
नैदानिक मनोवैज्ञानिक, बिहार राज्य मानसिक
स्वास्थ्य एवं सहबद्ध विज्ञान संस्थान, कोईलवर
भारतीय चिंतन दर्शन में शरीर, मन, बुद्धि, प्राण और आत्म के अस्तित्व को अलग-अलग माना गया है। इन पांचों के स्वास्थ्य और संतुलन को आवश्यक माना गया है। इनका संतुलन जब बिगड़ता है तब मन के वशीभूत होकर आत्मा बंधन में पड़ती है। अतृप्त और असंतुष्ट होकर आत्मा शांति के लिए भटकती रहती है। नानाप्रकार के कष्ट भोगने के लिए बाध्य होती है। असंतुष्ट और अशांत आत्माएं अपने परिजनों के कष्ट का कारण बन जाती है। इनका संबंध मानव के मन से है। यही गयातीर्थ के मनोविज्ञान का केंद्रीय तत्व है जिसका सम्बंध शास्त्र के साथ ही लोक से भी है। वास्तव में गया तीर्थ का मनोविज्ञान भारत का लोक मनोविज्ञान भी है।
गया भारत का प्रमुख तीर्थ है लेकिन यह अन्य तीर्थों से भिन्न है। सामान्य तीर्थों में लोग अपनी आत्मा की शांति, आनंद और मनोकामना की पूर्ति के लिए जाते हैं। लेकिन, गया तीर्थ पर आने वाले बहुसंख्य तीर्थयात्री अपने पीतरों यानी पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से आते हैं। इस प्रकार गयाजी व्यक्ति को उसकी परंपरा और मूल से जोड़ते हैं। इस दृष्टि से प्राचीन काल से ही गया तीर्थ का अपना विशेष मनोविज्ञान रहा है जो काल के प्रभाव के बावजूद लुप्त नहीं हुआ है। यह दृश्यमान नहीं बल्कि गुप्त है। यह निसर्गगत स्वतोभूत है। इसका अपना मनोविज्ञान वर्तमान साइबर युग मंे भी प्रासंगिक है।
गया श्राद्ध के लिए घर से निकलने वालों को यह पता होता है कि गया श्राद्ध तक उनका जीवन एक संन्यासी का होगा। उन्हें गुस्सा नहीं करना होगा। हर्ष और विषाद से भी दूर रहना होगा। भोजन सात्विक और सोने का आसन पवित्र कम्बल होगा। सूर्योदय से पूर्व विस्तर छोड़ने के बाद बिना किसी की सहायता के अपना नित्यकर्म करना होगा। गयाजी पहुंचने के साथ श्राद्ध कर्मकांड तक बिना चप्पल-जूता के ही खाली पैर चलना होगा। इस प्रकार का अनुशासन किसी का मानसिक उपचार या काया कल्प करने वाला तो होगा ही।
इस प्रकार के आचरण से यज्ञकर्ता की मनःस्थिति विकारमुक्त होने लगती है। अवसाद पीड़ित मानव के लिए गया तीर्थ का अवगाहन उस सर्वाेच्च की अधिकतम मंगलमय स्वीकृति है जिसमें समस्त द्वैत का वैविध्य गहरी अंतर्दृष्टि से विलीन होता है। तीर्थ का वातावरण निरापद, निर्जन, सुरभ्य तथा ऐकांतिक होता है।
कभी-कभी दुर्घटना के कारण शरीर छूटने के निर्धारित समय के पूर्व ही मृत्यु हो जाती है। इसे अकाल मृत्यु कहते है। इन परिस्थितियों में होने वाली मानसिक या शारिरिक परेशानियों से मुक्ति के लिए गयाजी में श्राद्ध यज्ञ करने की प्राचीन परंपरा रही है। भारतीय चिंतन दर्शन के अनुसार शुभ और अशुभ कर्मों को करने के लिए जीव यानी आत्मा स्वतंत्र है लेकिन उन कर्मों का फल भोगने के लिए जीव यानी आत्मा बाध्य होती है। इसे ही कर्मबंधन कहा गया है। कर्मफलों से मुक्ति केवल मानव शरीर से ही संभव है। लोक मान्यता है कि पूर्वजों की आत्मा यदि अतृप्त या कष्ट भोग रही होती है तब वह अपनी संतती के पास जाती है। ऐसे में उसकी संतती भी आधिदैविक पीड़ा से परेशान रहते है।

इस प्राकार के अनुभवों का आधार हमारा पंच भौतिक शरीर या हमारी ज्ञानइंद्रियां नहीं होती हैं बल्कि इंद्रियों का स्वामी हमारा मन होता है। मन की विकृति या अशांति के कारण सारी गड़बड़ी या अनअपेक्षित क्रिया कलाप होने लगते हैं। गयाजी में होने वाले सारे कर्मकांड का आधार यही चिंतन दर्शन है। मन से आत्मा के अलग होने का यथार्थ उद्घाटित होने लगता है।
गया धाम में तीर्थाटन करने पर आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति मिलती है तथा दर्शन, स्पर्शन, याज्ञिक कर्मकाण्ड से उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। विश्व में भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसे तीर्थ बहुल कहा जा सकता है। तीर्थ का मर्म अंतस्तलीय पहुंच है जो स्वस्थ साधना के बिना दुर्लभ है।
प्राचीन काल में गयातीर्थ कैसा रहा होगा यह अनुमान पर आश्रित है। इसकी क्षेत्रीय पहचान भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक कारणों से बदलती रही। यह तीर्थस्थल कभी पठारी जंगलों, पहाड़ियों से भरा रहा होगा। इस तीर्थस्थल की अवस्थिति विंध्यपर्वत श्रृंखला में है। यहां अनेक छोटी-छोटी नदियां बहती हैं जिनके किनारे आबादी बसती रही होगी, खेती होती रही होगी तथा व्यापार होते रहे होंगे।
अब गया की परम्परा को सामने रखकर विकसित देशों की मान्यता पर विचार करते हैं। विकसित देशों के विश्वविद्यालयों में भी पैरानार्मल विभाग हैं ओर उस पर शोध हो रहे हैं। विकसित देशोें में बहुत से लोग हैं जो भूत-प्रेतों पर विश्वास करते हैं। पूरे विश्व की संस्कृतियों में एक आम धारणा है। लोग मानते हैं कि जब कोई मर जाता है, तो उसकी आत्मा दूसरी दुनिया में चली जाती है। लेकिन, ऐसे भी कई लोग हैं, जो खुद को यह विश्वास दिलाते हैं कि भूत-प्रेत जैसी चीज कुछ नहीं होती। इस मामले पर अमेरिका में शोध हुआ, जिसमें पता चला है कि वहां की जनसंख्या का एक बड़ा भाग भूत-प्रेतों में विश्वास करता है।
पूरे विश्व में बाजार, मानव की सोच व प्रवृति जैसे विषयों पर शोध एवं सर्वेक्षण कराने वाली संस्था इप्सोस ने वर्ष 2019 में इस विषय पर अमेरिका के लोगों के बीच गहन सर्वेक्षण कराया था। उस सर्वेक्षण से पता चला कि 46 प्रतिशत अमेरिकी भूत-प्रेतों को सच मानते हैं। इसका मतलब यह है कि बड़ी संख्या में लोग सोचते हैं कि प्रेत हकीकत में होते हैं। इसके अलावा, लाइव साइंस की रिपोर्ट के अनुसार, उसी समूह के केवल सात प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे वैम्पायर यानी पिशाचों में विश्वास करते हैं।
इसके पूर्व वर्ष 2015 में प्यू रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार, लगभग 18 प्रतिशत अमेरिकियों का कहना है कि उन्होंने या तो भूत देखा है या ऐसा महसूस किया है। जैसे कोई उनकी उपस्थिति में था। लेकिन सवाल यह है कि इतने सारे लोग ऐसे अनुभव होने का दावा क्यों कर रहे हैं? इसका एक कारण ‘पैरीडोलिया’ नाम की कोई चीज हो सकती है। यानी हमारा मस्तिष्क उन चीजों को देखता है जो बहुत स्पष्ट नहीं हैं। यह एक पैटर्न बनाने लगता है, जिसमें हमें मानव चेहरे और आकृतियां दिखाई देती है।
गया श्राद्ध के पीछे जो विज्ञान है वह इसका उत्तर दे सकता है। लेकिन, इसे कोरी कल्पना मानकर इसकी उपेक्षा की जाती रही है। यदाकदा विदेश से कोई शोधकर्ता आता है, कुछ खेजता है और चला जाता है। जबकि वर्तमान समय में अवसाद से मुक्ति दिलाने के लिए गया का प्राचीन पराविज्ञान सक्ष्म है।