राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण हो गए है। इस प्रकार से 2025 से संघ का शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है। यह अवसर किसी भी संगठन के लिए गौरव और उत्सव का होता है लेकिन आरएसएस के जिम्मेदारी अधिकारी कहते हैं कि हमारे कार्य के सौ वर्ष पूर्ण हो गए हैं लेकिन हमारे संकल्प अभी पूर्ण नहीं हुए हैं। अतः हमें और परिश्रम करना होगा ताकि शीघ्र हमारे सपने साकार हो जाएं। संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर सरसंघचालक डाण् मोहन भागवत का सम्बोधन इसकी षताब्दी दृष्टिए योजना और संकल्प का लघु प्रारूप माना जा सकता है।
सरसंघचालक डा मोहन भागवत ने नागपुर में आयोजित स्थापना दिवस के मुख्य समारोह में सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज के पावन बलिदान के तीन सौ पचास वाँ वर्ष का स्मरण किया। उन्हांेने श्रीगुरु तेगबहादुरजी को हिन्द की चादर बताते हुए कहा कि उनके उस बलिदान ने विदेशी विधर्मी अत्याचार से हिन्दू समाज की रक्षा की। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी तिथि के अनुसार इस विजया दषमी के अवसर पर पड़ने वाले महात्मा गांधी एवं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती का भी उल्लेख किया। इस प्रकार डाण् मोहन भागवत के इस अतिमहत्वपूर्ण सम्बोधन में संघ अपने विचारों पर दृढ रहते हुए सर्वसमावेषी दिखा। इसके साथ ही उनके इस सम्बोधन में आत्म सम्मान और आत्म गौरव से पूर्ण भारत की भी एक छवि दिखी। संघ के विरोधी भी दबे स्वर में यह कहते हुए दिखे कि यह नया भारत है जो विष्व की महाषक्तियों के समक्ष सीना तान कर खड़ा होने की मनःस्थिति में है। डा मोहन भागवत जी ने कहा कि आज की देश व दुनिया की परिस्थिति भी हम भारतवासियों से इसी प्रकार से व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारिर्त्य से सुसंपन्न जीवन की मांग कर रही है। गत वर्ष भर के कालावधि में हम सब ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जो राह तय की है उसके पुनरावलोकन से यह बात ध्यान में आती है।
वर्तमान परिदृश्य का आंकलन
डा मोहन भागवत ने कहा कि यह बीती कालावधि एक तरफ विश्वास तथा आशा को अधिक बलवान बनाने वाली है तथा दूसरी ओर हमारे सम्मुख उपस्थित पुरानी व नयी चुनौतियों को अधिक स्पष्ट रूप में उजागर करते हुए हमारे लिए विहित कर्तव्य पथ को भी निर्देशित करने वाली है। गत वर्ष प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ ने श्रद्धालुओं की सर्व भारतीय संख्या के साथ ही उत्तम व्यवस्थापन के भी सारे कीर्तिमान तोड़कर एक जागतिक विक्रम प्रस्थापित किया। संपूर्ण भारत में श्रद्धा व एकता की प्रचण्ड लहर जगायी।
22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में सीमापार से आये आतंकवादियों के हमले में 26 भारतीय यात्री नागरिकों की उनका हिन्दू धर्म पूछ कर हत्या कर दी गई । संपूर्ण भारतवर्ष में नागरिकों में दुख और क्रोध की ज्वाला भड़की । भारत सरकार ने योजना बनाकर मई मास में इसका पुरजोर उत्तर दिया । इस सब कालावधि में देश के नेतृत्व की दृढ़ता तथा हमारी सेना के पराक्रम तथा युद्ध कौशल के साथ.साथ समाज की दृढ़ता व एकता का सुखद दृश्य हमने आया। परन्तु अपनी तरफ से सबसे मित्रता की नीति व भाव रखते हुए भी हमें अपने सुरक्षा के विषय में अधिकाधिक सजग रहना व समर्थ बनते रहना पड़ेगा यह बात भी हमें समझ में आ गई।
विश्व में बाकी सब देशों के इस प्रसंग के संबंध में जो नीतिगत क्रियाकलाप बने उससे विश्व में हमारे मित्र कौन.कौन और कहां तक हैं इसकी परीक्षा भी हो गई । देश के अन्दर उग्रवादी नक्सली आन्दोलन पर शासन तथा प्रशासन की दृढ़ कारवाई के कारण तथा लोगों के सामने उनके विचार का खोखलापन व क्रूरता अनुभव से उजागर होने के कारणए बड़ी मात्रा में नियंत्रण आया है । उन क्षेत्रों में नक्सलियों के पनपने के मूल में वहां चल रहा शोषण व अन्यायए विकास का अभाव तथा शासन.प्रशासन में इन सब बातों के प्रति संवेदना का अभाव ये कारण थे । अब यह बाधा दूर हुई है तो उन क्षेत्रों में न्यायए विकासए सद्भावनाए संवेदना तथा सामरस्य स्थापन करने के लिए कोई व्यापक योजना शासन.प्रशासन के द्वारा बने इसकी आवश्यकता रहेगी। आर्थिक क्षेत्र में भी प्रचलित परिमाणों के आधार पर हमारी अर्थ स्थिति प्रगति कर रही हैए ऐसा कहा जा सकता है। अपने देश को विश्व में सिरमौर देश बनाने का सर्व सामान्य जनों में बना उत्साह हमारे उद्योग जगत में और विशेष कर नई पीढ़ी में दिखता है। परंतुए इस प्रचलित अर्थ प्रणाली के प्रयोग से अमीरी व गरीबी का अंतर बढ़नाए आर्थिक सामर्थ्य का केंद्रीकृत होनाए शोषकों के लिए अधिक सुरक्षित शोषण का नया तंत्र दृढ़मूल होनाए पर्यावरण की हानिए मनुष्यों के आपसी व्यवहार में संबंधों की जगह व्यापारिक दृष्टि व अमानवीयता बढ़नाए ऐसे दोष भी विश्व में सर्वत्र उजागर हुए हैं । इन दोषों की बाधा हमें न हों तथा अभी अमेरिका ने अपने स्वयं के हित को आधार बनाकर जो आयात शुल्क नीति चलायी उसके चलतेए हमको भी कुछ बातों का पुनर्विचार करना है।
विश्व परस्पर निर्भरता पर जीता है । परंतु स्वयं आत्मनिर्भर होकरए विश्व जीवन की एकता को ध्यान में रखकर हम इस परस्पर निर्भरता को अपनी मजबूरी न बनने देते हुए अपने स्वेच्छा से जिएंए ऐसा हमको बनना पड़ेगा । स्वदेशी तथा स्वावलंबन का कोई पर्याय नहीं है । जड़वादी पृथगात्म दृष्टि पर आधारित विकास की संकल्पना को लेकर जो विकास की जड़वादी व उपभोगवादी नीति विश्व भर में प्रचलित है उसके दुष्परिणाम सब ओर उत्तरोत्तर उजागर हो रहे हैं। भारत में भी वर्तमान में उसी नीति के चलते वर्षा का अनियमित व अप्रत्याशित वर्षामानए भूस्खलनए हिमनदियों का सूखना आदि परिणाम गत तीन.चार वर्षो में अधिक तीव्र हो रहे हैं। दक्षिण पश्चिम एशिया का सारा जलस्रोत हिमालय से आता है। उस हिमालय में इन दुर्घटनाओं का होना भारतवर्ष और दक्षिण एशिया के अन्य देशों के लिए खतरे की घंटी माननी चाहिए ।
गत वर्षों में हमारे पड़ोसी देशों में बहुत उथल.पुथल मची है। श्रीलंका मेंए बांग्लादेश में और हाल ही में नेपाल में जिस प्रकार जन.आक्रोश का हिंसक उद्रेक होकर सत्ता का परिवर्तन हुआ वह हमारे लिए चिंताजनक है। अपने देश में तथा दुनिया में भी भारतवर्ष में इस प्रकार के उपद्रवों को चाहनेवाली शक्तियां सक्रिय हैं। शासन प्रशासन का समाज से टूटा हुआ संबंधए चुस्त व लोकाभिमुख प्रशासकीय क्रिया.कलापों का अभावए यह असंतोष के स्वाभाविक व तात्कालिक कारण होते हैं। परन्तु हिंसक उद्रेक में वांच्छित परिवर्तन लाने की शक्ति नहीं होती । प्रजातांत्रिक मार्गों से ही समाज ऐसे आमूलाग्र परिवर्तन लाया जा सकता है। अन्यथा ऐसे हिंसक प्रसंगों में विश्व की वर्चस्ववादी ताकतें अपना खेल खेलने के अवसर ढूंढेए यह संभावना बनती है। यह हमारे पड़ोसी देश सांस्कृतिक दृष्टि से तथा जनता के नित्य संबंधों की दृष्टि से भी भारत से जुड़े हैं। एक तरह से हमारा ही परिवार है। वहां पर शांति रहेए स्थिरता रहेए उन्नति होए सुख और सुविधा की व्यवस्था होए यह हमारे लिए हमारे हितरक्षण से भी अधिक हमारी स्वाभाविक आत्मीयताजन्य आवश्यकता है ।
विश्व में सर्वत्र ज्ञान.विज्ञान की प्रगतिए सुख.सुविधा तकनीकी का मनुष्य जीवन में कई प्रकार की व्यवस्थाओं को आरामदायक बनाने वाला स्वरूपए संचार माध्यमों व आंतरराष्ट्रीय व्यापार के कारण दुनिया के राष्ट्रों में बढ़ी हुई निकटता जैसे परिस्थिति का सुखदायक रूप दिखता है । परन्तु विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति की गति व मनुष्यों की इन से तालमेल बनाने की गति इसमें बड़ा अंतर है। इसलिए सामान्य मनुष्यों के जीवन में बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न होती दिखाई दे रही हैं। वैसे ही सर्वत्र चल रहे युद्धों सहित अन्य छोटे बड़े कलहए पर्यावरण के क्षरण के कारण प्रकृति के उग्र प्रकोपए सभी समाजों में तथा परिवारों में आई हुई टूटनए नागरिक जीवन में बढ़ता हुआ अनाचार व अत्याचार ऐसी समस्याएं भी साथ में चलती हुई दिखाई देती हैं। इन सबके उपाय के प्रयास हुए हैं परंतु वे इन समस्याओं की बढ़त को रोकने में अथवा उनका पूर्ण निदान देने में असफल रहे हैं। मानव मात्र में इसके चलते आई हुई अस्वस्थताए कलह और हिंसा को और बढ़ाते हुएए सभी प्रकार के मांगल्यए संस्कृतिए श्रद्धाए परंपरा आदि का संपूर्ण विनाश हीए आगे अपने आप इन समस्याओं को ठीक करेगाए ऐसा विकृत और विपरीत विचार लेकर चलने वाली शक्तियों का संकट भीए सभी देशों में अनुभव में आ रहा है। भारतवर्ष में भी कम.अधिक प्रमाण में इन सब परिस्थितियों को हम अनुभव कर रहे हैं ।
अब विश्व इन समस्याओं के समाधान के लिए भारत की दृष्टि से निकले चिंतन में से उपाय की अपेक्षा कर रहा है ।
हम सब की आशा और आश्वस्ति बढाने वाली बात यह है कि अपने देश में सर्वत्र तथा विशेषकर नई पीढ़ी में देशभक्ति की भावना अपने संस्कृति के प्रति आस्था व विश्वास का प्रमाण निरंतर बढ़ रहा है। संघ के स्वयंसेवकों सहित समाज में चल रही विविध धार्मिकए सामाजिक संस्थाएं तथा व्यक्ति समाज के अभावग्रस्त वर्गों की निःस्वार्थ सेवा करने के लिए अधिकाधिक आगे आ रहे हैए और इन सब बातों के कारण समाज का स्वयं सक्षम होना और स्वयं की पहल से अपने सामने की समस्याओं का समाधान करना व अभावों की पूर्ति करना बढ़ा है। संघ के स्वयंसेवकों का यह अनुभव है कि संघ और समाज के कार्यों में प्रत्यक्ष सहभागी होने की इच्छा समाज में बढ़ रही है। समाज के बुद्धिजीवियों में भी विश्व में प्रचलित विकास तथा लोकप्रबंधन के प्रतिमान के अतिरिक्त अपने देश के जीवन दृष्टिए प्रकृति तथा आवश्यकता के आधार पर अपना स्वतन्त्र और अलग प्रकार का कोई प्रतिमान कैसा हो सकता है इसकी खोज का चिंतन बढ़ा है ।
भारतीय चिन्तन दृष्टि
भारत का तथा विश्व का विचार भारतीय दृष्टि के आधार पर करने वाले हमारे सभी आधुनिक मनीषीए स्वामी विवेकानंद से लेकर तो महात्मा गांधीजीए दीनदयालजी उपाध्यायए राम मनोहर लोहिया जीए ऐसे हमारे समाज का नेतृत्व करने वाले सभी महापुरुषों नेए उपरोक्त सभी समस्याओं का परामर्श करते हुएए एक समान दिशा का दिग्दर्शन किया है। आधुनिक विश्व के पास जो जीवन दृष्टि है वह पूर्णतः गलत नहींए अधूरी है। इसलिए उसके चलते मानव का भौतिक विकास तो कुछ देशों और वर्गों के लिए आगे बढ़ा हुआ दिखता है। सबका नहीं। सबको छोड़िये अकेले भारत को अमेरिका जैसा तथाकथित समृद्ध और प्रगत भौतिक जीवन जीना है तो और पांच पृथ्वियों की आवश्यकता होगी ऐसा कुछ विषेषज्ञ कहते हैं। आज की इस प्रणाली से भौतिक विकास के साथ.साथ मानव का मानसिक व नैतिक विकास नहीं हुआ । इसलिए प्रगति के साथ.साथ ही मानव व सृष्टि के सामने नयी.नयी समस्याएँ प्राण संकट बन खड़ी हो रही हैं ।
हमारी सनातन आध्यात्मिक समग्र व एकात्म दृष्टि में मनुष्य के भौतिक विकास के साथ—साथ मन बुद्धि तथा आध्यात्मिकता का विकासए व्यक्ति के साथ.साथ मानव समूह व सृष्टि का विकासए मनुष्य की आवश्यकताओंए इच्छाओं के अनुरूप आर्थिक स्थिति के साथ.साथ हीए उसके समूह और सृष्टि को लेकर कर्तव्य बुद्धि का तथा सब में अपनेपन के साक्षात्कार को अनुभव करने के स्वभाव का विकास करने की शक्ति है। क्योंकि हमारे पास सबको जोड़ने वाले तत्त्व का साक्षात्कार है। उसके आधार पर सहस्त्रों वर्षों तक इस विश्व में हमने एक सुंदरए समृद्ध और शांतिपूर्णए परस्पर संबंधों को पहचानने वालाए मनुष्य और सृष्टि का सहयोगी जीवन प्रस्थापित किया था। उस हमारी समग्र तथा एकात्म दृष्टि के आधार परए आज के विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुएए आज विश्व जिन समस्याओं का सामना कर रहा हैए उनका शाश्वत निदान देने वाली एक नई रचना की विश्व को आवश्यकता है। अपने उदाहरण से उस रचना का अनुकरणीय प्रतिमान विश्व को देना यह कार्य नियति हम भारतवासियों से चाहती है ।
संघ का चिन्तन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कार्य के शतवर्ष पूर्ण कर चुका है । संघ में विचार व संस्कारों को प्राप्त कर समाज जीवन के विभिन्न आयामों मेंए विविध संगठनों मेंए संस्थाओं मेंए तथा स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक स्वयंसेवक सक्रिय हैं । समाज जीवन में सक्रिय अनेक सज्जनों के साथ भी स्वयंसेवकों का सहयोग व संवाद चलते रहता है । उन सबके संकलित अनुभव के आधार पर संघ के कुछ निरीक्षण व निष्कर्ष बने हैं । संघ का मानना है कि भारत वर्ष के उत्थान की प्रक्रिया गति पकड़ रही है । परन्तु अभी भी हम उसी नीति व व्यवस्था के दायरों में ही सोच रहे हैं जिस का अधूरापन उस नीति के जो परिणाम आज मिल रहे हैं उन से उजागर हो चुका है। यह बात सही है कि उन तरीकों पर विश्व के साथ हम भी इतना आगे पहले ही बढ़ गये हैं कि एकदम परिवर्तन करना संभव नहीं होगा । एक लम्बे वृत्त में धीरे.धीरे ही मुड़ना पड़ेगा । परन्तु हमारे सहित विश्व के सामने खड़ी समस्याओं तथा भविष्य के खतरों से बचने का दूसरा उपाय नहीं है। हमें अपनी समग्र व एकात्म दृष्टि के आधार पर अपना विकास पथ बनाकरए विश्व के सामने एक यशस्वी उदाहरण रखना पड़ेगा। अर्थ व काम के पीछे अंधी होकर भाग रही दुनिया को पूजा व रीति रिवाजों के परेए सबको जोड़ने वालेए सबको साथ में लेकर चलने वालेए सबकी एक साथ उन्नति करने वाले धर्म का मार्ग दिखाना ही होगा ।
संपूर्ण देश का ऐसा आदर्श चित्र विश्व के सामने खड़ा करने का काम केवल देश की व्यवस्थाओं का ही नहीं है। क्योंकि व्यवस्थाओं का अपने में परिवर्तन का सामर्थ्य व इच्छाए दोनों मर्यादित होती है। इन सब की प्रेरणा व इन सब का नियंत्रण समाज की प्रबल इच्छा से ही होता है। इसलिए व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज का प्रबोधन तथा उसके आचरण का परिवर्तन यह व्यवस्था परिवर्तन की पूर्वशर्तें हैं। समाज के आचरण में परिवर्तन भाषणों से या ग्रंथों से नहीं आता। समाज का व्यापक प्रबोधन करना पड़ता है तथा प्रबोधन करने वालों को स्वयं परिवर्तन का उदाहरण बनना पड़ता है। स्थान.स्थान पर ऐसे उदाहरण स्वरूप व्यक्तिए जो समाज के लिए उसके अपने हैंए उनके जीवन में पारदर्शिता हैए निःस्वार्थता है और जो संपूर्ण समाज को अपना मानकर समाज के साथ अपना नित्य व्यवहार करते हैंए समाज को उपलब्ध होने चाहिए। समाज में सबके साथ रहकर अपने उदाहरण से समाज को प्रेरणा देने वाला ऐसा स्थानीय सामाजिक नेतृत्व चाहिए। इसलिए व्यक्ति निर्माण से समाज परिवर्तन और समाज परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन यह देश में और विश्व में परिवर्तन लाने का सही पथ है यह स्वयंसेवकों का अनुभव है।
ऐसे व्यक्तियों के निर्माण की व्यवस्था भिन्न.भिन्न समाजों में सक्रिय रहती है। हमारे समाज में आक्रमण की लंबी अवधि में यह व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं। इसलिए इसकी युगानुकूल व्यवस्था घर मेंए शिक्षा पद्धति में व समाज के क्रियाकलापों में फिर से स्थापित करनी पड़ेगी। यह कार्य करने वाले व्यक्ति तैयार करने पड़ेंगे। मन बुद्धि से इस विचार को मानने के बाद भी उनको आचरण में लाने के लिए मनए वचनए कर्मए की आदत बदलनी पड़ती हैए उसके लिए व्यवस्था चाहिए। संघ की शाखा वह व्यवस्था है। सौ वर्षों से सब प्रकार की परिस्थितियों में आग्रहपूर्वक इस व्यवस्था को संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा सतत चलाया गया है और आगे भी ऐसे ही चलाना है। इसलिए स्वयंसेवकों को नित्य शाखा के कार्यक्रमों को मन लगाकर करते हुए अपनी आदतों में परिवर्तन करने की साधना करनी पड़ती है। व्यक्तिगत सद्गुणों की तथा सामूहिकता की साधना करना तथा समाज के क्रियाकलापों में सहभागीए सहयोगी होते हुए समाज में सद्गुणों का व सामूहिकता का वातावरण निर्माण करने के लिए ही संघ की शाखा है ।
किसी भी देश के उत्थान में सबसे महत्वपूर्ण कारक उस देश के समाज की एकता है । हमारा देश विविधताओं का देश है। अनेक भाषाएं अनेक पंथए भौगोलिक विविधता के कारण रहन.सहनए खान.पान के अनेक प्रकारए जाति.उपजाति आदि विविधताएं पहले से ही हैं । पिछले हजार वर्षों में भारतवर्ष की सीमा के बाहर के देशों से भी यहां पर कुछ विदेशी संप्रदाय आ गए । अब विदेशी तो चले गए लेकिन उन संप्रदायों को स्वीकार कर आज भी अनेक कारणों से उन्हीं पर चलने वाले हमारे ही बंधु भारत में विद्यमान हैं। भारत की परंपरा में इन सब का स्वागत और स्वीकार्य है। इनको हम अलगता की दृष्टि से नहीं देखते। हमारी विविधताओं को हम अपनी अपनी विशिष्टताएं मानते हैं और अपनी.अपनी विशिष्टता पर गौरव करने का स्वभाव भी समझते हैं। परंतुए यह विशिष्टताएं भेद का कारण नहीं बननी चाहिए। अपनी सब विशिष्टताओं के बावजूद हम सब एक बडे समाज के अंग हैं। समाजए देशए संस्कृति तथा राष्ट्र के नाते हम एक हैं। यह हमारी बड़ी पहचान हमारे लिए सर्वोपरि है यह हमको सदैव ध्यान में रखना चाहिए। उसके चलते समाज में सबका आपस का व्यवहार सद्भावनापूर्ण व संयमपूर्ण रहना चाहिए। सब की अपनी.अपनी श्रद्धाएंए महापुरुष तथा पूजा के स्थान होते हैं। मनए वचनए कर्म से आपस में इनकी अवमानना न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। इसलिए प्रबोधन करने की आवश्यकता है। नियम पालनए व्यवस्था पालन करना व सद्भावपूर्वक व्यवहार करना यह इसीलिए अपना स्वभाव बनना चाहिये। छोटी.बड़ी बातों पर या केवल मन में संदेह है इसलिएए कानून हाथ में लेकर रास्तोंपर निकल आनाए गुंडागर्दीए हिंसा करना यह प्रवृत्ति ठीक नहीं। मन में प्रतिक्रिया रखकर अथवा किसी समुदाय विशेष को उकसाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करना ऐसी घटनाओं को योजनापूर्वक कराया जाता है। उनके चंगुल में फसने का परिणामए तात्कालिक और दीर्घकालिकए दोनों दृष्टी से ठीक नहीं है। इन प्रवृत्तियों की रोकथाम आवश्यक है। शासन.प्रशासन अपना काम बिना पक्षपात के तथा बिना किसी दबाव में आयेए नियम के अनुसार करें। परन्तु समाज की सज्जन शक्ति व तरुण पीढ़ी को भी सजग व संगठित होना पडेगाए आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप भी करना पडेगा ।
हमारी इस एकता के आधार को डॉक्टर अंबेडकर साहब ने अन्तर्निहित सांस्कृतिक एकता कहा है। भारतीय संस्कृति प्राचीन समय से चलती आई हुई भारत की विशेषता है। वह सर्व समावेशक है। सभी विविधताओं का सम्मान और स्वीकार करने की सीख देती है क्योंकि वह भारत के आध्यात्मिक सत्य तथा करुणाए शुचिता व तप के सदाचार पर यानी धर्म पर आधारित है। इस देश के पुत्र रूप हिंदू समाज ने इसे परंपरा से अपने आचरण में जतन किया हैए इसलिए उसे हिंदू संस्कृति भी कहते हैं। प्राचीन भारत में ऋषियों ने अपने तपोबल से इस को निःसृत किया। भारत के समृद्ध तथा सुरक्षित परिवेश के कारण उनसे यह कार्य हो पाया । हमारे पूर्वजों के परिश्रमए त्याग व बलिदानों के कारण यह संस्कृति फली.फूली व अक्षुण्ण रहकर आज हम तक पहुंची है। हमारी संस्कृति का आचरणए उसका आदर्श बने हमारे पूर्वजों का मन में गौरव व कृति में विवेकपूर्ण अनुसरण तथा यह सब जिसके कारण संभव हुआ उस पवित्र मातृभूमि की भक्ति यह मिलकर हमारी राष्ट्रीयता हैं। विविधताओं के संपूर्ण स्वीकार व सम्मान के साथ हम सब को एक माल में मिलानेवाली यह हिन्दू राष्ट्रीयता ही हमें सदैव एक रखती आयी है। हमारी नेषन स्टेट जैसी कल्पना नहीं है। राज्य आते हैं और जाते हैंए राष्ट्र निरन्तर विद्यमान है। हम सब की एकता का यह आधार हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए ।
संपूर्ण हिंदू समाज का बल संपन्नए शील संपन्न संगठित स्वरूप इस देश के एकताए एकात्मताए विकास व सुरक्षा की गारंटी है। हिंदू समाज इस देश के लिए उत्तरदायी समाज हैए हिंदू समाज सर्व.समावेशी है। ऊपर के अनेकविध नाम और रूपों को देखकरए अपने को अलग मानकरए मनुष्यों में बटवारा व अलगाव खडा करने वाली ष्हम और वेष् इस मानसिकता से मुक्त है और मुक्त रहेगा। ष्वसुधैव कुटुंबकम्ष् की उदार विचारधारा का पुरस्कर्ता व संरक्षक हिंदू समाज है। इसलिए भारतवर्ष को वैभव संपन्न व संपूर्ण विश्व में अपना अपेक्षित व उचित योगदान देने वाला देश बनानाए यह हिंदू समाज का कर्तव्य बनता है। उसकी संगठित कार्य शक्ति के द्वाराए विश्व को नयी राह दे सकने वाले धर्म का संरक्षण करते हुएए भारत को वैभव संपन्न बनानाए यह संकल्प लेकर संघ सम्पूर्ण हिंदू समाज के संगठन का कार्य कर रहा है । संगठित समाज अपने सब कर्तव्य स्वयं के बलबूते पूरे कर लेता है । उसके लिए अलग से अन्य किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
उपरोक्त समाज का चित्र प्रत्यक्ष साकार होना है तो व्यक्तिओं मेंए समूहों में व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारिर्त्यए दोनों के सुदृढ़ होने की आवश्यकता रहेगी । अपने राष्ट्र स्वरूप की स्पष्ट कल्पना व गौरव संघ की शाखा में प्राप्त होता है । नित्य शाखा में चलने वाले कार्यक्रमों से स्वयंसेवकों में व्यक्तित्वए कर्तृत्वए नेतृत्वए भक्ति व समझदारी का विकास होता है ।
इसलिए शताब्दि वर्ष में व्यक्ति निर्माण का कार्य देश में भौगोलिक दृष्टि से सर्वव्यापी हो तथा सामाजिक आचरण में सहज परिवर्तन लाने वाला पंच परिवर्तन कार्यक्रम स्वयंसेवकों के उदाहरण से समाजव्यापी बने यह संघ का प्रयास रहेगा। सामाजिक समरसताए कुटुंब प्रबोधनए पर्यावरण संरक्षणए स्व बोध तथा स्वदेशी व नियमए कानूनए नागरिक अनुशासन व संविधान का पालन इन पांच विषयों में व्यक्ति व परिवारए कृतिरूप से स्वयं के आचरण में परिवर्तन लाने में सक्रिय हो तथा समाज में उनके उदाहरणों का अनुकरण हो ऐसा यह कार्यक्रम है । इसमें अंतर्भूत कृतियां आचरण के लिए सरल और सहज है। गत दो.तीन वर्षों में समय.समय पर संघ के कार्यक्रमों में इसका विस्तृत विवेचन हुआ है। संघ के स्वयंसेवकों के अतिरिक्त समाज में अनेक अन्य संगठन व व्यक्ति भी इन्ही प्रकार के कार्यक्रम चला रहे है । उन सब के साथ संघ के स्वयंसेवकों का सहयोग व समन्वय साधा जा रहा है।