प्रशांत रंजन
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा एक अगस्त को हुई और अगले ही दिन से मनमाफिक लोगों को पुरस्कार नहीं मिलने से आलोचनाएं शुरू हो गईं। आलोचना के केंद्र में प्रमुख रूप से सुदीप्तो सेन निर्देशित फिल्म ’दि केरल स्टोरी’ है। भारतीय फिल्म एवं टीवी संस्थान, पुणे के छात्रसंघ से लेकर केरल के मुख्यमंत्री तक ने ’दि केरल स्टोरी’ को मिले पुरस्कार पर कड़ी आपत्ति दर्ज की।
पहले यह जान लेते हैं कि ’दि केरल स्टोरी’ किस बारे में है। आईएसआईएस के अलावा अन्य आतंकी संगठनो द्वारा छल से केरल की सैकड़ों लड़कियों को विदेश ले जाया गया और उनके साथ अमानवीय अत्याचार हुए। उनमें से एकाध ही वापस आ पाईं, जबकि अधिकतर का कहीं पता नहीं चला। यह सिलसिला आज भी जारी है। इसको लेकर केरल के विभिन्न थानों में कई केस दर्ज हैं। यह मामला इतना बढ़ चुका है कि केरल के पूर्व मुख्यमंत्री व दिग्गज वामपंथी नेता वी.एस. अच्युतानंदन भी राज्य में आईएसआईएस की बढ़ती घुसपैठ पर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त कर चुके थे। ’दि केरल स्टोरी’ इन्हीं घटनाओं के आधार पर कहानी कहती है। अब यह जान लेते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री, फिल्म संस्थान के छात्र व फिल्म निर्देशक ने क्या-क्या कहा है। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा कि केरल को गलत तरीके से पेश करने और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने वाली फिल्म को जूरी द्वारा सम्मानित करने के फैसले से उन्हें ’गंभीर अपमान’ हुआ है।
माइक्रोब्लाॅगिंग साइट एक्स पर उन्होंने लिखा है, ’’केरल की छवि खराब करने और सांप्रदायिक नफरत के बीज बोने के स्पष्ट इरादे से स्पष्ट रूप से गलत सूचना फैलाने वाली फिल्म को सम्मानित करके, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की जूरी ने संघ परिवार की विभाजनकारी विचारधारा में निहित एक कहानी को वैधता प्रदान की है।’’

उधर, सुदीप्तो सेन ने भी मुख्यमंत्री द्वारा की गई आलोचना पर प्रतिक्रिया व्यक्त की। सेन ने कहा कि ’’पिनाराई सर एक अनुभवी राजनेता हैं जिनके पास वर्षों का अनुभव है। मैं कोई राजनेता नहीं हूँ और मुझे उनकी टिप्पणियों पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है। लेकिन सच तो यह है कि उनके वरिष्ठ, वी.एस. अच्युतानंदन, जिनका हाल ही में निधन हुआ है, मुझे विश्वास है कि उनकी आत्मा को बहुत खुशी होगी कि हमने उनकी इस टिप्पणी पर एक फिल्म बनाई कि ’’केरल आईएसआईएस की राह पर जा रहा है’’ और उनकी इस टिप्पणी पर कि ’’केरल एक इस्लामिक राज्य में बदल जाएगा’’। हमारे पास उस समय का रिकॉर्ड है जब वी.एस. सिचुआनंदन ने यह टिप्पणी की थी।’’
सुदीप्तो आगे कहते हैं- जब वीएस अच्युतानंदन को उनके इस्लामिक राज्य वाले बयान पर कई जगहों से आलोचना मिल रही थी, तो पी. विजयन ने उनका बचाव किया था। इसलिए, मुझे नहीं पता कि राजनेता कब बोलते हैं, किसी को भी उस पर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए क्योंकि राजनीति उनकी जीवन जीने का तरीका है, वे अपने जीवन और अस्तित्व के लिए क्या करते हैं। मैं राजनेता नहीं हूं, मैं एक फिल्म निर्माता हूं। मुझे पता है कि मैंने कड़ी मेहनत की है, मेरी टीम ने 10-12 वर्षों तक कड़ी मेहनत की है। मैं अपनी फिल्म में बोले गए हर शब्द, फिल्म में दिखाए गए हर दृश्य के साथ खड़ा हूं। 2 महीने की जांच के बाद सेंसर बोर्ड ने मेरी फिल्म के हर दृश्य को स्वीकृति दे दी। फिल्म में एक भी कट नहीं लगाया गया है। मुझे लगता है कि हमारा विश्वास सही साबित हो रहा है।
उन्होंने आगे कहा, ’’अगर आप मान्यता पर विचार करें, तो हां, लाखों भारतीयों और दुनिया भर के लोगों ने फिल्म देखी है और उनका आशीर्वाद और उनका प्यार हमेशा हमारे साथ है। हमें पहले ही लोगों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार, यह देश का सबसे बड़ा पुरस्कार है, जब यह आता है, तो वास्तव में यह एक बहुत ही अवास्तविक एहसास होता है।’’
उधर, भारतीय फिल्म एवं टीवी संस्थान, पुणे के छात्रसंघ ने पत्र जारी कर अपना विरोध व्यक्त किया है। पत्र में कहा गया है- ’’हम, एफटीआईआई के छात्र समुदाय, इस फैसले की कड़ी निंदा करते हैं… दि केरल स्टोरी कोई फिल्म नहीं है – यह एक हथियार है। यह एक झूठी कहानी है जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को बदनाम करना और एक ऐसे पूरे राज्य को बदनाम करना है जो ऐतिहासिक रूप से सांप्रदायिक सद्भाव, शिक्षा और प्रतिरोध के लिए खड़ा रहा है।’’
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रतिवर्ष दिए जाते हैं और फिल्म उद्योग से संबंधित लोगों की खट्टी-मीठी प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। जैसे इसी बार शाहरुख खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिलने पर भी प्रतिक्रियाएं हुईं। लेकिन, किसी राज्य का मुख्यमंत्री या एफटीआईआई का छात्रसंघ इस ढंग से इन पुरस्कारों का प्रतिकार नहीं करता है, जैसा कि ’दि केरल स्टोरी’ मामले में हो रहा, जबकि फिल्म उद्योग से जुड़े किसी दिग्गज हस्ती ने कोई आपत्ति नहीं जताई है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ’दि केरल स्टोरी’ के विरोध का सिनेमाई उत्कृष्टता से कोई मतलब नहीं है। यह विशुद्ध राजनीतिक व एजेंडावादी विरोध है, जो तथ्यों के अभाव में वितंडा का रूप ले चुका है।
याद कीजिए जब The Kerala Story रिलीज हुई थी, तब किस तरह का विलाप चल रहा था। दीदी ने अपने राज्य में प्रतिबंध भी लगाया था, जिसे बाद में न्यायालय ने निरस्त किया। जब पी. विजयन को फिल्म से इतना ही अपमान महसूस अब हो रहा है, तो रिलीज के समय अपने राज्य केरल में क्यों नहीं बैन कर दिया था? अब फिल्म के निर्देशक को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, तो अपना काॅमरेड धर्म निभाते हुए विरोध में सोशल मीडिया पर पोस्ट लिख रहे हैं। यह केवल राजनीतिक माइलेज लेने की चाल है। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन के समय विजयन ने जो बयान दिया था और जो वे आज कर रहे हैं, उनमें विरोधाभास दिख रहा है। जहां तक फिल्म अध्ययन के छात्रों द्वारा विरोध का प्रश्न है, तो उन्हें एजेंडाधारी शक्तियों द्वारा गुमराह किया जा रहा है।
देश संविधान से चलता है। भारत में कौन सी फिल्म चलेगी, उसमें कोैन से संवाद या दृश्य रहेंगे अथवा नहीं रहेंगे, इसे तय करने के लिए भारत सरकार ने CBFC यानी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) नाम की संस्था बनायी है। अन्य फिल्मों की भांति ’दि केरल स्टोरी’ भी सेंसर बोर्ड से पास होने के बाद सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। पी. विजयन या किसी अन्य को लगता है कि फिल्म से केरल प्रांत की छवि धूमिल हो रही या सौहार्द का माहौल दूषित हो रहा, तो उन्हें उसी समय न्यायालय में केस करना चाहिए था। उसके बाद विधि सम्मत तरीके से तय होता कि ’दि केरल स्टोरी’ दिखायी जानी चाहिए अथवा नहीं। परंतु, फिल्म देशभर में रिलीज हुई, करोड़ों लोगों ने फिल्म देखी, अरबों रुपए का व्यवसाय हुआ। यह सब विधिसम्मत तरीके से हुआ। छोटी सी बात पर भी न्यायालय में याचिका लगाने वाले लोग तब क्यों नहीं ’दि केरल स्टोरी’ को रोकने के लिए आगे आए थे? और आज जब फिल्म को सरकार पुरस्कार दे रही है, तब सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर व पत्र जारी कर विरोध की खानापूर्ति की जा रही है।
बात-बात में संविधान रक्षा का स्वांग करने व संविधान की प्रति हाथ में लेकर लहराने वालों को संवैधानिक तरीके से रिलीज हुई फिल्म को रोकना था, तो संवैधानिक तरीके से कोर्ट जाना चाहिए। लेकिन, नहीं वे ऐसा नहीं करेंगे। बल्कि, उनमें से कुछ लोग फिल्मकार की आंखें निकालकर लाने वाले को इनाम देने की तालिबानी घोषणा करते हैं। मौके-बेमौके अभिव्यक्ति की आजादी की तख्ती लहराने वालों को दूसरों की अभिव्यक्ति से कितनी घृणा है, यह ’दि केरल स्टोरी’ वाले मामले में साफ पता चल गया। इसी देश में धोती, शिखा, तिलक, हिंदू देवी-देवताओं का उपहास करने व उन्हें अमर्यादित संदर्भ में प्रस्तुत करने वाली सैंकड़ों फिल्में विगत 50 वर्षों में बनीं। लेकिन, किसी मुख्यमंत्री और फिल्म अध्ययन के छात्रसंघ को कभी तकलीफ नहीं हुई।
वहीं, जब प्रमाणिक तथ्यों को आधार बनाकर, असली पीड़ित युवतियों से बातकर, पुलिस व कोर्ट केस के साक्ष्यों को समेटकर, कानून के दायरे में रहकर जब कोई फिल्म बनती है, तो उसे केवल इसलिए खारिज करने व प्रोपैगैंडा बताने का षडयंत्र किया जा रहा, क्योंकि कुछ लोगों के राजनीतिक एजेंडे को वह फिल्म सूट नहीं करती। ऐसे लोगों को याद रखना चाहिए कि जो संविधान उन्हें विरोध करने का अधिकार देता है, वहीं संविधान सुदीप्तो जैसों को फिल्म बनाने का भी अधिकार देता है। अभिव्यक्ति की आजादी इसी देश कुछ चुनिंदा लोगों के लिए नहीं है, बल्कि वह देश के हर नागरिक के लिए समान है। वितंडा वालों से इतनी मामूली समझ की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। बहरहाल, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के लिए सुदीप्तो देन को बधाई।
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