नई दिल्ली : राष्ट्रीय राजधानी में 17 वर्षीय शांभवी शर्मा, जो संस्कृत स्कूल की कक्षा 12 की छात्रा हैं और जिनकी जड़ें बिहार में गहराई से जुड़ी हैं, पवित्र नृत्यकला कुचिपुड़ी के माध्यम से जीवन को आलोकित कर रही हैं। विख्यात पद्मश्री गुरु राजा राधा रेड्डी से नौ वर्षों तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद शांभवी ने अपनी पहल ‘नृत्यामृत’ के ज़रिए इस दिव्य कला को एक उपचारात्मक शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया है। यह शास्त्रीय नृत्यशैली, जिसकी पहचान उसके भावपूर्ण मुद्राओं और लयबद्ध कथा-वाचन से होती है, अब बच्चों और रोगियों के लिए भावनात्मक संबल का स्रोत बन चुकी है। यह उन्हें उस समय सुकून देती है, जब इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
शांभवी की यह साधना न केवल उनकी G20 यूनिवर्सिटी कनेक्ट में राजगीर में प्रस्तुति से उजागर होती है, बल्कि संस्कृत स्कूल में सांस्कृतिक परिषद की अध्यक्ष के रूप में उनके नेतृत्व और उनके ‘अनरूली आर्ट’ प्रोजेक्ट के नवाचार में भी दिखाई देती है। बिहार की अपनी सांस्कृतिक विरासत से प्रेरणा लेते हुए, शांभवी यह सिद्ध करती हैं कि नृत्य न केवल एक कला है, बल्कि यह आत्माओं को जोड़ने और चंगा करने की एक सार्वभौमिक शक्ति भी है।
दिल्ली की बस्ती में बिहार की सांस्कृतिक छाया
एक रंगीन और जीवंत मोहल्ला-समारोह में शाम्भवी शर्मा के साथ एक भावनात्मक नृत्य सत्र दौरान शांभवी शर्मा ने 8 से 14 वर्ष की आयु के 13 वंचित बच्चों का गर्मजोशी से स्वागत किया। इन बच्चों की आंखों में जिज्ञासा की चमक थी, पर उनके चेहरों पर जीवन की कठिनाइयों की छाया भी साफ़ दिख रही थी। ये बच्चे दिल्ली की एक ऐसी बस्ती से थे, जहाँ बिहार की सांस्कृतिक विरासत आज भी सांस लेती है।

एक छोटे से पोर्टेबल स्पीकर पर मधुर संगीत की धुन के साथ शाम्भवी ने बच्चों को कुचिपुड़ी नृत्य की मूल मुद्राओं से परिचित कराया — ‘समभंग’ और ‘त्रिभंग’। ये मुद्राएँ संतुलन और सौंदर्य की प्रतीक हैं, जो शाम्भवी के बिहार की जड़ों से गहराई से जुड़ी हुई हैं। वर्षों की साधना और G20 राजगीर सम्मेलन में भारत की सांस्कृतिक विरासत का वैश्विक मंच पर प्रतिनिधित्व करने के उनके अनुभव ने उनके हर भाव को प्रभावशाली बना दिया था। उन्हीं सधे हुए कदमों से उन्होंने बच्चों को भी नृत्य की कोमल शुरुआत करवाई। यह सत्र न केवल नृत्य का प्रशिक्षण था, बल्कि संवेदनाओं, उम्मीदों और आत्म-संवेदना की एक सुंदर अभिव्यक्ति भी थी, जिसे शाम्भवी ने अपने Cultural Council President होने के रचनात्मक दृष्टिकोण से और भी खास बना दिया।
शांभवी शर्मा द्वारा सेना अस्पताल में आरोग्य की एक दिव्य प्रस्तुति
कुचिपुड़ी से उपचार की ओर शांभवी शर्मा ने अपनी इस पवित्र कला कुचिपुड़ी को दिल्ली के आर्मी बेस अस्पताल के एक वार्ड तक भी पहुँचाया, जहाँ रिकवरी में जुटे मरीजों ने एक शांत गोल घेरा बनाया था। उनकी ‘दशावतार’ कुचिपुड़ी प्रस्तुति एक दिव्य कथा की तरह सामने आई— हर मुद्रा एक प्रार्थना, हर चाल एक करुण पुकार। पताका मुद्रा मछली अवतार मत्स्य की तरह लहराई — एक खुली हथेली जो शांति और संतुलन का स्पर्श देती है। शिखर मुद्रा में नरसिंह का पराक्रम प्रकट हुआ — मुट्ठी में बंधा संकल्प, जिसने थके-थके चेहरों को दृढ़ता दी। अर्धचंद्र ने कृष्ण की बांसुरी को तारा-जड़े आकाश तले गाया — उसकी चंद्राकार लहर आशा की कानाफूसी बन गई। कपित्था में राम की करुणा खिली — एक शांतिमय संकेत जिसने थामे हुए हाथों को धीरे से खोल दिया।
अस्पताल के रोगी — जिनके शरीर उपचार के कारण स्थिर थे — इस नृत्य की लय में खो गए। शांभवी की यह प्रस्तुति केवल दृश्य अनुभव होते हुए भी एक गहरे आत्मिक स्पर्श का माध्यम बन गई। बिहार के राजगीर में G20 के दौरान जिस सांस्कृतिक कूटनीति का उन्होंने परिचय कराया था, उसकी प्रतिध्वनि यहाँ भी सुनाई दी।
38 वर्षीया श्रीमती सरोज, जो हाल ही में माँ बनी थीं, धीरे से बोलीं— “यह तो जैसे मेरे गाँव की पूजा हो,” उनके हाथ बिहार की पवित्र परंपराओं की स्मृतियाँ टटोलते नज़र आए। 62 वर्षीय श्रीमती सुरेश, एक पूर्व सैनिक, ने कहा— “ऐसा लगा जैसे किसी दिव्य शक्ति ने मेरे दर्द को छू लिया।” 45 वर्षीय श्रीमती तैमुल, उपचाररत, मुस्काईं — “चिंताएँ जैसे घुल गईं,” और उनका मन जैसे किसी सच्चे मंदिर की शांति से भर उठा।
इस सत्र ने दर्शाया कि कुचिपुड़ी केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक गहन उपचार प्रक्रिया है — सिर्फ देखने मात्र से भी मन को सुकून मिल सकता है। शाम्भवी ने बड़ी कोमलता से दशावतार की कथा को दर्शाया, और हर मुद्रा एक दिव्य भाषा बन गई जो शब्दों के बिना भी संवाद कर सकती है।
अस्पताल का वह वार्ड एक मंदिर में बदल गया। जैसे-जैसे स्मृतियाँ बिखरने लगीं — श्रीमती सरोज को अपने गाँव की पूजा की याद आई, श्रीमती सुरेश ने अपने युवावस्था की बातें साझा कीं, और श्रीमती तैमुल ने अपनी बेटी की हँसी को याद किया — हर कहानी जैसे एक धागे की तरह सभी को एक सूत्र में पिरोने लगी।
अंत में मरीजों ने कागज़ पर सरल चित्र बनाए — कमल, तारे, झूले — और इन आकृतियों में उन्होंने अपनी आत्मा का अंश उकेरा, जो उनके चिकित्सीय सफर का रचनात्मक विस्तार बन गया। नर्सों की सहायता से लिए गए एक अनौपचारिक सर्वेक्षण में, 83% मरीजों ने कहा कि वे “अधिक प्रसन्न” या “शांत” महसूस कर रहे थे, जो ‘नृत्यामृत’ के 150+ प्रतिभागियों में 90% मनोभाव सुधार की पुष्टि करता है।
शाम्भवी की गुरुओं के सान्निध्य में सीखी कुचिपुड़ी की निपुणता इन आरोग्य-सत्रों की आत्मा है। उनके नृत्य ने समुदाय में बच्चों के भीतर भी आनंद का द्वार खोला, जहाँ कभी संकोच था, अब आत्मविश्वास है — उनके बनाए चित्र उनके भावनात्मक विकास के साक्ष्य हैं। बिहार की सांस्कृतिक समृद्धि से प्रेरणा लेते हुए, शांभवी ने अस्पताल जैसे स्थान को एक जीवंत तीर्थ में बदल दिया — जहाँ रोगियों की स्थिरता एक गहरे, पवित्र संवाद बन गई।