
एकांत में बैठकर जब मैं गयाजी का ध्यान करता हूं तब भारत की संस्कृति, ज्ञान परंपरा और सनातन धर्म की एक छवि उभरती है। उस छवि में पुरूषार्थ से संचालित आनंद से परिपूर्ण एक नगर दिखता है जहां धर्म के साथ अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होता है। गयाजी के मूल में भगवान विष्णु हैं जिनसे इस सृष्टि का पालन-पोषण हो रहा है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को विष्णु बताते हुए कहा है कि सूर्य के रूप में मैं तपता हूं जिससे वृष्टि होती है जल के रूप में पृथ्वी मंे प्रविष्ट होकर अन्न औषधियों को पुष्ट करता हूं। गदाधर गयाजी का सूर्य कुंड गीता के उस श्लोक के साक्षी हैं।
गयाजी विष्णु की नगरी है जहां सृष्टि में सुख-शांति की स्थापना की दृष्टि और प्रवृति दोनों मिलती है। गयाजी कोई सामान्य राजनीतिक, औद्योगिक या व्यावसायिक नगर नहीं है। अतः गयाजी को समझने के लिए एक विशेष भाव की आवश्यकता है। यदि आप उस भाव के साथ गयाजी को देखेंगे, समझेंगे और अनुभव करेंगे तो जीवन जीने का एक ऐसा प्रतिमान मिलेगा जहां दुख-दारिद्र नहीं होता। मनुष्य होने का मतलब जान पड़ता है।
कोई कह सकता है कि गयाजी एक ऐसा शहर है जहां आने वाले तीर्थ यात्रियों से बाजार में रौनक होता है और कमाई होती है। यह एकांगी और सतही दृष्टि है। सनातन धर्म की रीढ़ चतुष्टय पुरूषर्थ हैं जिसमें धर्म के लिए अर्थ और काम को महत्वपूर्ण माना गया है। धर्म, अर्थ और काम के सम्यक व्यवहार से जीवन में परमसुख और शंति के साथ मोक्ष की प्राप्ति यानी परमात्मा की प्राप्ति का सिद्धांत है। इस प्रकार हमारा सनातन जड़ नहीं बल्कि जीवंत है। इसीलिए हमने पाषाण या पत्थर की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा कर उसमें परमात्मा के दर्शन किए हैं। निर्जीव पाषाण में जीवंत मूर्ति, मूर्ति की सज्जा, श्रृंगार, प्रभु को रिझाने के लिए गायन, वादन, नृत्य जैसे रचनात्मक और कलात्मक कर्म को भी अपने धर्म का ही भाग माना है। व्यवसाय भी हमारे लिए पूजा ही है।
धर्म और अध्यात्म को अपने गर्भ में धारण करने वाली गयाजी की पूण्यभूमि पर विदेशी आक्रांताओं के कारण बार-बार संकट के बादल छाते रहे हैं। अकबर के राज्यकाल में राजा मानसिंह ने गयापाल पुरोहितों एवं भगवान विष्णु की पूजा में उपयोग होने वाले आकर्षक पीताम्बर वस्त्र उत्पादन करने वाले कारीगरों को पटवा टोली में बसाया। मानसिंह ने गयाजी के पास ही मानुपर बसाकर भारत के इस प्रमुख धर्म नगरी में कला आधारित उद्योग और व्यवसाय के लिए अनुकूल माहौल और सुविधा प्रदान किया था।
यहां तीर्थ यात्रियों को पूजा-अर्चना के लिए मनोवांछित वस्त्र, पात्र और मूर्ति आदि उपलब्ध कराने के पुरूषार्थ ने इस नगर में विशेष रचनात्मक, कलात्मक व्यवसाय और उद्यम का शुभारंभ हुआ। पंजाब, राजस्थान, दक्षिण भारत से वस्त्र, मूर्ति निर्माता यहां आकर बसने लगे। इन सबके प्रबल पुरूषार्थ से गयाजी की ज्ञान परंपरा के साथ भारत की दिव्य संस्कृति की धारा प्रावाहित होती थी। इस अर्थ में गयाजी भारत का अद्वितीय सांस्कृतिक नगर हैं।
भारत में जब अंग्रेजों का राज स्थापित हो गया तब अंग्रेजों ने इस धर्मनगरी के समीप ही एक आधुनिक नगर बसाया। इसके बाद गयाजी एक व्यावसायिक केंद्र के रूप में तेजी से विकसित होने लगा। खासकर यहां के वस्त्र बाजार की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थी।
1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद इस शहर की व्यवस्था कुछ दिनों के लिए गड़बड़ाई लेकिन, भारी संख्या में यात्रियों के पहंुचने की परंपरा जारी रहने के कारण यह स्थान व्यवसाय के लिए अनुकूल बना रहा। हमारा परमसौभाग्य है कि मैं इस परम पवित्र नगर का वासी हूं।
अब से करीब सवा सौ साल पूर्व हमारे प्रपितामह गयाजी की ओर आकर्षित हुए और राजस्थान के चिडाक से यहीं आकर बस गए। गयाजी की कृपा से यहां कारोबार चलने लगा। आजादी के छह वर्ष बाद 1953 में मेरा जन्म हुआ था। गयाजी की पुण्यभूमि पर बचपन से लेकर अबतक सुखपूर्वक जीवन जीने का सौभाग्य मिला है।

जब 17 वर्ष का हो गया तब 1970 से अपने पिता स्व विश्वनाथ अग्रवाल के साथ कारोबार में हाथ बंटाने लगा। उस समय हमारे प्रतिष्ठान से दस लोग जुड़े थे। आज हमारे इस परिवार में चार सौ से भी अधिक लोग जुड़े हैं। हमारे प्रतिष्ठान डालमिया सिंथेटिक्स का विस्तार गुजरात के सूरत के साथ ही भारत के अन्य राज्यों तक हो गया है।
मेरा मानना है कि व्यक्ति का अस्तितव विराट से है। विराट का ही व्यक्त रूप अपना समाज एवं राष्ट्र है। सनातन परंपरा के अनुसार परमात्मा की कृपा से हमें धन, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। ऐसे में हम उस धन का स्वामी नहीं बल्कि एक न्यासी होते हैं। धन का उपयोग अपने और अपने परिजनों मित्रों, सहयोगियों और सेवकों के भरण-पोषण के साथ धर्म, संस्कृति, राष्ट्र एवं मानवता के उपकार के लिए होना चाहिए।
भारत एवं समपूर्ण विश्व का कल्याण सनातन धर्म व ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं उसे अपने व्यवहार में उतारने से होगा। धर्म विग्रह प्रभु श्रीराम हमारे आदर्श हैं। हमारे प्रार्थना पर श्रीराम कथा सुनाने के लिए के लिए श्री मुरारी बापू गयाजी आए थे। उन्होंने सुझाव दिया कि अपने प्रतिष्ठान में कार्य करने वालों के लिए भोजन की व्यवस्था करो। मुझे उनका यह सुझाव धर्मानुकूल लगा। अपने प्रतिष्ठान में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए हमने भोजन की व्यवस्था शुरू करा दी है। परमात्मा की कृपा से यह कार्य निर्बाध चल रहा है। चित्रकूट पीठाधीश्वर जगत् गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्री रामभद्राचार्य जी महाराज की भी कृपा मुझ पर है।
मेरा मानना है कि धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में अपेक्षित कार्य का संपादन कोई व्यक्ति या कोई एक संगठन से संभव नहीं है। इसके लिए सामूहिक शक्ति और सामूहिक संकल्प की आवश्यकता है। इसी सोच से मैने कुछ संसाधन सम्पन्न लोगांे को एक मंच पर लाने का प्रयास किया। हम इसे जी-10 संगठन कहते हैं। इसमें मेरे यानी शिवकैलाश डालमिया के अलावा प्राण मितल, विनोद जसरापुरिया, रामावतार धानुक, राजेश झुनझुनवाला, विष्णु भलोटिया, प्रदीप अग्रवाल, सुनील बरेलिया, मुकेश खंडेलवाल, पवन मोर,विपेंद्र अग्रवाल और वीरेंद्र कुमार शामिल हैं। हमारी ओर से यह प्रयास होता है कि गया क्षेत्र में आने वाले तीर्थ यात्री भूखे नहीं रहें।
गयाजी मे सभी देवी देवताआंे का वास है। आश्विन पितृपक्ष के अवसर पर गयाजी में देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं। पितृपक्ष के पूर्व से ही भक्ति का वातावरण निर्माण के लिए हमने चौदह वर्ष पूर्व गयाजी में नौ दिवसीय गणेश पूजनोत्सव का शुभारंभ कराया था। भगवान विष्णु की नगरी में गणेशोत्सव का यह आयोजन एक दिव्य परंपरा का रूप धारण कर चुका है।