पंकज कुमार
(शोध अध्येता एवं राजनीतिक विश्लेषक)
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणाम ने सबको चाैंका दिया है। बेरोजगारी, वोट चोरी, संविधान पर खतरा, जंगलराज, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, वंशवाद जैसी शब्दावलियों के सहारे बुने गए नैरेटिव भ्रमजाल में ऐसा लगता था कि मतदाता दिग्भ्रमित हो जायेंगे। किसी तरह से कमजोर सरकार बन जायेगी। लेकिन, बिहार के मतदाताओं के निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि समय रहते नहीं सुधरे तो जनता सुधार देती है। सभी पक्षों पर विचार करें तो यह 18वीं बिहार विधानसभा कुछ पुरानी मान्यताओं को तोड़ती तो कुछ नयी मान्यताओं को गढ़ती दिख रही है।
बिहार विधानसभा में ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ी है जिनका सम्बंध किसी राजनीतिक घराने से नहीं है, बल्कि वे साधारण कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते हुए विधानसभा तक पहुंचे हैं। अठारहवीं विधानसभा पिछले विधानसभाओं से कई मायनों में भिन्न है। पिता के उत्तराधिकारी के रूप में सदन में शेखी बघारने वालों की हनक कम हुई है। बाहुबल, धनबल के सहारे निर्दलीयों के विधानसभा पहुंचने की परंपरा समाप्त होती दिखने लगी है। इस बार एक भी निर्दलीय प्रत्याशी जीतकर सदन में नहीं पहुंचा।
पिछले दो विधानसभाओं में राजद सुप्रिमो लालू यादव के दोनों पुत्र तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव सदन में अगली पंक्ति में बैठे दिखते थे। वंशवाद की राजनीति में पारिवारिक कलह के परिणाम स्वरूप तेजप्रताप राजद से बाहर हो गए। इसबार के चुनाव में वे हार गए। अब लालू-राबड़ी के एक ही पुत्र तेजस्वी यादव विधानसभा में अगली पंक्ति में बैठेंगे। राजद इसबार 25 सीटों पर सिमट गया है। ऐसे में उनकी हनक कुछ कम रहेगी।
कांग्रेस के जमाने में पिता के बाद पुत्र के विधायक बनने की परंपरा लगभग स्थापित होने लगी थी। इस परंपरा के आधार पर राजनीतिक घराने स्थापित होने लगे थे। जेपी आंदोलन के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी तब विधायिका में वंशवादी परंपरा की स्थापना प्रक्रिया पर कुछ समय के लिए लगाम लगता दिखा था। लेकिन, जनता पार्टी सरकार की अकाल मृत्यु के साथ ही भारतीय लोकतंत्र में परिवारवाद और मजबूती के साथ स्थापित हो गया। राजीव गांधी के बाद कांग्रेस तेजी से पतनोन्मुखी हो गयी। लेकिन, तख्त बदल दो ताज बदल दो वंशवाद का राज बदल दो, का नारा लगाने वाले लालू यादव का बिहार में जब एकछत्र राज शुरू हुआ तब कांग्रेस जमाने का वंशवाद और परिवारवाद और अधिक विकृत रूप में सामने आ गया। 18वीं विधानसभा में परिवारवाद और वंशवाद कमजोर होता दिख रहा है, इसके समाप्त होने की आशा जगी है।
भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति से वंशवाद के उन्मूलन के प्रयास शुरू किए हैं। लेकिन, राजनीति में लक्ष्य पाने के लिए सिद्धांत और नीति के अलावे कुछ और भी करना जरूरी होता है। अंग्रेजों ने भारतीयों को जातीय समूहों में बांटने का जो सिलसिला शुरू किया था, उसे इंदिरा गांधी की राजनीति ने परवान चढ़ाया। उनके काल में ही बिहार ही नहीं पूरे भारत की राजनीति में जातीय क्षत्रपों का महत्व स्थापित हो गया था जो आज भी जारी है। जातीय क्षत्रप बिना किसी लाज लिहाज के वंशवाद की राजनीति करते हैं। इस विधानसभा में भी वंशवाद के राजनीतिक कीड़े रेंगते दिख रहे हैं, मरे नहीं हैं। परजीवी बनकर ये राष्ट्रीय पार्टियों से जीवन रस ले रही हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति को वंशवाद से मुक्त कराने की राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रतीक पुरूष माना जा सकता है। हलांकि उनके दल में भी पिता के सहारे सदन व सरकार में आने वालों की संख्या कम नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी भारत और बिहार की राजनीति को वंशवाद से मुक्त कराने लिए दृढ़ दिख रही है। पिता के स्थान पर पुत्र को टिकट देने पर कड़ाई से रोक लगाकर भाजपा ने इस दिशा में मजबूत कदम उठाया है। राजनीति को वंशवाद की परंपरा से मुक्त कराने के अपने इस अभियान को भाजपा आगे बढ़ा सकती है क्योंकि यह पार्टी अब तक संगठन और विचारधारा आधारित है। इस पार्टी में कोई सर्वमान्य नेता हो सकता है। लेकिन, वह किसी कम्पनी के मालिक जैसा व्यवहार नहीं कर सकता। वंशवादी परमपरा वाले दलों में सुप्रिमों का पुत्र एक रात में ही पार्टी अध्यक्ष बनकर पार्टी का मालिक बन बैठता है और पार्टी के पुराने नेता और पदाधिकारी उसके हर सही या गलत निर्णय के आगे सिर झुंकाये खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं वंशवाद को जायज ठहराने के लिए उन नेताओं के दरबारी कुतर्क भी गढ़ते हैं। किसी राजनेता के बेटे को सामान्य कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए अपनी योग्यता से किसी पद तक पहुंचने को भी वंशवाद करार दिया जाना एक सामान्य सी बात हो गयी है।
पटना के प्रतिष्ठित कुम्हरार विधानसभा क्षेत्र से संजय गुप्ता विजयी हुए और 18 वीं बिहार विधानसभा के सदस्य बने हैं। इस क्षेत्र से सुशील कुमार मोदी विधायक चुने जाते रहे हैं। जब वे भागलपुर से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए तब उनके स्थान पर अरूण कुमार सिन्हा विधायक बने थे। इस बार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ा वर्ग से आने वाले एक समर्पित कार्यकर्ता को टिकट दिया। जबकि अरूण सिन्हा के पुत्र आशीष सिन्हा भी एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। वे पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे हैं। अरूण सिन्हा ने पार्टी के निर्णय को सहर्ष स्वीकार किया और संजय गुप्ता को विजयी बनाने के लिए कार्य किया।
इसी प्रकार पटना साहेब विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी के रूप में नंद किशेर यादव लगातार चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं। क्षेत्र के लोग इन्हें अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। लगातार आठ बार चुनाव जीतने के बाद भी इनकी लोकप्रिता कम नहीं हुई। लेकिन, पार्टी ने उनके स्थान पर युवा कार्यकर्ता रत्नेश कुशवाहा को टिकट दे दिया। नंद किषोर यादव ने पार्टी के इस निर्णय की सराहना की और कुषवाहा की विजय सुनिष्चित कराने के लिए एक अभिभावक की तरह उनके साथ हमेषा खड़े रहे। ऐसे उदाहरण वंषवाद के विरूद्ध लड़ाई में प्रतिमान बन गए हैं।
वंशवाद के मामले में भाजपा फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रही है। दीघा के विधायक डा. संजीव चौरसिया विद्यार्थी परिषद के एक कार्यकर्ता के रूप में छात्र जीवन से ही राजनीति करते रहे हैं। बाद में भारतीय जनता पार्टी के मंडल से लेकर प्रदेश स्तर तक की विभिन्न जिम्मेदारियों का कुशलता से निर्वहन किया। उनके पिता गंगा प्रसाद भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे हैं। बिहार विधान परिषद में भाजपा के नेता और विभिन्न राज्यों के गवर्नर भी रहे हैं। अब वे सभी दायित्वों से मुक्त हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार भी संजीव चौरसिया भारी मतों से विजयी हुए। सबसे अधिक मतों से विजयी होने वाले दस विधायकों की सूची में वे दूसरे स्थान पर हैं। पार्टी यदि इन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देती है तो इसे वंशवाद की श्रेणी में बताना बौद्धिक दिवालियापन ही होगा। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए भारतीय जनता पार्टी की ओर से घोषित 101 उम्मीदवारों की सूची में कई नए चेहरों को मौका दिया गया था। कई दिग्गज नेताओं के टिकट काटने का फैसला लिया गया। इस चुनाव में भाजपा ने अपनी रणनीति में कई बड़े बदलाव किए हैं, जिसमें कुछ अनुभवी नेताओं को टिकट देने के साथ ही सांगठनिक कार्य में दक्ष व संगठन के मूल संस्कार वाले युवा कार्यकर्ताओं को मौका देना शामिल है। इसके साथ ही प्रषासनिक समझ और कौषल वाले लोगों को भी भाजपा ने टिकट देकर आगे की रणनीति के संकेत दिए हैं।
पीएम मोदी अक्सर कहते हैं कि भारत के तंत्र को औपनिवेषिक मानसिकता से मुक्त कराना है। यह कार्य आसान नहीं है क्योंकि हठात कोई निर्णय लेने से बड़ी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। पीएम मोदी कहते हैं कि लोहा लोहे को काटता है। ऐसे में राष्ट्रीय विचार से पूर्ण युवा नौकरशाहों को विधायिका में लाना और उन्हें सरकार में शामिल कर औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के अभियान को आगे बढ़ाने की रणनीति है। भारतीय पुलिस सेवा की आकर्षक नौकरी को छोड़कर राजनीति में आने वाले आनंद मिश्रा को बक्सर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा ने चुनावी मैदान में उतारा। युवा आनंद मिश्रा अब विधायक हैं। पीएम मोदी की दीर्घकालीन योजना के एक हिस्सा माने जा सकते हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने नीति और व्यावहारिक राजनीति के बीच संतुलन साधने का प्रयास किया जिसके परिणाम भी दिखे। युवा कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने के साथ ही कुछ अनुभवी लोगों को भी इस बार अवसर दिए गए। इसमें जातीय संतुलन को साधने का भी प्रयास दिखता है। अपनी रणनीति से भाजपा अत्यंत पिछड़ों में पैठ बनाने में सफल रही है। संगठन के फीडबैक के आधार पर कई मौजूदा विधायकों को टिकट से वंचित करना व्यावहारिक राजनीति में ही शामिल है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तीनों सूचियों में कुल 19 वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए। इसका एक उद्देश्य एंटी इंकम्बेंसी और भितरघात को रोकना और दूसरा नए ऊर्जावान चेहरों को चुनावी मैदान में उतारना था। इस बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण पटना साहिब सीट पर दिखा, जहां विधानसभा अध्यक्ष नंद किशोर यादव का टिकट काटकर उनकी जगह रत्नेश कुशवाहा को उम्मीदवार बनाया गया। वहीं भाजपा ने कई प्रमुख और अनुभवी नेताओं को टिकट देकर संतुलन के साथ पीढ़ी परिवर्तन की ओर सावधानी से कदम बढ़ाया।
पूर्व उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद को कटिहार से, प्रेम कुमार को गया शहर से, नितिन नवीन को बांकीपुर से और रामकृपाल यादव को दानापुर से चुनाव लड़वाना सुनियोजित और सुविचारित कदम था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी विधान परिषद के सदस्य के रूप में लगातार सरकार के मुखिया रहे। इसके बाद कई महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी संभालने वाले भी विधान परिषद के ही सदस्य थे। उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मंगल पाण्डेय भी विधान परिषद के सदस्य के रूप में ही मंत्रीमंडल में शामिल थे। ऐसे में यह धारणा बन रही थी कि एनडीए की सरकार को जनता से दूर रहने वाले नेता चला रहे हैं।
राजनीति में अवधारणा का बहुत महत्व होता है। इस अवधारणा को तोड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी को तारापुर से मैदान में उतारा दिया। वहीं पूर्व प्रदेष अध्यक्ष मंगल पाण्डेय को उनके गृह जिला सिवान से चुनावी मैदान में उतार दिया। ये दोनों विजयी रहे। अब ये आम मतदाताओं द्वारा चुने गए बिहार विधानसभा के सदस्य है। बिहार विधानसभा में राजद के नेताओं ने एलान किया था कि वे किसी भी कीमत पर उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा को लखीसराय से चुनाव जीतकर विधानसभा में नहीं आने देंगे। लखीसराय में माफियाओं के संगठित प्रयास के बावजूद विजय कुमार सिन्हा भारी मतों से विजयी होकर फिर से विधानसभा पहुंच गए।
भारतीय जनता पार्टी ने बिहार के ग्रामीण क्षेत्र से निकल कर शास्त्रीय अनुशासन से युक्त लोकगीत प्रस्तुति से देश-विदेश में ख्याति अर्जित करने वाली युवा कलाकर मैथिली ठाकुर को मिथिलांचल से चुनावी मैदान में उतारकर एक नया राजनीतिक प्रयोग किया है। इसे जीत के हथकंडे तक सीमित मान लेना गलत होगा। इस प्रयोग का उद्येश्य बिहार की राजनीति की दिशा व दषा बदलना है। राजनीति में अपना जीवन खपाने वाले कार्यकर्ताओं के साथ विविध क्षेत्र में विख्यात कुछ वैसे सक्षम युवाओं को जोड़ने की परम्परा शुरू करना है जो अपने प्रभाव, अनुभव व क्षमता से बिहार में बदलाव की कड़ी बनें। इसी रणनीति के तहत बिना किसी पैरवी या पृष्ठभूमि के मशहूर लोक गायिका मैथिली ठाकुर को अलीनगर से और पूर्व आईपीएस अधिकारी आनंद मिश्रा को श्रीराम की प्रथम कर्मभूमि बक्सर से टिकट दिया गया। शूटर से राजनेता बनी श्रेयसी सिंह को जमुई सीट से फिर से मैदान में उतार कर भाजपा ने अपनी इस दूरगामी रणनीति को पुख्ता किया है।
‘क्राइम, करप्शन और कम्युनल्जिम से कोई समझौता नहीं’, यह नीतीश कुमार की घोषित नीति रही है। इस पर वे कठोरता से कायम भी रहे हैं। लेकिन, इस बार के विधानसभा में कुछ ऐसे चेहरे दिखेंगे जिनका इन तीनों से नाता रहा है। मोकामा से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़कर जितने वाले अनंत सिंह बिहार विधानसभा में दिखेंगे। अपने क्षेत्र में उनकी छवि राबिन हुड की हो सकती है लेकिन उनका संबंध तो अपराध जगत से रहा ही है। व्यापक दृष्टि से यदि विचार करें तो वे एनडीए की कमजोर कड़ी हैं। दूसरा सिवान में लम्बे समय तक दहशत के पर्याय माने जाने वाले शहाबुद्दीन के पुत्र ओसामा रघुनाथपुर से चुनाव जीत गए हैं। अब वे बिहार विधानसभा में माननीय के रूप में बैठेंगे। वे अपने पिता की विरासत को संभाल रहे हैं। करप्शन की दृष्टि से विचार करें तो सरकार के कर के करोड़ों की हेराफेरी में आरोप भी विधानपरिषद की जगह अब विधानसभा में दिखेंगे।
बिहार विधानसभा एक बार फिर संक्रमण के दौर से गुजरता दिख रहा है। राजनीति में संपूर्ण स्वच्छता की बात व्यावहारिक नहीं मानी जाती। लेकिन भ्रष्टाचार, अपराध जैसी बुराइयों का संस्थागत बनाया जाना मानवता के समक्ष भारी संकट का संकेत है। वर्तमान बिहार विधानसभा अपराध के संस्थागत मान्यता का प्रतिकार करता दिख रहा है।