डॉ सोनू प्रताप सिंह
राजनितिक विश्लेषक व स्वतंत्र शोधार्थी
भारत को अपनी जन्म-भूमि, कर्मभूमि, मातृ-भूमि, पितृ-भूमि एवं पुण्य भूमि मानने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए इसकी आंतरिक व बाह्य सुरक्षा सर्वोपरी है। इस दृष्टि से भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा में आरएसएस की भूमिका का विश्लेषण केवल उसके कार्यों की सूची तक सीमित नहीं है। आरएसएस भारत की सुरक्षा, गौरव एवं सम्मान की रक्षा मामलों में कैसे सहभागी है, इसे जानने लिए उसकी पूरी वैचारिकी और संगठनात्मक पृष्ठभूमि और संरचना को समझना होगा। संघ की दृष्टि में राष्ट्रीय सुरक्षा और सामर्थ्य के केंद्र मंे प्रत्येक भारतवंषी हैं। इस प्रकार आरएसएस के लिए, आंतरिक सुरक्षा केवल पुलिस, सेना और खुफिया एजेंसियों का विषय नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और सामाजिक लक्ष्य है, जिसे एक विशेष प्रकार के समाज और व्यक्ति का निर्माण करके प्राप्त किया जा सकता है।
आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में, आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखना राज्य का प्राथमिक उत्तरदायित्व माना जाता है। आंतरिक सुरक्षा का तात्पर्य केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें राष्ट्र की सीमाओं के भीतर शांति, सांप्रदायिक सद्भाव और संप्रभुता की रक्षा करना भी शामिल है। पष्चिमी देषों से उधार में लिए गए राष्ट्र राज्य के इस परिकल्पना के भारत में भयावह परिणाम हुए हैं। अंग्रेजों से राजनीतिक आजादी प्राप्त करने के लिए भारत को विभाजित किया गया। इसकी पीड़ा से भारत के लोग आज भी बेचैन है। औपनिवेषिक शक्तियों द्वारा आरोपित इस सिद्धांत को आजादी के बाद भी काले अंग्रेजों ने भारतीयों पर आरोपित कर दिया। भारत जैसा विशाल देष जहां प्राचीनकाल से एकात्मता के विविधता पूर्ण भाव बोध से युक्त लोकतंत्रिक मूल्यों को जीने की परंपरा रही है, वहां तंत्र की औपनिवेषिक मानसिकता के कारण सामाजिक-आर्थिक असमानताओं, क्षेत्रीय संघर्षों, आतंकवाद और सांप्रदायिक तनावों जैसी समस्याएं गहराती चली गयीं। इससे आंतरिक सुरक्षा की समस्या जटिल होती चली गयी। इस जटिल वातावरण में आरएसएस महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहा हैं।
कांग्रेस के 1922 के खिलाफत आंदोलन में शामिल होने के बाद भारत की राजनीति में तुष्टिकरण का जहर प्रवेष कर चुका था। ऐसी परिस्थिति में 27 सितंबर, 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर में डा. केषव बलराम हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की थी। अपनी स्थापना के बाद से आरएसएस भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ते हुए दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के रूप में विकसित हुआ है। इसकी व्यापक जमीनी उपस्थिति, अनुशासित कैडरों का बड़ा नेटवर्क और गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता ने इसे एक अद्वितीय गैर-राजनीतिक संगठन बनाया। इसकी गतिविधियां सीधे तौर पर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने को प्रभावित किया। स्थापना के बाद से बिना रूके संघ का कार्य आगे बढ़ता गया और अब यह संगठन विष्व का सबसे बड़ा गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठन है जो अपने देष भारत की आंतरिक सुरक्षा व बाह्य सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इस दिषा में इसके प्रयास का उदाहरण नहीं दिखता।
20वीं सदी का शुरुआती दषक भारत के लिए उथल-पुथल से भरा था। ब्रिटिश शासन के अत्याचार, मैकाले की षिक्षा के कारण सामाजिक बिखराव और राष्ट्रीय गौरव में कमी के माहौल में, डा. हेडगेवार ने महसूस किया कि भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए हिंदू समाज को एकजुट और अनुशासित करना आवश्यक है । डा. हेडगेवार स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी थे और अनुशीलन समिति जैसे क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े थे, और असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे । हालांकि, महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों से उनका वैचारिक मतभेद था। उनका मानना था कि कांग्रेस का आंदोलन केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर केंद्रित था, न कि राष्ट्र के चरित्र निर्माण पर। विशेष रूप से, कांग्रेस का ‘अहिंसा’ का सिद्धांत और ‘खिलाफत आंदोलन’ के प्रति समर्थन, हेडगेवार की दृष्टि में, हिंदू समाज और भारत के हितों को कमजोर कर रहा था । डा. हेडगेवार का कांग्रेस से यह मोहभंग हो गया और उन्होंने कुछ युवाओं को जोड़कर इस संगठन की स्थापना की।
एक सुरक्षा प्रतिमान
संघ की वैचारिक नींव का विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा केवल एक राजनीतिक या सांस्कृतिक लक्ष्य नहीं है, बल्कि इसे भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के अंतिम गारंटर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, एक राष्ट्र जो आंतरिक रूप से एक ही सांस्कृतिक पहचान (हिंदुत्व) से एकीकृत है, वह बाहरी खतरों और आंतरिक विखंडन के विरुद्ध स्वाभाविक रूप से अधिक सुरक्षित और लचीला होता है।
संघ का आधिकारिक ध्येय ‘हिंदू समाज को संगठित करना,’ ‘हिंदू धर्म की रक्षा करना,’ और राष्ट्र को ’परम वैभव के शिखर’ तक ले जाना है । यह भव्य रणनीतिक उद्देश्य स्थापित करता है। इसकी विचारधारा को सभी भारतीय लोगों के लिए ‘एकल, एकीकृत हिंदू पहचान’ को बढ़ावा देने के रूप में वर्णित किया गया है और यह हिंदुत्व की व्यापक धारणा पर आधारित है। इसमें मत-सम्प्रदाय, मजहब और पूजा पद्धति का कोई स्थान नहीं बल्कि मातृभूमि के संतान के रूप में सबकी पहचान का आग्रह केंद्रीय भाव है। यह इसके एकता प्रतिमान की विशिष्ट प्रकृति को उजागर करता है।
संगठन की स्थापना 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा सांप्रदायिक तनाव के दौर में हिंदू राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हितों की रक्षा के लिए एक ‘अनुशासित कैडर’ बनाने के लिए की गई थी । हेडगेवार का मानना था कि हिंदुओं को एक एकजुट समुदाय बनाने के लिए संगठित होने की आवश्यकता है । यह ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करता है। संघ की कल्पना संगठन के माध्यम से ऐसी आंतरिक सुरक्षा के खतरे के स्थायी समाधान देना है। इसके पीछे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं।
संघ स्वयं को एक सांस्कृतिक, न कि राजनीतिक, संगठन के रूप में प्रस्तुत करता है। यह वैचारिक पृष्ठभूमि आंतरिक सुरक्षा की पारंपरिक परिभाषा को बदल देता है। यह पुलिसिंग और खुफिया जानकारी के पारंपरिक राज्य-केंद्रित मॉडल से आगे बढ़कर एक समाज-केंद्रित मॉडल की ओर जाता है, जहां सुरक्षा सांस्कृतिक और वैचारिक एकता के माध्यम से प्राप्त की जाती है। इस दृष्टिकोण में, प्राथमिक आंतरिक खतरा केवल आतंकवाद या अपराध नहीं है, बल्कि सामाजिक विखंडन, धार्मिक रूपांतरण और एक विलक्षण राष्ट्रीय-सांस्कृतिक पहचान का कमजोर होना है। संघ का घोषित लक्ष्य ‘हिंदू समाज को संगठित करना’ है। संघ के आलोचकांे का आरोप है कि इसकी स्थापना सांप्रदायिक तनाव और हिंदू समाज में एक कथित कमजोरी की प्रतिक्रिया थी।
आरएसएस के वर्तमान सरसंघचालक डा. मोहन भागवत कहते हैं कि सुरक्षा समाज से शुरू होती है, केवल राज्य से नहीं, और वे एक ‘खंडित समाज’ के खिलाफ चेतावनी देते हैं। इसलिए, हिंदुत्व की भावभूमि पर समाज को ‘संगठित’ और ‘एकीकृत’ करने का कार्य, संघ के लिए, राष्ट्र को भीतर से सुरक्षित करने का एक प्राथमिक कार्य है। आंतरिक असुरक्षा का समाधान केवल बेहतर कानून नहीं, बल्कि एक अधिक सजातीय समाज है। इसके गहरे निहितार्थ हैं, क्योंकि यह तार्किक रूप से विविधता और अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर होने वाली निकृष्ट राजनीति के विकृत चेहरे को भी उजागर करता हैै।
‘स्वयंसेवक‘ रक्षा की पहली इकाई
संघ की कार्यप्रणाली का मूल ‘शाखा’ है, जो एक विशेष प्रकार के नागरिक स्वयंसेवक के निर्माण की मौलिक इकाई है। यह स्वयंसेवक उस अनुशासन, चरित्र और वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रतीक है जिसे राष्ट्रीय रक्षा के लिए आवश्यक माना जाता है। षारीरिक, मानसिक, बौद्धिक रूप से स्वस्थ एवं सक्षम मनुष्य जो अपने देष, समाज, संस्कृति के प्रति समर्पित हो वही स्वयंसेवक की श्रेणी में आता है। संघ परिवार का विशाल पारिस्थितिकी तंत्र यह दर्शाता है कि संघ अपनी वैचारिक पहुंच को भारतीय जीवन के हर पहलू तक कैसे बढ़ाता है। यह नेटवर्क गैर-सरकारी संगठनों का एक यादृच्छिक संग्रह नहीं है, बल्कि एक पूर्ण समझदारी के साथ संरचित ‘संगठनों का परिवार’ है जिसे राष्ट्रीय विमर्श को आकार देने और विशिष्ट जनसांख्यिकी को संगठित करने के लिए डिजाइन किया गया है, जिससे कई मोर्चों से आंतरिक सुरक्षा को सुनिष्चित किया जा सके।
संघ परिवार संघ द्वारा निर्देशित 40 से अधिक संबद्ध संगठनों का एक नेटवर्क है, जो राजनीति (भाजपा), धर्म (विहिप), श्रम (बीएमएस), शिक्षा (विद्या भारती), और छात्रों (एबीवीपी) जैसे विविध क्षेत्रों में काम करता है । प्रमुख कर्मी, जो अक्सर पूर्णकालिक संघ कार्यकर्ता होते है, उन्हें प्रचारक कहा जाता हैं। ये सहयोगियों का नेतृत्व करने के लिए प्रतिनियुक्त किए जाते हैं, जिससे वैचारिक सुसंगतता और केंद्रीत दिशा सुनिश्चित होती है। यह संरचना संघ को जीवन के विविध क्षेत्रों में विस्तार के लिए अनुकूल वातावरण बनाता है जिससे उसके व्यापक उद्येष्य की प्राप्ति में सहयोग मिलता है। वैसे तो आरएसएस का काम केवल शाखा लगाना होता है लेकिन उस शाखा में प्रषिक्षित स्वयंसेवक अपनी रूचि और क्षमता के अनुसार विशिष्ट गतिविधियों में संलग्न होकर समाज और राष्ट्र नवनिर्माण में अपना योगदान करते हैं।
स्कूल चलाने का कार्य विद्या भारती और एकल विद्यालय संगठन करता है। उसी प्रकार विद्यार्थियों में ज्ञान, शील, एकता और अनुषासन के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के माध्यम से हजारों स्वयंसेवक कार्य कर रहे हैं। सामाजिक सेवाएं प्रदान करने की इच्छा रखने वाले सेवा भारती से जुड़कर कार्य कर रहे है। इसी प्रकार चुनावी राजनीति करने वाले भाजपा के साथ जुड़े हुए हैं। संघ की स्थापना के बाद जैसे-जैसे कार्य की आवष्यकता महसूस हुई वैसे-वैसे विविध संगठन बनते चले गए। सबसे पहले वर्ष 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना हुई। इसके बाद 1952 में भारतीय राष्ट्रीय जनसंघ और 1980 में भारतीय जनता पार्टी बनी। धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन विश्व हिंदू परिषद की 1964 में स्थापना हुई। 1984 में बजरंग दल बना। सामाजिक सेवा व लोककल्याण के लिए 1979 में सेवा भारती की स्थापना हुई। आवष्यकतानुसार कार्य विस्तार के लिए आरएसएस ने 40 से अधिक विषाल संगठनों का निर्माण किया।
युद्ध संकट में योगदान
जवाहर लाल नेहरू के समय में ही 1962 चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वह भारत के साथ पड़ोसी देष का अकल्पनीय धोखा था। ऐसे संकट के काल में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने सशस्त्र बलों का सहयोग किया। संघ के हजारों स्वयंसेवक सीमा पर स्थित गांवों में सेना के साथ तैनात हो गए। सैनिकों के साथ ही संघ के स्वयंसेवकों ने अपने देष के नागरिकों की भी सहायता की थी। सेना का मनोबल बढ़ाया। उनके योगदान को ‘अथाह’ माना गया, जिसके कारण प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए एक विशेष निमंत्रण दिया ।
इसके बाद 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के अनुरोध पर, संघ के स्वयंसेवकों ने देश में यातायात, कानून और व्यवस्था के प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाली थी। दिल्ली में यातायात नियंत्रण की जिम्मेदारी संघ के स्वयंसेवकों ने ली जिससे पुलिस को अधिक रणनीतिक कर्तव्यों के लिए मुक्त किया जा सका था। आरएसएस के स्वयंसेवकों एवं उनके परिवार के लोगों ने घायल सैनिकों के लिए रक्त दान की पहल शुरू की थी, इसके बाद आम लोग उससे जुड़ने लगे। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने संघ के उस समय के सरसंघचरलक एम.एस. गोलवलकर को एक सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित किया, जो एक राष्ट्रीय संकट के दौरान मुख्यधारा की स्वीकृति का संकेत था।
बाढ़, भूकम्प, वायुयान या ट्रेन दुर्घटना जैसी आपदा के समय संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले सहायता पहुंचने एवं सेवा के लिए पहुंचने वाले होते हैं। आपद काल में आरएसएस के राहत सामग्री पहुंचाने, बचाव और पुनर्वास कार्य की सराहना उसके विरोधी भी करते रहे हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार में भीषण बाढ़ के समय हैं आरएसएस द्वारा किए गए कार्य अनुकरणीय उदाहरण बन गए है। बिहार में कोसी की भयंकर बाढ़ के समय पूरे भारत से हजारों स्वयंसेवक सेवा एवं बचाव कार्य के लिए आ गए थे। वहां के लोग उसे आज भी याद करते हैं। उनका कहना है कि आरएसएस के प्रषिक्षित स्वयंसेवक यदि नहीं होते तो मरने वालों की संख्या बहुत बड़ी होती। गुजरात के भूकंप और अन्य आपदाओं में बड़े पैमाने पर, समन्वित राहत प्रयासों के विशिष्ट उदाहरण दर्ज किए गए हैं । उनका काम अत्यधिक संगठित है, जिसमें राहत शिविर, सामुदायिक रसोई, चिकित्सा सेवाएं स्थापित करना, स्थानीय जरूरतों के आधार पर विशिष्ट सहायता वितरित करना और सरकारी एजेंसियों के साथ समन्वय करना शामिल है। यह कार्य संघ ने उत्तराखंड दैवीय आपदा सहायता समिति और सेवा भारती जैसे समर्पित निकायों के माध्यम से किया था।
संघ का व्यापक और दृश्यमान सेवा कार्य, विशेष रूप से आपदाओं के दौरान, समानांतर शासन के एक रूप के रूप में कार्य करता है। यह आधिकारिक राज्य मशीनरी द्वारा छोड़े गए अंतरालों को भरता है, जिससे जमीनी स्तर पर अपार सद्भावना और सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है। यह मानवीय कार्य केवल परोपकारी नहीं है। यह वैचारिक पहुंच और संगठनात्मक विस्तार के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है, जो लाभार्थी आबादी के बीच निर्भरता और वफादारी पैदा करता है। प्राकृतिक आपदाएं अक्सर राज्य की क्षमता की सीमाओं से परे होती हैं। संघ का अनुशासित नेटवर्क ऐसी स्थिति में तेजी से और अधिक कुशलता से संगठित तरीके से कार्य करता है और अपेक्षित परिणाम भी देता रहा है। यह दृश्यमान, प्रभावी सेवा प्रभावित आबादी के बीच कृतज्ञता और विश्वास उत्पन्न करती है। यह समाज विज्ञानियों एवं प्रबंधन विषेषज्ञों के लिए शोध और अध्ययन का विषय भी है। राजनीति विज्ञानी प्रो. मालिनी भट्टाचार्जी ने उल्लेख किया है, इस तरह की मानवीय पहल धार्मिक आख्यानों को आकार दे सकती है और गैर-राजकीय संगठनों के लिए एक ऐसा प्रतिमान बन सकती है जहां नागरिक अधिकार के साथ ही मानवीय सद्गुण का समन्वय एवं संरक्षण हो। इसलिए, संघ का प्रत्येक राहत अभियान नए स्वयंसेवकांे को जोड़ने और उन्हें प्रषिक्षित करने व वैचारिक विस्तार का एक अवसर बन जाता है। सेवा के माध्यम से अर्जित सामाजिक पूंजी यदि राजनीतिक परिवर्तन का कारण बन जाता है तो इसे गलत नही माना जाना चाहिए। इतना तो स्पष्ट है कि इससे संगठन का प्रभाव विस्तार होता है। राज्य की सत्ता से अलग एक लोक सत्ता का अहसास होता है। राष्ट्र के सच्चे सेवक के रूप में इसकी कथा को बल मिलता है।
लोकतंत्र के संकट काल में
इंदिरा गांधी की सरकार ने वर्ष 1975 मंे पूरे भारत में आपात काल लागू कर दिया था। इसके साथ ही भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए। भारत के संविधान और लोकतंत्र पर अस्तित्व का संकट था। भारत के साथ विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। सभी समाचारपत्रों पर सेंसर लगा दिया था। मतलब भारत में लोकतंत्र की जगह तानाषाही का शासन हो गया था। लोकनायाक जयप्रकाष नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी सहित सभी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था। राष्ट्र के समक्ष इस भीषण संकट से जूझने के लिए आरएसएस के स्वयंसेवक सामने आ गए। इसके अनुषासित कार्यकर्ताओं के बल पर आपातकाल विरोधी आंदोलन पूरे भारत में फैल गया। अंततः सरकार को घुंटने टेकने पड़े थे। सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसके कार्यालयों को सील कर दिया गया था। इसके बावजूद 1975-77 के आपातकाल के दौरान संघ के कार्यकर्ता भूमिगत होकर काम करते रहे। आंदोलन में उनकी भूमिका शरीर में रक्त के समान थी। इसके कैडर ने इंदिरा गांधी के सत्तावादी शासन के खिलाफ भूमिगत प्रतिरोध की ऐसी रणनीति बनायी कि इंदिरा गांधी की राजनीतिक जमीन खीसक गयी।
संघ के पचास हजार से अधिक कार्यकर्ता जेल में डाल दिए गए थे। इसके बावजूद हजारों कार्यकर्ता और तीव्र वेग से भूमिगत होकर प्रतिरोध को व्यापक और प्रभावषाली बना रहे थे। इस प्रकार आरएसएस के कार्यकार्ता अपने कार्य से आंतरिक सुरक्षा के रूढ़ अर्थ से ज्यादा इसके विस्तारित, प्रासंगिक और व्ययावहारिक अर्थ गढ़ते रहे हैं। अकादमिक जगत में आंतरिक सुरक्षा में संघ की भूमिका को लेकर प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर अब तक मौलिक शोध और अध्ययन की कमी रही है। कुछ हुए भी है तो वे आख्यान की दृष्टि से विरोधाभासी है। ऐसा इसलिए है कि आरएसएस का कार्य कोरा सैद्धांतिक होने की जगह व्यावहारिक और अनुभव सिद्ध रहा है। संघ की छवि एक रूढ़ीवादी संगठन की बना दी गयी है। लेकिन, संघ के वरिष्ठ अधिकारी अक्सर कहते हैं कि संघ में विचार छोड़कर सब कुछ बदला जा सकता है। संघ के गणवेष, प्रषिक्षण पाठ्यक्रम, सांगठनिक संरचना आदि में आवष्यकतानुसार कई बार बदलाव हुए है।
आरएसएस की सौ वर्षों की यात्रा के दौरान ऐसे बहुत से दस्तावेज निर्मित हुए जिससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए भारत की आंतरिक सुरक्षा से सम्बंधित विमर्ष की क्षीतिज अत्यंत विस्तृत है। इसका प्रारंभ भारत के स्व के बोध से शुरू होता है और मित्र बोध और शत्रु बोध के साथ एक व्यावहारिक दृष्टि और एक व्यापक कार्य योजना का रूप धारण करता है। इस कार्य योजना के केंद्र में राज्य या राज्य का संसाधन नहीं बल्कि भारत भूमि से माता-पुत्र के संबंध पर आधारित भाव से पूर्ण मानव संगठन है। इसमें राज्य की भूमिका सहायक की होती है। ऐसे परिदृश्य में आरएसएस एक अद्वितीय और जटिल भूमिका निभाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुशासित कैडर और व्यापक नेटवर्क इसे आपदाओं और राष्ट्रीय संकटों के समय एक प्रभावी सहायक बल बनाता है। वहीं शांति काल में यह समाज व राष्ट्र देव के लिए रचनात्मक भूमिका का निर्वहण करता है। यह अक्सर राज्य की क्षमताओं में महत्वपूर्ण अंतराल को भरता है, राहत प्रदान करता है, और सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में मदद करता है। 1962 और 1965 के युद्धों के दौरान इसका सहयोग और प्राकृतिक आपदाओं में इसकी भूमिका इसके सकारात्मक योगदान के प्रमाण हैं। इसके सामाजिक सेवा प्रकल्प, जैसे सेवा भारती, दूरदराज और वंचित क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करते हैं, जो हाशिए पर पड़े समुदायों में अलगाव की भावना को कम कर सकते हैं और इस प्रकार स्थिरता में योगदान दे सकते हैं।
गैरभारतीय दृष्टि वाले बुद्धिजीवियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक स्थायी और समझ में न आने वाली पहेली जैसा है। यह एक ऐसी शक्ति है जो संकट के समय राष्ट्र को एक साथ ला सकती है, लेकिन शांति के समय में समाज को शक्ति के रूप में उभार सकती है। यह राज्य के लिए एक सहयोगी और एक प्रतियोगी दोनों है। एक ऐसा संगठन जो राष्ट्र निर्माण में योगदान देता है ।