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बाजार के दबाव ने हमारे गांवों को सिनेमा से बाहर निकाला : प्रशांत रंजन

यह विडंबना ही है जहां तीन—चौथाई दर्शक ग्रामीण समाज से आते हैं, वहां गांव आधारित फिल्मों की संख्या दस प्रतिशत से भी कम हैं। नई सदी में तो ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में अंगुलियों पर गिनाई जा सकती हैं, जबकि इसके बदले में जो हमें परोसा जा रहा है, उससे हम कनेक्ट नहीं हो पा रहे हैं. . . .

Swatva Desk
Last updated: December 16, 2024 7:56 pm
By Swatva Desk 1.6k Views
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4 Min Read
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फिल्म अभिनेत्री संगीता रमण सम्मानित

मुट्ठी भर लोग तय कर रहे हमारा मनोरंजन

नकली गांव दिखाने वाली 90 % भोजपुरी फिल्में हर साल फ्लॉप हो रहीं

पटना: पटना पुस्तक मेले में चल रहे दस दिवसीय फिल्मोत्सव ‘सिनेमा-उनेमा बाकरगंज’ के अंतिम दिन सोमवार को फिल्म अभिनेत्री संगीता रमण को सम्मानित किया गया। पटना पुस्तक मेला के संयोजक अमित झा, कार्यक्रम के प्रथम दर्शक बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक डॉ अशोक कुमार सिन्हा, पद्मश्री ब्रह्मदेव राम पंडित और पद्मश्री अशोक बिस्वास ने अभिनेत्री को प्रशस्ति-पत्र, प्रतीक चिह्न, पौधा देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर अभिनेत्री ने पिछले 20 वर्षों से जारी अपनी फिल्मी यात्रा की चर्चा की।

Contents
फिल्म अभिनेत्री संगीता रमण सम्मानितमुट्ठी भर लोग तय कर रहे हमारा मनोरंजननकली गांव दिखाने वाली 90 % भोजपुरी फिल्में हर साल फ्लॉप हो रहीं
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मुख्य वक्ता फिल्म समीक्षक प्रशांत रंजन ने ‘सिनेमा से गायब होते गांव’ विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि मुख्य धारा के बाजार आधारित सिनेमा उद्योग ने हमारे गांव को अपने फ्रेम से बाहर निकाल दिया है। यह विडंबना ही है जहां तीन—चौथाई दर्शक ग्रामीण समाज से आते हैं, वहां गांव आधारित फिल्मों की संख्या दस प्रतिशत से भी कम हैं। नई सदी में तो ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में अंगुलियों पर गिनाई जा सकती हैं, जबकि इसके बदले में जो हमें परोसा जा रहा है, उससे हम कनेक्ट नहीं हो पा रहे हैं। यही कारण है कि नकली गांव दिखाने वाली 90 प्रतिशत भोजपुरी फिल्में हर साल फ्लॉप हो रही हैं। मुट्ठी भर लोग मिलकर यह तय करना चाह रहे हैं कि हिंदी पट्टी के 80 करोड़ सिनेमा प्रेमी अपना मनोरंजन कैसे करें? आज सुधि सिनेमा प्रमियों द्वारा फिल्मकारों को यह संदेश दिया जाना चाहिए कि हमारा मनोरंजन हमारी तरह की फिल्मों से होना चाहिए।

उन्होंने हिंदी के मुकाबले दक्षिण की फिल्मों का तुल्नात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया कि हाल में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनीं दक्षिण की कर्णन, कांतारा, तिथि या असम की विलेज रॉकस्टार्स को न केवल दर्शकों का भरपूर प्यार मिला, बल्कि इन फिल्मों राष्ट्रीय पुरस्कार समेत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना भी मिलीं। इसके विपरीत हिंदी के फिल्मकारों ने परायी कहानी के संवादों में अंग्रेजी ठूंसकर अपना दायरा संकीर्ण कर लिया है। इससे उबरना होगा।

उन्होंने 50 व साठ के दशक की हिंदी फिल्मों की चर्चा की और कहा कि बिहार के गांव को प्रामाणिकता से दिखाने वाली किसी फिल्म का नाम पूछा जाए, तो हमें ‘तीसरी कसम’ की ही याद आती हैं। फिर हम ‘नदिया के पार’ को यादकर अतीत को जीने लगते हैं। लेकिन, वर्तमान सिनेमा संसार में गांव लगभग गायब है। 21वीं सदी में हालांकि लगान व स्वदेश से लेकर मालामाल वीकली व पीपली लाइव तक में भारत का ग्राम्य जीवन दिखा है। हाल के दिनों में भी नील माधव पांडा की कड़वी हवा, विशाल भारद्वाज की पटाखा व किरण राव की लापता लेडीज़ में गांव दिखे। लेकिन, जिस देश में 300 से अधिक हिंदी फिल्में हर साल बनती हों, वहां यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।

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इससे पूर्व पटना पुस्तक मेला के संयोजक अमित झा ने कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रशांत रंजन को प्रतीक चिह्न, तुलसी पौधा आदि देकर सम्मानित किया। इस दौरान फिल्म ‘पक्षीराज गरुड़’ दिखायी गई। कार्यक्रम का संयोजन मंच संचालन अभिनेता व रंगकर्मी कुमार रविकांत ने किया। इस अवसर पर राष्ट्रीय वरीय रंगकर्मी नीलेश्वर मिश्र, सुमन कुमार, मिथिलेश सिंह, फिल्म समीक्षक डॉ. कुमार विमलेंदु सिंह, दिव्या गौतम, समाजसेवी सुजीत सुमन समेत जनसंचार के विद्यार्थी एवं सिने प्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

TAGGED: cinema unema, film festival, Patna Book Fair
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