
पूर्व एमएलसी, बिहार
हिन्दू धर्म के अनुयायी मानते है कि बिहार का मगध पुण्य रहित क्षेत्र है लेकिन उसी भूभाग में स्थित गयाजी त्रिलोक में सबसे पवित्र तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसमें पितरों को तारने का सामर्थ्य है। गयाजी एक असुर के शरीर पर स्थित तीर्थ है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में इसे अन्य तीर्थों से श्रेष्ठ बताया गया है। पुराणों में इसे तीर्थ राज प्रयाग से भी श्रेष्ठ यानी तीर्थ राजराजेश्वर बताया गया है।
बारह वर्ष बाद कुम्भ के अवसर पर ऐसा मुहूर्त होता है जब प्रयाग में सभी देव, ऋषि पितर वहां वास करने आते हैं। तीर्थ राजराजेश्वर गयाजी में तो सभी कालखंडों में ऐसा मुहूर्त होता है। गयायां सर्वकालेषु पिंडम् दत्वा विचक्षणः सूत्र का भाव है कि गया वह स्थान है जहां ग्रह-नक्षत्रों से संचालित विधान शिथिल हो जाते हैं।
भगवान शंकर की नगरी काशी की ही तरह भगवान विष्णु की नगरी गयाजी त्रिलोक में न्यारी और अतिप्राचीन है। लेकिन, औपनिवेशिक मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों ने गयाजी की घोर उपेक्षा की। भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा को हीनता की ग्रंथी में बांधे रखने के लिए बनाए गए इको सिस्टम द्वारा गयाजी और बोधगया में विभेद पैदा करने वाले नैरेटिव गढ़े जाते रहे हैं। अंग्रेजों की नीति के अनुरूप गढ़े गए नैरेटिव को आजादी के बाद भारत के कथित बुद्धिजीवियों ने आगे बढ़ाया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की सौम्य शक्ति (सॉफ्ट पावर) का प्राचीन केंद्र की आभा और क्षमता उत्तरोतर कम होती चली गयी। गयाजी की छवि एक बीमारू शहर की बनती चली गयी। यह भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के मानव समाज के लिए अपूरणीय क्षति है।
पहले गौतम बुद्ध को सनातन से अलग करने का प्रयास हुआ। जब उनका यह प्रयास थोड़ा सफल हुआ तब वे गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित पंथ को सनातन यानी हिंदू धर्म के विरूद्ध खड़ा करने के षड़यंत्र में लग गए। विदेशी पूंजी से संचालित होने वाला यह षड़यंत्र तेजी से अपने मकसद में कामयाब होने लगा था क्योंकि प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर भारत के लोग अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर रहे थे। ऐसे में हमारी सरकारें भी गयाजी को बोधगया से अलग कर देखने लगीं। गयाजी को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। परिणाम यह हुआ कि इस कलिकाल में त्रितापों से पीड़ित मानव समाज को राह दिखाने वाला भारत का प्राचीन सांस्कृतिक नगर गयाजी अस्तित्व संकट से ग्रस्त हो गया।

त्रिलोक के पालनहार विष्णु का परम तीर्थ गयाजी को लेकर कई प्रकार की भ्रांतियां भी फैलायी गयी। इसके कारण गयाजी का मतलब प्रेतों का शहर हो गया था। ऐसे में उत्तर भारत के इस सांस्कृतिक नगर का गौरवशाली अतीत कही गुम होता चला गया और सांस्कृतिक रूप से कभी अत्यंत जीवंत शहर की एक नकारात्मक छवि बनती चली गयी। यह छवि देश-विदेश के लोगों को आकर्षित नहीं करती बल्कि उन्हें भयभीत करती थी। जबकि गयाजी के पास वह सब कुछ था जिसके आधार पर कोई भी समाज सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ होने का दावा करता है।
हजारों वर्षों की विकास यात्रा में इस शहर ने मानव जीवन निर्वाह की जो पद्धति विकसित की थी वह संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास प्रतिमान(सस्टेनेबल डेवलपमेंट मॉडल) जैसा है। भौगोलिक स्थिति के कारण इस शहर में गर्मी और ठंड का प्रभाव औसत से अधिक रहता है। गयाजी में वर्षा जल संग्रहण और संरक्षण के प्राचीन उपक्रम थे जिसके कारण शरदी और गर्मी का असर कम हो जाता था।
गयाजी में जलविज्ञान के मानकों पर निर्मित दर्जनों सरोवर और कुंड थे। इस तीर्थ के पर्वतों और फल्गु जैसी अनके बरसाती नदियों से जुड़े आहर-पइनों के अंतरजाल का गुणगान प्राचीन काल में यहां आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी मुक्त कंठ से किया है। जलप्रबंधन के ये प्राचीन उपक्रम लोकोपयोगी जलविज्ञान सम्मत जलप्रबंधन के अद्भुत माडल हैं। बेतरतीब शहरीकरण के कारण उनमें बहुत के अस्तित्व अब मिट चुके है। कोई भी विकसित देश भारत के इस प्राचीन जलप्रबंधन माडल का कायल हो सकता है।
लेकिन, प्राचीन तथ्यों को सम्पूर्णता में समझने और समझाने की जगह गयाजी को हमने केवल मोक्ष नगरी कहना शुरू कर दिया। जबकि व्यापक संदर्भों में गयाजी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुष्टय पुरूषार्थ की नगरी है। इसके प्रमाण हैं कि गयाजी में प्रकृति के अनुकूलता के साथ चतुर्दिक विकास का वरदान देने का सामर्थ्य था।

भूदान आंदोलन के क्रम में गयाजी क्षेत्र में निवास करने वाले बिनोबा भावे ने कहा था कि काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है, तो गयाजी आध्यात्मिक राजधानी है। अध्यात्म का अर्थ होता है आत्मा एवं आत्मा के उपर का विज्ञान। काशी की तरह गयाजी भी विद्या व ज्ञान का श्रेष्ठ केन्द्र था जिसका वर्णन विदेशी पर्यटकों ने अपने यात्रावृतांत में किया है। गया के वातावरण में वेदध्वनि गूंजायमान होती थी। गयाजी संगीत व साहित्य साधना का भी एक प्रमुख केन्द्र था। यहां के पंडों के संरक्षण में कुश्ति का खेल उत्कर्ष पर था। गामा पहलवान की कीर्ति गयापाल पंडों के संरक्षण में ही चारो ओर फैली थी। मोहनलाल महतो वियोगी जैसे साहित्यकार गया की मिट्टी में ही पैदा हुए थे। आजादी के संधर्ष में यहां के लोगों का योगदान किसी से कम नहीं था।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी की राजनीतिक इच्छा शक्ति से काशी का कायाकल्प हो गया है। बुद्ध के प्रथम उपदेश स्थल सारनाथ की ही तरह विश्वनाथ की काशी भी युगानुकूल व्यवस्था के साथ सम्पूर्ण विश्व को आकषित कर रहा है। बुद्ध को जहां ज्ञान प्राप्त हुआ वह बोधगया अब चमकने लगा है। बोधगया भी गयाजी का ही एक भाग है। उसके विकास से हमें आनंदित करने वाला है। वहीं गयाजी की गरिमा के अनुकूल यहां की व्यवस्था न होना हमें व्यथित करता है।
हजारों वषों के इतिहास को अपने गर्भ में समेटने वाले प्राचीन गयाजी आज वैश्विक स्तर पर उस प्रतिष्ठा से वंचित क्यों हैं? इस यक्ष प्रश्न के उत्तर तो ढूंढने ही होंगे। इसका एक कारण यह है कि गयाजी के बारे में लोगों को पूरी जानकारी नहीं है। इस परमतीर्थ से जुड़े तथ्यों को समग्रता के साथ आधुनिक विश्व के समक्ष अबतक प्रस्तुत नहीं किया गया है। आधुनिक बोलचाल की भाषा में कहें तो गयाजी की सांस्कृतिक पूंजी की ब्रांडिंग अबतक नहीं की गयी है।
प्रचार-प्रसार के अभाव में लोगों की स्मृति से यह परमतीर्थ दूर होता चला गया। गया के विराट स्वरूप का दर्शन कराने के लिए इसके प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक काल के योगदानों व विविध संदर्भों का दस्तावेजीकरण आवश्यक है। इस दिशा में कुछ काम हुए होंगे लेकिन, वह उंट के मुंह में जीरा की कहावत को चरितार्थ करते हैं। इसके लिए एक सशक्त और सतत बौद्धिक अभियान की आवश्यकता है। इसमें समाज के साथ ही सरकार की भी भूमिका है।
भारत के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्रों के गौरव को पुनर्स्थापित करने वाले हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री की योजना में हमारे गयाजी भी अवश्य होंगे। समय के साथ गयाजी का भी गौरव सम्पूर्ण विश्व को आकर्षित करने में समर्थ होगा।