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बिहारी समाज

प्रेस दिवस पर विशेष : चौथे स्तंभ के सामने चुनौतियां?

Swatva
Last updated: May 3, 2024 1:02 pm
By Swatva 1.6k Views
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12 Min Read
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– राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर

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नवादा : जनतंत्र के संबंध में आम लोगों के साथ बुद्धिजीवियों की समझ और सोच अब्राहम लिंकन की यह परिभाषा कि जनतंत्र जनता के लिए जनता के द्वारा, जनता की सरकार है। जनता खुद सरकार नहीं चलाती है। अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से काम करती है। एक बार चुने जाने के बाद यह निश्चित नहीं है कि सरकार जनता के लिए चलाएंगे या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ साधन के लिए। यही नहीं बाहुबल और धनबल के कारण साधन संपन्न प्रत्याशी अपने मुकाबले खड़े योग्य लेकिन साधनहीन प्रत्याशियों को आसानी से पराजित कर पाते हैं।

प्रायः सभी राजनीतिक दल बहुमत सुनिश्चित करने के लिए वोट बैंकों का सहारा लेते रहे हैं, इस कारण धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, सिद्धांतों एवं मूल्यों को हासिए से भी परे धकेलने में सफल हुए हैं। यह मिथक कई दशकों से है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कारण देश में लोकतंत्र है या लोकतांत्रिक व्यवस्था संचालित है। लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं रहा है। देश में गैर कांग्रेसवाद का ज्वार चढ़ा तो देश और कई प्रदेशों में गैर-कांग्रेसी दलों की सरकारें सत्ता में आईं लेकिन खुदगर्ज मौकापरस्ती, संकीर्ण क्षेत्रीयता, भाई- भतीजावाद भ्रष्टाचार के आचरण में कांग्रेसी सरकारों को मात करते दिखाई दिए हैं।

2014 को संपन्न लोकसभा के चुनाव में थोकभाव से करोड़पतियों को सफलता मिली है। कार्यकर्ता प्रधान राजनीति और कमजोर हुई है। नीति और नैतिकता भ्रांति के मायाजाल में जकड़ा है, वहीं कई वाचाल लोग देश के समन्वयकारी परंपरा को ही चुनौती दे रहे हैं। जनतंत्र का अर्थ निर्भय-निष्पक्ष चुनाव तक सीमित नहीं है। महज सरकार बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती है। जाहिर है कि एक व्यक्ति चाहे वह कितना ही करिश्माई महामानव क्यों न हो भारत जैसे विविधता से भरे विशाल देश में अपनी इच्छानुसार जनतंत्र आरोपित नहीं कर सकता।

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आज तक संपन्न अधिकांश चुनावों में हार-जीत भावात्मक कारणों से भी होता रहा है। इस कारण आर्थिक गैर बराबरी बढ़ी है और भारत- इंडिया के बीच खाई चौड़ी हुई है। इसका ही असर है कि पिछले तीन दशक में गरीबों की उस अनुपात में हालत नहीं सुधरी, जिस अनुपात में करोड़पतियों की हालत सुधरी है। पैसे वाले और मालदार हुए हैं। अब उन्हें अपने धन के अश्लील प्रदर्शन से परहेज भी नहीं रहा।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया में जन सरोकारों का महत्व घटता जा रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि मीडिया मिशन से प्रोफेशन बन गई है। मीडिया व्यवसाय में वैसे पूँजीपति उद्यमी आ रहे हैं जिनका मकसद समाज और सत्ता के रिश्तों के बीच हस्तक्षेप से कहीं ज्यादा आर्थिक लाभ और पक्षपाती राजनीतिक ताकत हासिल करना है। साक्षरता दर बढ़ने से अखबार और टीवी देखने वालों की संख्या बढ़ी है। वहीं चैनलों और अखबारों में स्थानीयता आई है। इससे समाचारों की संख्या बढ़ी है लेकिन उसकी ताकत घटी है। या मानें जन सरोकारों का दायरा जन शिकायतों तक सीमित होता जा रहा है। हिंदी के… मूर्धन्य संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर की वह उक्ति कि आने वाले समय में अखबार रंगीन स्याही में अच्छे कागज पर छपेंगे। उनकी साज-सज्जा बहुत सुन्दर होगी लेकिन उनकी वैसी स्वायत्तता नहीं होगी, जैसे आज हैं।

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आज का मीडिया जनसरोकारों से विमुख होता जा रहा है। मीडिया में जिस सार्वजनिक स्थल की कल्पना की गई है वह लगातार विशिष्ट स्थल बन गए हैं। उस पर कभी फिल्मी कलाकार, कभी क्रिकेट के खिलाड़ी तो सफल उद्योगपतियों तो कभी विशिष्ट राजनेता हावी हो गए हैं। आजादी के समय की पत्रकारिता एक मिशन थी गुलामी से मुक्ति, रूढ़ियों अंधविश्वासों के प्रति सजग करना और समाज परिवार के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार की सीख देना।

कमोवेश सत्तर से अस्सी के दशक तक यह स्थिति कायम रही। बिहार में तो उस काल खंड के पत्र-पत्रिकाओं में शहर तो शहर ठहरा ग्रामवासी रचनाकारों को भी स्थान प्राप्त था। उस काल खंड में जो पत्रकार बने उनमें अधिकांश लोगों के मन पर समाज बदलने और व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का जज्बा था। वैसे लोग आज भी पत्रकारिता के लिए खतरनाक माने जाते हैं। उनकी चेतना कारपोरेट चेतना और हितों के विरुद्ध जाती है। वे आज भी कंपनी के हितों से ज्यादा समाज के बारे में सोचते हैं।

प्रिंट मीडिया पिछले तीन सौ सालों में सच को उजागर करते हुए और तमाम क्रांतिकारी और राष्ट्रीय आंदोलनों को स्थान देते हुए बड़ा हुआ है। वहीं तेजी से विकसित हुआ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या तो आतंकवादी और उग्रवादी हिंसा को देखते हुए या सांप्रदायिक आंदोलनों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हुए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने देश के सामने क्रिकेट, क्राइम, कास्ट सिनेमा, ग्लैमर और फैशन के माध्यम से वास्तविक स्थितियों से भटकाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

30 अप्रैल 1958 को राज्यसभा में बोलते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था अंधे आदमी भी देख रहे है की देश की अखबारी दुनिया में जो कमजोरी है, वह यह है की कम वेतन पाने वाले पत्रकार है उनकी इज्जत नहीं है और जीवन निर्वाह करना उनके लिए कठिन हो रहा है। दूसरी ओर एक दूसरे पक्ष में देखिए। देश से जितने अखबार पहुंचते है अर्थात सर्कुलेट होते है उनमें शायद 50 परसेंट से अधिक 10 व्यक्तियों के हाथों में है। परिणाम इसका ये होता है 10 आदमियों की रुचि सारे देश पे लादे जाते है जो 10 आदमियों को जो समाचार पसंद है वे फैलाए जाते है । ये 10 व्यक्ति वे है जो समाजवादी समाज के मित्र नहीं है जिनको समाजवादी पद्धति पसंद नहीं है। इसलिए इन 10 व्यक्तियों के आधिपत्य के कारण देश के अधिकांश अखबार देश के प्रगति में बाधक हो रहे है।

गद्य साहित्य के महान लेखक उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने 70 साल पूर्व में महाजनी सभ्यता शीर्षक से एक लेख लिखा था । उसमे उन्होंने लिखा था की राजा नवाब जमींदार एवं सामंतो की सभ्यता से कुरूर महाजनों की है। महाजन मनुष्य एवं मानवता को दृष्टि में नहीं रखते उनका दृष्टि सिर्फ लाभ अर्जित करना होता है। दोनो साहित्यकार के विचार के लगभग 70 साल व्यतीत हो गए है। अब पत्रकारिता को मीडिया कहा जाता है और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का महत्व बहुत बढ़ा है। इन चैनलों के मालिक महाजन है और ये महाजन सिर्फ चैंनल और अखबार के मालिक नहीं है ये कई धंधे करते है।

इस कारण व्यक्तिगत लाभ के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को गुलाम बनाए हुए है। यह विचारणीय विषय है। बिहार में जन्म लेने वाले रवीश कुमार अपने निर्भिकता के कारण जाने जाते है गोदी मीडिया नाम से वैसे चैनलों के पत्रकारों को संबोधित किया है जो सत्ता से प्रश्न नहीं पूछते और नफरत के वातावरण में डिबेटों का आयोजन करते है। जिसमें भाषा भाव और सामाजिक सरोकारों को धक्यियाने के लिए वैसे लोगों को आमंत्रित करते है। तरह तरह के नाम देते है के कारण समाज में नफरत और घृणा का वातावरण बनता है। संभवतया इसिको दृष्टि में रख कर विपक्षी दलों ने एक दर्जन से अधिक एंकरों के शो में भाग नहीं लेने का निश्चय किया है।

इससे स्पष्ट होता है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर एवं मुंशी प्रेम चंद का कथन या भविष्यवाणी सत्य हो रही है। मीडिया की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह विकल्पहीनता के सिद्धांत पर काम कर रहा है। कभी नीति के स्तर पर तो कभी नेतृत्व के स्तर पर। यह सब जनसरोकारों से मुंह मोड़ने की स्थिति है। ऐसा प्रदर्शन एक तरफ जनता के भीतर से उठने वाली वैकल्पिक चर्चा को दरकिनार कर देता है तो दूसरी तरफ नए विचारों के विकास की संभावनाओं को नष्ट कर देता है। भारतीय मीडिया में नियतिवादी दर्शन मानने वालों की संख्या है । इसका मतलब यह नहीं कि अपनी नियति से विद्रोह करना नहीं चाहते ? लेकिन नई आर्थिकी ने जिस तरह खास तौर पर महानगरीय जिंदगी को आर्थिक घेरे में ले लिया है वहाँ विरोध और विद्रोह की गुंजाइश लगातार कम होती गई है।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 19 ए प्राप्त स्वतंत्रता पत्रकारों के लिए या मीडिया हाउस चलाने वाले कारपोरेट के लिए है। यह प्रश्न भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल ने प्रथम लोकसभा के सामने और पत्रकार संगठन के सम्मेलन में रखा था कि मीडिया की आजादी मीडिया मैन के लिए भी या मीडिया हाउस वालों के लिए इस प्रश्न का सही उत्तर किसी सरकार ने आज तक नहीं दिया है।

देश में कारपोरेट लोगों के द्वारा जिस संस्कृति का विस्तार हो रहा है। इस संस्कृति को उपभोक्तावादी संस्कृति माना जा रहा है। संस्कृति जीवन जीने की कला या प्रणाली का नाम है। अर्थात् समाज के वे रीति-रिवाज, रहन-सहन, प्रणाली, कार्यव्यवहार के वे सभी तत्व जो एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रकट करते हैं, संस्कृति के तत्व हैं। समाज भी इसी संस्कृति का वह भाग होता है जिसका निर्णायक बाजार, उत्पाद और ब्रांड होता है। जिसको मीडिया के द्वारा लगातार प्रसारित एवं विज्ञापित कर उपभोक्ता के सुप्त मस्तिष्क में आक्रमण कराया जाता है।

भूमण्डलीकरण के इस युग में इन बड़े मॉल्स, रीटेल स्टोरों एवं बाजारों की पूरी संस्कृति हमारी समूची पारंपरिक वितरण प्रणाली के विरोध में खड़ी होती है जो सामान्यतः किसी भी देश के भीतर ही देश के छोटे किसानों, उत्पादकों का सामान सस्ते दाम में खरीदकर अपना लेबल लगाकर बड़े उपभोक्ताओं को ब्रांड के नाम पर इसका शिकार बनाते हैं।

कभी यह काम अंग्रेज करते थे तब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने स्वदेशी अपनाने पर बल दिया था लेकिन आज हमारे पास न तो राष्ट्रीयता का दर्शन है और न ही तो आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण का समाजवादी चिंतन धारा की ललकार है। समता समाजवाद के बिना लोकतांत्रिक व्यवस्था रूपवती भिखारिन के समान है। निराशा के इस दौर में यह मानना होगा कि लोकतांत्रिक समाज देर तक चुप बैठ नहीं सकता। अतीत में उसने साबित किया है कि मूल्यों के सवाल जब भी उठे हैं, उनके लिए समाज उठ खड़ा हुआ है। तब तक हमें इंतजार तो करना ही होगा।

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