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मनोरंजन

प्रथम पुण्यतिथि पर: कोंकणी परिवार में जन्मे, तेलुगू माहौल में पले और जीवन भर बनाईं हिंदी फिल्में

श्याम बाबू को केवल समानांतर सिनेमा का प्रणेता कह देना, उनके सिने शिल्प को निपटाने जैसा होगा। कथन के अलावा कहन पर भी उनकी पकड़ थी। बर्गमैन, तारकवोस्की, शांताराम और रे के मिश्रण में अपना कुछ अलग से जोड़कर उन्होंने सिनेमा शिल्प की रचनात्मकता को नवपरिभाषित किया था। जैसे एक विषय विशेष के आवरण में एक कथानक गढ़ देना (मंथन), फिल्म सांकेतिकी के तत्त्वों को सामने खड़ाकर एक कहानी कह देना (अंकुर), यहां वे तारकोवस्की से बीस दिखाई देते हैं। उसके बाद हाइपरलिंक प्रारूप में किस्सागोई (सूरज का सातवां घोड़ा), फिर सबके लिए 'वेलकम टू सज्जनपुर' तो. . . .

Swatva Desk
Last updated: December 24, 2025 6:57 pm
By Swatva Desk 79 Views
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7 Min Read
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प्रशांत रंजन

महान फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह को उनकी पहली ही फिल्म में निर्देशक ने एक ऐसी टिप्स दी कि वे आज भी उसे सबसे बड़ी सीख मानते हैं। वह सीख कौन सी है, इसकी एक कहानी है। एक टीवी शो में नसीर ने बताया था कि एफटीआइआइ, पुणे से गिरिश कर्नाड ने बताया कि श्याम बेनेगल अपनी दूसरी फिल्म ‘निशांत’ शुरू कर रहे। नसीर मुंबई जाकर बेनेगल से मिले। रंगमंच के कलाकार को सिनेमा के लिए तैयार करना श्याम बाबू को बखूबी आता था। सो उन्होंने नसीर को सलाह दी कि शूटिंग के समय लोगों की भीड़ रहेगी ही, लेकिन कलाकार को केवल एक ही चीज पर ध्यान केंद्रित करना है और वह एक चीज है कैमरे का लेंस।

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श्याम बाबू को केवल समानांतर सिनेमा का प्रणेता कह देना, उनके सिने शिल्प को निपटाने जैसा होगा। कथन के अलावा कहन पर भी उनकी पकड़ थी। बर्गमैन, तारकवोस्की, शांताराम और रे के मिश्रण में अपना कुछ अलग से जोड़कर उन्होंने सिनेमा शिल्प की रचनात्मकता को नवपरिभाषित किया था। जैसे एक विषय विशेष के आवरण में एक कथानक गढ़ देना (मंथन), फिल्म सांकेतिकी के तत्त्वों को सामने खड़ाकर एक कहानी कह देना (अंकुर), यहां वे तारकोवस्की से बीस दिखाई देते हैं। उसके बाद हाइपरलिंक प्रारूप में किस्सागोई (सूरज का सातवां घोड़ा), फिर सबके लिए ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ तो है ही। इसलिए इस पैरा की पहली पंक्ति में लिखा गया है कि उन्हें केवल समानांतर सिनेमा का प्रणेता कह देना उनके सिने शिल्प को निपटाने जैसा होगा। श्याम बाबू समानांतर सिनेमा के उस परिधि से परे जाकर समझे जाने की गहराई रखते हैं।

“दर्शक जो देखना चाहते हैं वैसा हम दिखाते हैं ।” इस सतही व सुविधाजनक नीति से श्याम बाबू कोसों दूर थे। यानी अपनी रचनाधर्मिता को वे साहस के साथ जीते थे। हैदराबाद स्वयं फिल्मों का गढ़ है। लेकिन, वे मुंबई जाकर आरंभिक दिनों में अपने रिश्तेदार गुरु दत्त साहब के सहायक के रूप में काम करना चाहते थे। लेकिन, किन्हीं कारणों से बात नहीं बन पायी। तब मुंबई में ही एक विज्ञापन एजेंसी में कॉपीराइटर के रूप में कार्य करना शुरू किया और करीब 12 वर्ष तक अपनी पहली फीचर फिल्म अंकुर बनाने के लिए प्रतीक्षा की। हालांकि इस दौरान वे विज्ञापन एजेंसी में ऊंचे पद पर जाने के अलावा डॉक्यूमेंट्री आदि भी बनाते रहे। सत्यजीत रे की भांति ही श्याम बाबू भी विज्ञापन एजेंसी के रास्ते सिने-संसार में प्रवेश करते हैं। लेकिन, विशुद्ध लाभ वाले सिद्धांत पर संचालित विज्ञापन जगत से फिल्मों में आने के बाद दोनों ने अपनी शर्तों पर ही फिल्में बनायीं। महान सत्यजीत रे के कर्तृत्वों पर उन्होंने डॉक्यूमेंट्री भी बनायीं और 1955 में रे द्वारा शुरू किए गए सिने सोसाइटी आंदोलन में एक और बिंदु जोड़ते हुए उन्होंने हैदराबाद फिल्म सोसाइटी की स्थापना की थी। यहां यह जोड़ना भी मौजूं है कि वे आजीवन मुंबई में रहकर फिल्में बनाते रहे। लेकिन, हैदराबाद को कभी नहीं भूले। अपनी आरंभिक क्लासिक फिल्मों अंकुर, निशांत, मंडी की शूटिंग हैदराबाद के आसपास के क्षेत्रों में की।

”होनहार बिरवान के होत चिकने पात।” इस कहावत को उन्होंने चरितार्थ कर दिया जब 8 साल की उम्र में गर्मियों की छुट्टियों के दौरान उन्होंने अपने पिता के 16 एमएम मोटराइज्ड कैमरे का उपयोग करके अपनी पहली फिल्म ‘छुट्टियों में मौज मज़ा’ बनाई थी। हैदराबाद के गैरिसन सिनेमाहॉल में वे 10 वर्ष की उम्र से लगातार जाने लगे थे। वे ऐसे नियमित दर्शक हो गए थे कि उस सिनेमाघर के प्रोजेक्शनिस्ट से उनकी मित्रता हो गई थी। वह सिनेमाघर उनके लिए फिल्ममेकिंग का संस्थान जैसा हो गया है। सिने विधा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की एक बानगी देखिए। उनकी बड़ी बहन सुवर्णा एक टीवी शो के साक्षात्कार में बतायी थीं कि बार—बार गैरिसन में सिनेमा देखने को लेकर पिता डांटते, तो श्याम बाबू का तर्क होता कि वे फिल्में केवल देखने नहीं, बल्कि उन फिल्मों का अध्ययन करने भी जाते हैं।

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उनका कोंकणी परिवार मूल रूप से कर्नाटक का रहने वाला था, जहां श्याम बाबू तेलुगू भाषी हैदराबाद में जन्में व पले-बढ़े। फिर अपना करियर मुंबई में शुरू किया व वहीं ताउम्र हिंदी फिल्में बनाते हुए करियर पूर्ण भी किया। यानी भारत जैसे बहुलतावाद समाज में वे व्यवहारिक रूप में गढ़े गए थे। बहुलतावाद वाला उनका व्यक्तित्व उनके सिनेमा में झलकता है। वे अपनी फिल्मों के माध्यम से समकालीन भारत के श्रमिक, ग्रामीण, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण करते हैं। वे भारत भूमि पर 20वीं सदी के मानव जीवन के मर्म के कातिब हैं। उनके निधन के बाद दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में फिल्मों के प्रसिद्ध माइक्रो एनालिस्ट प्रो. जय मंगल देव ने श्याम बाबू की इसी सिनेमाई दक्षता को ‘अर्ज़-ए-अलम ब-तर्ज़-ए-तमाशा’ की संज्ञा दी थी।

1975 में नासा, यूनिसेफ व इसरो की संयुक्त परियोजना ‘साइट’ के लिए भी उन्होंने फिल्मांकन किया। भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के वे दो बार अध्यक्ष रहे। वहां शिक्षण का कार्य तो करते थे ही। पं. नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर आधारित ‘भारत एक खोज’ बनायी। बाद में भारतीय संविधान पर दस एपिसोड में धारावाहिक भी। हाल के वर्षों में सीबीएफसी में सुधार लाने के लिए समिति बनानी थी, तो वे ही ट्रबल शूटर के रूप में मुस्तैद रहे। एक बड़े फिल्मकार का मैग्नम ओपस विवादों में अटका, तो उन्होंने ही उसका मार्ग प्रशस्त किया था। अब विज्ञापन फिल्मों से शुरू उनके करियर पर नजर डालेंगे, तो पाएंगे कि उनका रचनात्मक रेंज अत्यंत ही विस्तृत था।

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बहुत कुछ रचकर बिखेर गए हैं श्याम बाबू, जिसे समेटकर रखना भी हमारे लिए चुनौती होगी। वे हम जैसों के लिए प्रेरणा के अलावा साहस भी हैं। महान सिने शिल्पी को उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर नमन।

(लेखक फिल्मकार हैं और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्य रहे हैं।

TAGGED: cinema, death anniversary, Indian Cinema, Shyam Benegal
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