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संस्कृति

गयाजी की ‘शब्द’ साधना

Swatva Desk
Last updated: September 15, 2025 5:47 pm
By Swatva Desk 437 Views
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8 Min Read
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   अंनतधीश अमन
    युवा साहित्यकार

शब्द ब्रह्म की ऊर्जा यानी भाषा के प्रयोग उपकरण के रूप में साहित्य को परिभाषित किया गया है। भारत की ज्ञान परंपरा में साहित्य की धारा साधकों के चिदाकाश से प्रवाहित होती है। गयाजी भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख केंद्र हैं। यहां के साधकों के चिदाकाश से विचार-चिंतन की अनमोल मोतियां झरती रही हैं। परम्परा के रूप में इस साहित्य धारा का प्रवाह आधुनिक काल तक होता रहा है।

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व्यावहारिक जीवन के यथार्थ के साथ दार्शनिक तत्वबोध से युक्त गया के पंडों की साहित्य-सेवा अध्ययन और शोध का विषय है। गयाजी के साहित्यकारों की यश-कीर्ति सम्पूर्ण भारत में रही है। यहां के साहित्य साधकों की लम्बी सूची है। कान्हूलाल गुर्दा, पन्नालाल भैया ‘छैल’, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, नारायण लाल जी कटरियार, गोपाललाल सिजुआर जैसे कई नाम हैं जिनका योगदान कालजयी है। मोहन लाल महतो वियोगी जी राष्ट्रीय स्तर के समर्थ महाकवि थे। बिहार राष्ट्रभाषा से पुरस्कृत नारायणलाल जी कटरियार हिंदी जगत् के बहुप्रशंसित गीतकार हुए।

वियोगी जी की साहित्य रचना में यथार्थ के साथ ही भारत की ऋषि चिंतन परंपरा का अद्भुत समन्वय है। इस अर्थ में हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में उनकी अनूठी देन है। इनके ऐतिहासिक महाकाव्य का अतुकांत छंद-विधान आंतरिक लय का विरल उदाहरण है। हिंदी छायावादी-रहस्यवादी काव्यधारा के उत्थान में इनका विशिष्ट योगदान है। सहज भावना, सरल कल्पना तथा आंतरिक उन्मेष इनकी रचना को हृदय स्पर्शी बनाते हैं।

कशी के कबीर की रचनाओं में उनके जीविका कर्म के उपकरण और पदार्थ प्रतीक बनकर काव्य को सामर्थ्य प्रदान करते है। उसी प्रकार गयापाल मोहन लाल महतो वियोगी की रचनाओं में भी उनके सहज कर्म के शब्द प्रतीक बनकर अर्थबोध को अत्यंत प्रभावकारी बनते हैं। इस अर्थ में वे हिंदी के अपने समकालीन रचनाकारों से अलग दिखते हैं। यह बहुत कम लोग ही जानते हैं कि वियोगीजी स्कूल-कालेज की परम्परागत शिक्षा से दूर थे। हां, उनके घर पर ही आचार्यों ने उन्हें हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा दी थी। वैदिक ज्ञान उन्हें परम्परा से और गयाजी के वातावरण से प्राप्त थे।

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मोहनलाल महतो वियोगी का जीवन परिचय | हिन्दवी
      मोहन लाल महतो वियोगी

इनके ‘आर्यावर्त्त’ महाकाव्य की भाषा प्रवाहपूर्ण तत्सम प्रधान है तथा शैली रसपूर्ण। काव्यगत परिस्थितियों का चित्रण सशक्त और सामयिक भी है। आर्यावर्त में देशभक्ति और आर्य-गौरव की भावना उत्कर्ष पर उभरी है। काव्य-प्रवाह में आवेश का ज्वार लहराता है। वियोगी जी स्वभावोक्ति एवं वक्रोक्ति के सिद्धहस्त कवि हैं। काव्य के आरंभ में रणचण्डिका की वंदना अन्यत्र दुर्लभ है। हजारों वर्षों की परकीय दासता के कारण अवसादग्रस्त भारत में उत्साह, उर्जा और आत्मविश्वास के संचार के लिए वह आवश्यक था।

अम्बे ! रणचण्डिके! नृमुंडमालधारिणी!
देवी प्रलयंकरी पुकारता हूँ आज मैं, आओ मा करालिके!
पधारो अरिमर्दनी!
नाचो एक बार महारौद्र मदमत्ता हो
मेरी कल्पना के इस आँगन में तारिणी!
कौन है समर्थ गति रुद्ध करे इसकी,
बाधाएँ उड़ेंगी तुच्छ सेमर की रूई सी
रौद्रे! रुद्र तेज दो, दिखा दूँ ज्ञान अंघ को
कवि लेखनी में कैसी वज्र सी चमक है ! ……

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राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत महाकाव्य ‘आर्यावत्तर्’ एक ऐतिहासिक प्रबंधकाव्य है। महाकवि चंद और पृथ्वीराज की वार्त्ता से काव्य का आरंभ होता है। तेरहवें सर्ग में पृथ्वीराज अंधे होने पर भी शब्दभेदी बाण से गोरी का वध करते हैं। अंततः मुहम्मद गोरी के कारागर में ही कवि चंद और पृथ्वीराज अपने प्राणों की आहुति दे बैठते हैं और कट मरते हैं।

एकतारा, निर्माल्य तथा कल्पना जैसे इनके कई काव्य-संग्रह है। जातकालीन भारतीय संस्कृति तथा आर्य जीवन-दर्शन इनके शोध-ग्रंथ हैं। गया-दर्शन तथा गया श्राद्ध कब और कैसे जैसी इनकी विवरणात्मक पुस्तकें गया के बारे में प्रामाणिक स्रोत ग्रंथ हैं। महामानव (व्यंग्य), नया युग नया मानव (व्यंग्य), शेषदान, अतीत के चित्र (ऐतिहासिक), महामंत्री (ऐतिहासिक) इनके उपन्यास हैं। इनके कहानी संग्रह हैं आरपार, रजकण, धोखा। ‘तथास्तु’ इनका नाटक है। ‘उस पार’ इनकी आत्मकथा है जो उसकाल खंड से परिचय कराता हे। ‘सात सुमन’ इनका संस्मरण संग्रह है। आरंभ में वियोगी जी सवैया लिखा करते थे। जब ये छह साल के थे तभी इनकी माता जी गोलोकवासी हो गयी थीं। जमीन पर चित्रबनाकर बालक वियोगी को रिझाने का प्रयास करती थी। माता के सान्निध्य का असर उनपर आगे भी रहा और वे कवि के साथ ही एक सधे कार्टूनिस्ट बन गए थे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में इन्होंने सटीक द्विपदी पद्य लिखे।

कोई देख न ले इस भय से कहाँ छुपोगे ठौर नहीं हैं।
स्वयं देखते हो अपने को, द्रष्टा कोई और नहीं।।
एक साथ ही बहे जा रहे, राजा रंक फकीर ।
अपनी अपनी इन्हें पड़ी है, कौन बँधाए धीर।।
सूने घर में रात बिलखती, दीपक जले अकेला ।
चुप न रहो कुछ बोलो सजनी, है बिछुड़न की बेला ।।
वह जानी पहचानी दुनिया बदल गई, अब नहीं कहीं है।
तुम्हें घोंसले का रोना है, यहाँ बाग का पता नहीं है।।
ग्रहण करूँ तो जग बैरी हो, त्याग करूँ, तो हृदय हहरता।
मन पंछी इन दो डालों पै हो बेचौन फुदकता रहता ।।

वियोगी जी के प्रिय शिष्यों में एक नारायणलाल जी कटरियार थे। गया जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इनके कुछ गीतों को ‘निर्माल्य के कण’ शीर्षक से प्रकाशित किया। इनके गीतों में गंभीर सुर और लंबित लय अनन्य करुणा के उत्स सिद्ध हुए हैं। मगही गीत भी इन्होंने इसी भावप्रणता के वेग में लिखे। इनके हिंदी गज़ल प्रभवत्ता की दृष्टि से निराले हैं। चाहे जो, जैसी भी परिस्थिति रही ये उसे अपने गीतों में, गज़लों में गुनगुनाते रहे और अवकाश के क्षणों में कहीं किसी कागज के टुकड़े पर उतार देते रहे। प्रायः पांच सौ से अधिक इनके गीतों, गज़लों की पांडुलिपि अभी सुरक्षित है। इनके गीतों से उदहारण-

प्यार अनजान के घर न गिरवीं रखो
क्या करोगे महाजन बदल जाए तो।
ताकते मुँह भरोसे रहोगे सदा
क्या करोगे जो दर्पण बदल जाए तो ।।…
सावन की साँझ बड़ी साँवरी
छाया को बैठाकर धूप गई अपने घर
जाने कब लौटेगी बावरी। सावन की साँझ…
बड़ी दूर जाना है शाम को
ऊँचे हैं, खाले हैं, बहुत नदी-नाले हैं
करना है पार नगर ग्राम को। बड़ी दूर…..

भारत की सांस्कृतिक नगर गयाजी के गौरव को स्थापित करने के लिए इनकी साहित्य साधना की परंपरा को भी जीवंत रखना होगा।

TAGGED: कशी, गयाजी, भारत, महाकाव्य
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