सुशील मोदी लगभग पांच दशक तक बिहार की राजनीति का प्रमुख चेहरा बने रहे। और करीब चार दशक तक वे बिहार में भाजपा और जदयू के बीच मजबूत कड़ी के तौर पर जाने जाने लगे। उन्होंने कुल 11 बार बिहार का बजट पढ़ा, तीन बार डिप्टी सीएम रहे।लेकिन इतनी राजनीतिक उंचाई पाने के लिए उनके द्वारा किये गए संघर्ष को हम एक नजीर मान सकते हैं जो आज के युवा राजनीतिज्ञों के लिए एक सबक हो सकता है।
16 वर्ष की तरुणायी में बने स्वयंसेवक
सुशील मोदी ने 16 वर्ष की तरुणायी में ही इसकी नींव तब रख दी जब वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। शीघ्र ही उन्होंने अपनी सांगठनिक प्रतिभा का जलवा बिखेरना शुरू कर दिया। वर्ष 1973 में वे पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव बने और उसी साल बिहार प्रदेश छात्र संघर्ष समिति के सदस्य बने।
रेडिमेड कपड़ों की दुकान से जेपी आंदोलन तक..
जब बिहार के युवा 70 के दशक में जेपी की हुंकार से जोश में थे, उन्हीं दिनों सुशील मोदी भी इस आंदोलन में कूद पड़े। सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया जहां वे 19 महीने तक कैद रहे। इसके बाद सुमो 1977 में विद्यार्थी परिषद् से जुड़े। इसबीच उन्हें परिवार के जीवन—यापन के लिए पिता के रेडिमेड कपड़ों की दुकान पर भी बैठना पड़ा। इसी बीच उन्होंने भाजपा ज्वाइन की।
विधायक बनने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा
1990 में भाजपा ने पटना सेंट्रल सीट से उन्हें चुनाव में उतारा और वे विधायक बन गए। इसके बाद पार्टी ने उन्हें मुख्य सचेतक बनाया। 1996 में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद वर्ष 2000 में जब 7 दिनों के लिए नीतीश सरकार बनी तो सुशील मोदी उसमें मंत्री भी बने। इसके बाद 2004 तक वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने रहे।
लालू—राबड़ी शासन के खिलाफ बने जनता की आवाज
अब धीरे—धीरे सुशील मोदी को बिहार में लोग लालू-राबड़ी शासन के खिलाफ जनता की आवाज मानने लगे। 2004 में पहली बार मोदी भागलपुर से भाजपा के टिकट पर सांसद बने। इस तरह करीब चार दशकों तक वे बिहार भाजपा की धुरी बने रहे। 2005 में लालू—राबड़ी शासन के अंत के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी तो सुशील मोदी बिहार के उपमुख्यमंत्री व वित्त मंत्री बनाये गए। उपमुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने 11 बार बिहार का बजट पढ़ा। इसके बाद फिर से 2020 में एनडीए की सरकार बनी तो सुशील मोदी उसमें शामिल नहीं रहे। उन्हें 2020 में पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया।