विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को चुनौती देने वाला महान गणीतज्ञ और भारत माता के महान सपूत वशिष्ठ नारायण सिंह की पूरी क्षमता के उपयोग और लाभ से विज्ञान जगत वंचित रह गया। भारत की बांझ राजनीति ने विज्ञान को नई दिशा देने की क्षमता वाले महान विभूति को फटेहाली की दशा में पहुचा दिया था। इलाज के अभाव में 14 नवम्बर 2019 को उनका निधन हो गया। गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर को मजबूर वशिष्ठ नारायण सिंह की जब पीएमसीएच में मृत्यु हुई थी तब उनके मृत शरीर को स्ट्रेचर पर रखकर अस्पताल से बाहर कर दिया गया था। वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे वैज्ञानिक का अमेरिका जैसे देशों में कैसा सम्मान होता है, जानना हो तो अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन की घटनाओं को जानना होगा।
वशिष्ठ नारायण की समृति में पुस्तकालय भी अधूरा
वशिष्ठ नारायण सिंह अब नहीं रहे। लेकिन उनकी पुस्तकें और उनके हस्तलिखित शोधपत्रों को उनके छोटे भाई अयोध्या सिंह ने संभाल कर रखा है। उन पुस्तकों और शोध की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण उन पांडुलिपियों को छोटे से घर में संभालना अत्यंत कठिन कार्य है। आरा के पूर्व सांसद आरके सिंह ने वशिष्ठ नारायण सिंह के गांव में एक पुस्तकालय का निर्माण शुरू कराया था जो अभी तक अधूरा है। लोग आशा कर रहे हैं कि पुस्तकालय का निर्माण पूरा हो जाने के बाद उनकी पुस्तके सुरक्षित हो जायेंगी। लेकिन इतने से वशिष्ठ बाबू का अधूरा कार्य पूर्ण तो नहीं होगा। उस पर शोध का कार्य यदि आगे बढ़ता है, तब उसका कोई मतलब होगा।
बिहार के गणितज्ञ सपूत की क्या है जीवन यात्रा
अब हम वशिष्ठ नारायण सिंह की जीवन यात्रा की थोडी चर्चा करते हैं। कैसे एक महान वैज्ञानिक को हम लोग सम्भाल नहीं सके। भारत की आजादी की लड़ाई जब चरम पर थी उसी साल 1942 के अप्रैल महीने में बिहार के भोजपुर के एक छोटे से गांव बसंतपुर में वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म हुआ था। प्रतिभावान वशिष्ठ का नामांकन उस समय के सर्वश्रेष्ठ आवासीय नेतरहाट विद्यालय में हुआ था। मैट्रिक की परीक्षा में वे पूरे बिहार में टॉप हुए थे। मैट्रिक पास होने के बाद आईएसएसी में उनका नामांकन पटना के साइंस कालेज में हुआ जहां गणित के वर्ग में उन्होंने एमएससी लेवेल के प्रश्न हल करने शुरू कर दिये। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली एक सेमिनार के लिए पटना साइंस कालेज आए थे। उनकी नजर 18 वर्षीय वशिष्ठ नारायण पर पड़ी। उन्होंने उस अनमोल रत्न को पहचान लिया। पटना विश्वविद्यालय ने अपने नियमों को शिथिल करते हुए वशिष्ठ नारायण सिंह को एमएसएसी की डिग्री दे दी। इसके बाद 1965 में प्रोफेसर जॉन कैली उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका ले गए। वर्ष 1969 में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में जब उन्होंने अपनी पीएचडी को प्रस्तुत किया तो अचानक पूरे विश्व के वैज्ञानिकों में हड़कम्प मच गया क्योंकि उन्होंने गणित में जो नया सिद्धांत दिया था वह आगे चलकर आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को चुनौति देने वाला था। वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर काम भी किया. उन्होंने कुछ समय के लिए नासा में भी काम किया हालांकि उन्हें विदेश रास नहीं आ रहा था और मन नहीं लगने के कारण साल 1971 में वह भारत लौट आए।
अमेरिका से आकर भारत में क्या—क्या किया
भारत लौटने की जिद्द के बाद उनके साथ क्या हुआ यह आज तक रहस्य का विशय बना हुआ है। भारत में उन्होंने आईआईटी कानपुर, आईआईटी बंबई और आईएसआई कोलकाता में काम किया। इसी बीच 1973 में छपरा के एक प्रतिष्ठित परिवार में उनकी शादी हुई। उनकी पत्नी का नाम वंदना रानी था। दिनभर एकांत में पढ़ते रहने और गणित की समस्याओं में उलझे रहने वाले वशिष्ठ नारायण को शादी के छह माह बाद ही उनकी पत्नी ने छोड़ दिया। इसके बाद उनकी मानसिक स्थिति खराब होने लगी। लगातार बीमार रहने के बाद वे सबकुछ भूलने लगे, एक दिन अचानक पुणे से इलाज कराकर लौटते वक्त वे ट्रेन से कहीं उतर गए और लापता हो गये।
मानसिक संतुलन खोने के बाद लावारिस मिले
कई सालों बाद 1993 में बेहद दयनीय हालत में वे छपरा शहर से करीब 12 किलोमीटर पूर्व डोरीगंज में मिले। इसके बाद उन्हें बसंतपुर लाया गया। मीडिया में खबर छपी तब बिहार के तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद उनसे मिलने पहुंचे। उन्होंने घोषणा की कि सरकार उनके इलाज का खर्च वहन करेगी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया। वे गांव में ही रहने लगे, जहां उनकी मां, भाई अयोध्या सिंह और उनके पुत्र मुकेश सिंह देखरेख करते थे। उनका इलाज नियमित होता रहे, साथ ही उनकी पुस्तकें व उनके हस्तलिखित कापियां भी उनके पास रहे। इसकी व्यवस्था परिजनों को ही करनी पड़ती थी। संकट के उस काल में उद्यमी और राजेनता गोपाल नारायण सिंह मदद के लिए सामने आए। विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय संगठन महामंत्री हरेंद्र प्रताप यथा संभव उनकी सहायता में तत्पर रहते थे। सरकार और समाज से उन्हें उतनी सहायता या सहयोग नहीं मिला जितना मिलना चाहिए थे।
अल्बर्ट आइंस्टीन से वशिष्ठ नारायण की साम्यता
अब हम यहां अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन के कुछ घटनाओं की चर्चा करते हैं ताकि हम तुलना कर कुछ निष्कर्ष पर पहुंच सकें। अल्बर्ट आइंस्टीन भी बातों को भूल जाते थे। कपड़े भी ठीक से नहीं पहनते थे। उनकी पत्नी अक्सर उन्हें सलाह देती थीं कि वह काम पर जाते समय अधिक प्रोफेशनल तरीके से कपड़े पहनें। लेकिन वह ऐसा नहीं करते थे, फिर भी उनकी पत्नी साथ रहीं। अल्बर्ट आइंस्टीन प्रिंसटन विश्वविद्यालय में जब काम कर रहे थे, तो एक दिन घर जाते समय उन्हें अपने घर का पता याद नहीं रहा। तब उन्होंने टैक्सी ड्राइवर से पूछा कि क्या वह आइंस्टीन का घर जानता है। ड्राइवर ने कहा, ष्आइंस्टीन का पता कौन नहीं जानता? प्रिंसटन में हर कोई जानता है। क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं?ष् आइंस्टीन ने उत्तर दिया, मैं ही आइंस्टीन हूं। मैं अपने घर का पता भूल गया हूं, क्या आप मुझे वहाँ पहुँचा सकते हैं? ड्राइवर ने उन्हें उनके घर पहुंचा दिया और उनसे किराया भी नहीं लिया।
भूलने की बीमारी और समाज तथा नेतृत्व का सहयोग
आइंस्टीन के जीवन की एक और घटना का जिक्र यहां जरूरी है क्योंकि वह हमारी आंखें खोलने वाली है।
एक बार आइंस्टीन प्रिंसटन से ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। जब टिकट चेक करने वाला कंडक्टर उनके पास आया, तो आइंस्टीन ने अपनी जैकेट की जेब में हाथ डाला, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी पैंट की जेबें देखीं, लेकिन वहाँ भी नहीं था। इसके बाद उन्होंने अपने ब्रीफकेस में देखा, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी सीट के पास देखा, लेकिन फिर भी टिकट नहीं मिला। कंडक्टर ने कहा, डा. आइंस्टीन, हम जानते हैं कि आप कौन हैं। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है। चिंता मत कीजिए।
आइंस्टीन ने तब प्रशंसा में महज सिर हिला दिया। कंडक्टर आगे बढ़ गया। जब उसने फिर मुड़कर देखा, तो पाया कि महान वैज्ञानिक नीचे झुककर सीट के नीचे टिकट खोज रहे थे। कंडक्टर तुरंत लौट आया और कहा, डॉ. आइंस्टीन, चिंता मत कीजिए। मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं। आपको टिकट की आवश्यकता नहीं है। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है। इसके बाद आइंस्टीन ने जवाब दिया, युवा आदमी, मैं भी जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। पर मैं ये नहीं जानता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।
व्यवस्था की मानसिकता के हुए शिकार
मतलब स्पष्ट है कि उन्हें भूलने की बीमारी थी क्योंकि वे ब्रह्मांड में व्याप्त अनंत ज्ञान के सागर में डूबकर कुछ खोज निकालने में लगे थे। ऐसे मनीषियों की सामान्य स्मृतियां मंद पड़ जाती हैं। अमेरिका के लोगों ने अपने इस ज्ञान सूर्य को अनिष्टकारी काले बादलों से ढकने नहीं दिया। हमारे वशिष्ठ बाबू भी आइंस्टीन की तरह ज्ञान के सूर्य थे। उनका भी सामान्य स्मृति मंद हो गया। लेकिन, राजनीतिक आजादी के बाद भी भारत का समाज और तंत्र औपनिवेशिक मानसिकता का गुलाम रहा जिसमें ज्ञानियों से ज्यादा अधिकारियों और भ्रष्ट नेताओं का मान होता है। इस व्यवस्था और मानसिकता ने ज्ञान के सूर्य को ऐसा ढका कि वह सदा के लिए अस्त ही हो गया।
वशिष्ठ बाबू ने आज के ही दिन यानी 14 नवम्बर 2019 को बदहाल पीएमसीएच में अंतिम सांसे ली थी। उनकी स्मृतियों को प्रणाम। आप से निवेदन है कि आप इस विडियो को अपने परिचितों के साथ शेयर करें और वशिष्ठ बाबू के सपने को साकार करने में अपना योगदान करें। आज बस इतना ही। नमस्कार