ऐतिहासिक प्रमाणों की उपेक्षा कर समाज में यह अवधारणा बना दिया गया है कि बोध गया गौतमबुद्ध का और गया सनातनियांे का है। बोधगया को शिव के उपासकों ने कई बार नष्ट किया। बुद्ध के अनुयायी और सनातनी एक दूसरे के विरोधी हैं। वर्तमान में प्रचलित यह अवधारण गलत और भ्रम फैलाकर भारत का अनिष्ट करने वाला है। गौतमबुद्ध के हजारों वर्ष पूर्व से गयाजी में बुद्ध की ज्ञान परंपरा थी। बौद्धों और शंकराचार्य के अनुयायियों में कभी विरोध नहीं था बल्कि ये दोनों एक दूसरे के पूरक थे। एक दूसरे का सम्मान करते थे। महाबोधि मंदिर के पास शंकराचार्य का प्राचीन मठ इसका प्रमाण है।
बौद्धों के थेरवाद पंथ के प्रमुख ग्रंथ बुद्धवंश में गौतमबुद्ध के पूर्व के बुद्धों की कथा का वर्णन मिलता है। पालीभाषा में लिखी गयी उस पुस्तक में गौतमबुद्ध के पूर्व के बुद्ध का नाम ककुसंध क्रकुचंड बताया गया है। बुद्धवंश के अध्याय 22 में ककुसंध बुद्ध का जन्मस्थान पवित्र गया नगर बताया गया है। थेरवाद बौद्ध परंपरा के अनुसार ककुसंध उनतीस नामित बुद्धों में से पच्चीसवें, पुरातन काल के सात बुद्धों में से चौथे और वर्तमान कल्प के पांच बुद्धों में से पहले हैं। उस ग्रंथ के अनुसार वर्तमान कल्प को भद्रकल्प कहा जाता है। भद्रकल्प का मतलब विद्वानों ने कलियुग लगाया है। वर्तमान कल्प के पांच बुद्धों के नाम वर्णित हैं। बुद्धवंश के अनुसार ककुसन्ध भद्रकल्प के प्रथम बुद्ध हैं। इसके बाद कोणागमन भद्रकल्प के दूसरे बुद्ध, कस्पा भद्रकल्प के तीसरे बुद्ध, गौतम भद्रकल्प के चौथे और वर्तमान बुद्ध मैत्रेय भद्रकल्प के पांचवें बुद्ध हैं।
सनातन परंपरा में जब हम कोई अनुष्ठान का संकल्प करते हैं तब बुद्धावतार का स्मरण होता है। वैदिक एवं पौराणिक शा़स्त्रों के अनुसार जिस बुद्ध का संकल्पों में स्मरण किया जाता है वे क्रकुच्छंद बुद्ध हैं। संभव है कि थेरवाद के ग्रंथ बुद्धवंश में वर्णित ककुसंध या क्रकुचंड का संस्कृत में क्रकुच्छंद नाम रहा हो। सनातन मान्यता के अनुसार इस कल्प के प्रथम बुद्ध का जन्म विष्णु की नगरी गयाजी में एक ब्राह्मण के घर में हुआ था जिनका नाम अजन था। उनकी माता का नाम विशाखा। उन्होंने एक शिरीष वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद नदी यानी फल्गु नदी तट पर किला के निकट एक उद्यान में चौरासी हजार भिक्षुओं की सभा को अपना पहला उपदेश दिया था। उनके अनुयायियों में नरदेव नामक एक भयंकर यक्ष भी था। ककुसंध हर साल उपोसथ व्रत रखते थे। उनके प्रमुख शिष्य भिक्षुओं में विदुर और संजीव तथा भिक्षुणियों में सामा और चंपा थे। उनके निजी अनुचर बुद्धिज थे। पुरुषों में अच्चुत और समानाए तथा महिलाओं में नंदा और सुनंदा उनके प्रमुख उपासक थे। अच्चुत ने उसी स्थान पर ककुसंध बुद्ध के लिए एक मठ का निर्माण कराया जिसे बाद में अनाथ पिंडिका ने गौतम बुद्ध के लिए जेतवन आश्रम के रूप में चुना ।
सिद्धार्थ गौतम का पूर्व जन्म ककुसंध के काल में राजा खेमा के रूप में हुआ था। ककुसंध ने भविष्यवाणी की थी कि राजा खेमा जिन्होंने उन्हें वस्त्र और औषधियाँ प्रदान करके भिक्षा दी थी, भविष्य में कल्प के अंतिम बुद्ध होंगे जिन्हें गौतम बुद्ध कहा जायेगा।
जहां सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ था वहां गयाजी के पिंड वेदी होने के प्रमाण हैं। संभव है कि बौद्धों में स्तूप बनाने की परम्परा पिंड वेदी से आयी हो। एक मत के अनुसार क्रकुच्छंद बुद्ध से दीक्षा ग्रहण करने के बाद राजा खेमा की साधना पूरी नहीं हुई। इसके कारण उन्हें फिर से जन्म लेना पड़ा। उनके शुभकर्मों के प्रभाव के कारण उनका जन्म एक राजा के घर में ही हुआ था। लेकिन पूर्व जन्म के संस्कार के कारण विवाह और पुत्र होने के बाद भी उन्होंने संन्यास के लिए घर का परित्याग कर दिया। परमात्मा के विधान के अनुसार वे बुद्ध के तप क्षेत्र में पहुंच गए। एक स्थान पर आसन लगाए और समाधि में चले गए। उस स्थान का नाम वर्तमान में इटीखोरा है।
इटीखोरा चतरा के पूर्व में 35 किमी और जीटी रोड से जुड़े चौपारण से 16 किमी पश्चिम में है। यह पहाड़ों और जंगलों से घिरा एवं महाने नदी के तट पर स्थित है। वहां पहुंचने के बाद वे खो गए थे इसीलिए उनके अनुयायियों ने उसे इतिखोया कहा। इतिखोया ही आज का इटीखोर है। इटखोरी ब्लॉक मुख्यालय है। यह स्थल तीन धर्मों का अनूठा संगम स्थल है। सनातन धर्मावलंबियों की मां भद्रकाली व भगवान बुद्ध की आराध्या देवी मां तारा एवं जैन धर्मावलंबियों के दसवें तीर्थंकर स्वामी शीतलनाथ जी का जन्म स्थल भदलपुर है। जैन धर्मावलंबी इस मंदिर को भदुली माता का मंदिर भी कहते है। 200 ईसा पूर्व से लेकर 1200 ईस्वी के बीच के विभिन्न बौद्ध अवशेष यहां पाए गए हैं। इटखोरी में सबसे लोकप्रिय आकर्षण 9वीं शताब्दी का शानदार मां भद्रकाली का मंदिर है। इसकी मूर्तियां क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के तौर पर एक साक्ष्य के रूप में उपस्थित हैं। मां भद्रकाली मंदिर से लगा हुआ मंदिर अपने भव्य शिवलिंग के लिए प्रसिद्ध है जिसमें 1008 शिवलिंग नक्काशी के साथ सुशोभित हैं। एक और महत्वपूर्ण आकर्षण प्राचीन स्तूप है। जिसमें बोधिसत्वों की 104 छवियां हैं। बोधिसत्व मतलब गौतम बुद्ध के पूर्व से बुद्ध बनने की परम्परा। इसके दोनों ओर बुद्ध के चार उपदेशों के शीलालेख हैं। वहां एक पत्थर का बड़ा टुकड़ा भी है जिसके बारे में मान्याताएं हैं कि इस पर जैन धर्म के 10 वें तीर्थंकर शीतलनाथ के पैर के निशान हैं।
गौतम बुद्ध या सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और 35 वर्ष की आयु में ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध बने। प्राचीन काल में जब अमर सिंह ने ‘अमरकोश की रचना की तो सूक्ष्म तरीके से शब्दों का प्रयोग किया गया। इसी के कारण भगवान बुद्ध और गौतम बुद्ध के पर्यायवाची नामों को एक क्रम में लिखने से भ्रम उत्पन्न हुआ। क्रकुच्छंद और सिद्धार्थ दोनों का गोत्र गौतम था जो कि एक कारण था कि लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया और यह भ्रम पैदा हुआ।
पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के अनुसार अनुष्ठान संकल्प में हम जिस बुद्ध का स्मरण करते हैं उनका जन्म गयाजी में एक ब्राह्मण के घर हुआ था। गौतम बुद्ध जिनका मूल नाम सिद्धार्थ था उनका जन्म 563 ईसा पूर्व में लुम्बिनी वर्तमान नेपाल में हुआ और 483 ईसा पूर्व में कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ।
आदि शंकराचार्य के जन्म को लेकर भी भ्रम फैलाया गया है। यह कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में हुआ था और 820 में में उनकी मृत्यु हो गई थी। इसके अनुसार 15 साल उन्हें समझदार होने में लगे और 17 साल में उन्होंने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल फेंका। शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों की परंपरा और इतिहास के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म गौतमबुद्ध के महापरिनिर्वाण के सौ वर्ष बाद 508 ईस्वी पूर्व में हुआ था।
भगवान बुद्ध का जन्म रू 623 ईसा पूर्व
आदि शंकराचार्य का जन्मरू 508 ईस्वी पूर्व
अभिनय शंकराचार्य का जन्म रू 788 ईस्वी में
उनका जन्म 508 ईस्वी पूर्व हुआ था
अर्थात 2631 युधिष्ठि संवत में वैशाख शुक्ल पंचमी को आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था।
आदि शंकराचार्य के प्रमुख शिष्य राजा सुधनवा का ताम्रपत्र आज भी उपलब्ध है। यह ताम्रपत्र आदि शंकराचार्य की मृत्यु के एक महीने पहले लिखा गया था। शंकराचार्य के सहपाठी चित्तसुखाचार्या थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम है बृहतशंकर विजय। हालांकि वह पुस्तक आज उसके मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उसके दो श्लोक है। उस श्लोक में आदि शंकराचार्य के जन्म का उल्लेख मिलता है जिसमें उन्होंने 2631 युधिष्ठिर संवत में वैशाख पूर्णिमा को आदि शंकराचार्य के जन्म की बात कही है। गुरुरत्न मालिका में उनके देह त्याग का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार उन्होंने 474 ईसा पूर्व अपनी देह को त्याग दिया था। अर्थात वे 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे। केदारनाथ मंदिर के पीछे उनकी समाधी है।
इस प्रकार भगवान बुद्ध के 100 वर्षों के बाद आदि शंकराचार्य हुए। तब तक देश विदेश में बौद्ध धर्म फैल चुका था। बौद्ध धर्म का वर्चस्व भारत में गुप्त काल के बाद तक रहा। वर्तमान भारत बांग्लादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के हिमालय से लगे क्षेत्रों में ही बौद्ध का प्रचलन था। सातवीं सदी तक भारत के दक्षिण हिस्सों में और बाद में बर्मा थाईलैंड तक बौद्ध धर्म फैलता गया। बौद्ध धर्म ने छठी सदी तक भारत में अपनी जड़े जमा ली थी। यानी शंकाराचार्य के होने के 1000 वर्षों तक भी बौद्ध धर्म के भारत में फलने फूलने के सबूत मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य के बाद भी बौद्ध धर्म खूब फला और फैला फिर भारत से बौद्ध धर्म का पतन कैसे हुआ?
दरअसल सातवीं सदी की शुरुआत में भारत पर मुस्लिम आक्रमण प्रारंभ हो गया था। पेशावर और बामियान उसका पहला निशाना बना। बामियान बौद्ध धर्म की राजधानी थी। उसे मुसलमानों ने नष्ट कर दिया। तलावर के बल पर बौद्धों को मुसलमान बनने पर मजबूर किया। इसके बाद धीरे धीरे सिंध पंजाब और कश्मीर में कई बौद्ध मंदिर और मूर्तियों को तोड़ा गया। तक्षशिला और नालंदा का विश्व विद्यालय इसका उदाहरण है। बुत परस्ती शब्द बौद्ध धर्म के कारण ही प्रचलन में आया। भारत पर मुस्लिम आक्रमण ने बौद्ध धर्म को लगभग नष्ट कर दिया था। 712 ईस्वी् के बाद से भारत पर उनके आक्रमण बार-बार होने लगे। इन आक्रमणों के परिणामस्वरूपए बौद्ध भिक्षुओं ने नेपाल बर्मा श्रीलंका और तिब्बत में शरण ली है। अंत में वज्रयान बौद्ध धर्म अपने जन्मस्थान भारत में लुप्त हो गया।
मुसलमानों के इस जघन्य कृत के लिए आदिशंकराचार्य को दोषी ठहराया गया। दरअसल कुछ विद्वानों ने अभिनव शंकर को ही आदि शंकर घोषित कर दिया। अभिनव शंकाराचर्य का जन्म 788 ईस्वी में हुआ और उनकी मृत्यु 820 ईस्वी में हुई थी। अर्थात वे 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे। इन अभिनव शंकराचार्य को ही आदि शंकराचार्य मान लिया गया और इनके साथ पूर्व के शंकराचर्य की कथा भी जोड़ दी गयी। बाद में यह भी आरोप लगाया जाने लगा कि भारत में इनके कारण बौद्ध धर्म लुप्त हो गया।