अछूते नहीं रहे और अपनी रचनाशीलता का उपयोग कर राजनीति आधारित कई फिल्में बनायीं। यहां 1964 में दिलीप कुमार अभिनीत ’लीडर’ का जिक्र जरूरी है। आमतौर व्यवसायिक भारतीय फिल्मों में नेताजी के पात्र को अगंभीर, अनपढ़, अनुशासनहीन दिखाए जाने की परंपरा रही है। लेकिन, कई ऐसी भी फिल्में हैं, जो विशुद्ध रूप से राजनीति पर न सिर्फ आधारित होती हैं, बल्कि हमारे नेताओं का सटीक चित्रण भी करती हैं। तथापि, समेकित दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि हमारे फिल्मकार आज भी राजनीतिक समझ की बहुमत से दूर हैं। राजनीति की उनकी सीमित समझ उनकी फिल्मों में परिलक्षित होती है।

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हिंदी फिल्मों की बात होती है तो सबसे पहले गुलजार की आंधी का नाम आता है। लेकिन, मुख्य नायिका को इंदिरा गांधी की छवि जैसा गढ़कर, कहानी में प्रेम कोण आदि को भी महत्व दिया गया। हालांकि, आंधी में चंद्रसेन का पात्र यथार्थ के अधिक करीब है। मणि रत्नम की आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में राजनीति की छौंक भर होती है, हालांकि उनकी हिंदी फिल्म युवा व तमिल फिल्म इरुवर राजनीति को गंभीरता से खंगालती है।

प्रकाश झा प्रायः राजनीति को आधार बनाकर फिल्में बनाते हैं, लेकिन दलगत राजनीति के दांवपेंच से आगे वे नहीं बढ़ना चाहते। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी व मधुर भंडारकर की इंदु सरकार आपातकाल के दौर की पृष्ठभूमि में राजनीति को विषय बनाना चाहती है, इसी विषय पर कंगना रनौत निर्देशित व अभिनीत ’इमरजेंसी’ रिलीज होने वाली है। रामगोपाल वर्मा की सरकार व रक्तचरित्र, दिबाकर बनर्जी की शांघाई, अनुराग कश्यप की गुलाल, तिग्मांशु की हासिल जैसी कुछ फिल्में हैं, जिनकी कहानी में राजनीतिक कोण की प्रधानता है। निशिकांत कामत की इरफान अभिनीत मदारी, जो एक सोशल ड्रामा होते हुए भी भिन्न तरीके से राजनीति, विशेषकर नेताओं के आचरण एवं व्यवहार को कटधरे में खड़ा करती है।

हालांकि, दक्षिण में इस दिशा में अधिक प्रयास हुए हैं। तेलूगु में भारत बंद, रिपब्लिक, आॅपरेशन दुर्योधन, प्रतिनिधि, अधिनेता, यात्रा। तमिल में एनकेजी, इरंडु मुगम, जी। कन्नड़ में बारा, ध्वज, इलेक्शन, जागृति, किच्चा। मलयालम में रंडिडंगाजी, लाल सलाम, लाॅयन, आडिमकल उडामकल, ई नाडू, रामलीला। मराठी में कागर, बालकाडू जैसी फिल्में राजनीति को अपने कथानक का केंद्र बनायीं हैं। बांग्ला में वन, सब्यशाची, मिनिस्टर फटाकेश्टो जैसी फिल्में हैं। वैसे ऋत्विक घटक, मृणााल सेन व तपन सिन्हा की फिल्मों में राजनीति की धमक दिखती है। सिन्हा द्वारा निर्देशित सगिना महतो को वाम-राजनीति को आड़े हाथों लेने के लिए याद किया जाता है। हालांकि, दिलीप कुमार अभिनीत वह एक मसाला फिल्म जैसी थी।

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राजनीति पर बनी फिल्में हमेशा गंभीर रहे, यह जरूरी नहीं। कई बाद हास्य की चाशनी में लपेटकर फिल्मकार राजनीतिक विषय में फिल्माते हैं, यहां सबसे पहले ’किस्सा कुर्सी का’ की याद आती है। इसमें तमिल फिल्मों की संख्या अधिक है। इल्लामे एन पोंडाट्टिहान, पधवी पोडूथम पाडू, सगुनी, एलकेजी आदि प्रमुख है। वहीं मलयाली में संदेशम का नाम लेना आवश्यक है। मलयाली फिल्म ’वार्ता’ की सफलता के बाद इसे तमिल में पोलैवन रोजक्कल के नाम से रीमेक किया गया। सामानांतर सिनेमा के पैरोकार रहे श्याम बेनेगल ने हिंदी में वेलकम टू सज्जनपुर नाम से पाॅलिटल काॅमेडी बनायी। इस कड़ी में नायक, तेरे बिन लादेन, जनता वर्सेस जनार्दन, भूथनाथ रिटर्न जैसी फिल्में हैं।

इन सारी फिल्मों की पड़ताल करने पर यही बात सामने आती है कि एक ओर भारत के व्यवसायिक फिल्मकार एक्शन, ड्रामा, रोमांस, हास्य की प्रधानता के साथ राजनीति को आटे में नमक जितना महत्व देते हैं, क्योंकि बाजार से वे निर्देशित होते हैं। वहीं विशुद्ध राजनीतिक फिल्में भी दलगत तिकड़म, चुनावी लड़ाई व राजनीतिक पात्र के महिमामंडन (बायोपिक) से आगे नहीं निकल पातीं। 75 वर्ष से अधिक के अनुभव वाले लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक विमर्श वाली फिल्मों की अपेक्षा है। विवेक अग्निहोत्री की ’बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ इस मामले में उम्मीद जगाती है। इसी प्रकार दलगत राजनीति से परे जाकर जब लोकतंत्र व उसके उपकरण चुनाव प्रणाली की कसौटी पर किसी फिल्म की पड़ताल करेंगे, तो सबसे पहले हंसल मेहता की न्यूटन आंखों के सामने आती है। यह अपने तरह की अलग फिल्म है। इस तरह के प्रयास की आवश्यकता है, ताकि भारतीय सिनेमा अपने लोकतांत्रिक दायित्व में सिनेमाई योगदान दे सके।

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