अपने अधिकार की रक्षा करना सबका नैतिक कर्तव्य है। कभी ऐसे भी अवसर आते हैं जब किसी एक ही पद के लिए कई दावेदार सामने आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में अराजक माहौल की आशंका बढ़ जाती है। लेकिन, पटना मेडिकल कालेज ने इस मामले में भी एक मिशाल प्रस्तुत किया है। संस्थान के हितों के साथ ही अपने प्रतिद्वंद्वी के सम्मान की रक्षा के साथ अपने हक की कागजी लड़ाई लड़ने का मिशाल पीएमसीएच के चिकित्सकों व शिक्षकों ने कायम किया है
पटना मेडिकल कालेज में सभी जानते थे कि शल्य-विभाग के विभागध्यक्ष, प्राचार्य, डीन और तत्कालीन सर्वशक्तिमान पुरुष प्रो० विजय नारायण सिंह का उनके ही शिष्य डॉ. यूएन शाही का मतभेद था। जिसके कारण डॉ. यूएन शाही उनसे भी पंगा लेने से बाज नहीं आते थे। यह युद्ध अधिकतर परोक्ष वाक्युद्ध तक सीमित रहता था। प्रो० वी०एन० सिंह को शाही जी को कुछ कहते किसी ने नहीं सुना और न शाही जी को विजय बाबू के सामने कभी भी मुँह खोलने का साहस हुआ।
प्रो. वीएन सिंह की सेवानिवृत्ति के बाद प्रो. आर.वी.पी. सिन्हा शल्य-विभाग के विभागाध्यक्ष बने। उस समय शल्य-विभाग में प्रो. आरवीपी सिन्हा, प्रो. यूएन शाही और प्रो शैलेन्द्र कुमार सिन्हा वरीयता की कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। विश्वविद्यालय से लेकर उच्च न्यायालय एवं राज्यपाल के पास भी फरियाद गई। परन्तु, तीनों में ‘तू-तू मैं-मैं’ कसी ने कभी नहीं सुनी। जब भी वे मिलते, पूर्ण शिष्टाचार के साथ मधुर वाणी में ही बातें करते थे। आज की परिस्थिति के अनुसार यदि विचार करेे तो लगता है कि वे कितने महान थे कि न्याय के लिए लड़ते रहे, परन्तु भाईचारे और सद्भाव को उनलोगों ने कभी नहीं छोड़ा।
डॉ. यूएन शाही कठोर और स्पष्ट बात कह देते थे। जिसके कारण लोग कभी-कभी उनसे परेशान हो जाते थे लेकिन, उनके संपर्क में जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता था कि वे संकट के समय सबके साथ होते थे। प्रो. आरवीपी सिन्हा के साथ उनके संबंध जगजाहिर थे। श्री सिन्हा के साथ रहने वाले भी कभी-कभी डॉ. शाही के व्यंग्य का निशाना बन जाते थे। मेडिकल एसोसिएशन की बैठकों में भी कभी-कभी यह प्रगट हो जाता था । इसके बावजूद चिकित्सक उनका सम्मान करते थे क्योंकि डॉ.शाही पीएमसीएच के मेधावी शिक्षकों में अग्रणी थे और किसी का अहित नहीं करते थे। वर्ष 1976 में बिहार राज्य स्वास्थ्य-सेवा संवर्ग की वेतन-प्रोन्नति और अन्य सुविधाओं के लिए हड़ताल हुई। उस समय डा. एकेएन सिन्हा इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन एवं बिहार चिकित्सा सेवा-संवर्ग-एसोसिएशन की सम्मिलित एक्शन कमिटी के अध्यक्ष बने। सर्विस एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. यूएन शाही थे। वे इस एक्शन कमिटी में सर्विस के अध्यक्ष और डॉ. रामजन्म सिंह इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बने थे। 11 सदस्यों की एक्शन कमिटी बनी थी। अंततः हड़ताल की घोषणा हो गयी। उसके पहले रोज घंटों बैठकें हुई करती थीं।
प्रख्यात सर्जन डा. नरेंद्र प्रसाद ने उन दिनों की स्मृतियों का वर्णन अपनी आत्मकथा में किया है। वे लिखते हैं कि डॉ. शाही को नेता के रूप में नज़दीक से देखने का मौका मिला। वे बड़े ही व्यस्त सर्जन थे, अस्पताल का काम कभी भी उपेक्षित नहीं करते थे, पठन-पाठन कार्य एक दिन भी उन्होंने बाधित नहीं किया, फिर भी हर बैठक में ठीक समय पर अवश्य उपस्थित रहते और पूर्ण मनोयोग के साथ उसमें लगे रहते। हमलोगों को कई जगहों पर अल्पकालीन सूचना पर प्रवास करना पड़ता था। अपनी गाड़ी, अपना पेट्रोल और अधिकतर अपने भोजन के साथ हमलोग दौड़ते रहे। हड़ताल 24 दिनों तक चली। कुछ सम्मानजनक समझौता हुआ और हड़ताल बिना किसी प्रकार की प्रताड़ना की शर्त के साथ समाप्त हुई। डॉ. शाही का नेतृत्व तब मैंने नज़दीक से परखा और उनके प्रति भय के स्थान पर आदर का भाव आया।
पटना मेडिकल कालेज के वातावरण में कुछ ऐसा था कि लोग एक दूसरे की क्षमता और विशेषता की स्वतः कद्र करते थे। यह विशेषता उस संस्थान की श्रेष्ठ परंपरा बन गयी थी। यही कारण था कि तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इस संस्थान का वजूद कायम रहा। इसके पूर्ववर्ती छात्र इससे आज भी जुड़े हुए महसूस करते हैं। ए
प्रो. आरवीपी सिन्हा की यूनिट में डॉ. नरेंद्र प्रसाद, डॉ. मोतीलाल सिंह, डॉ.एए हई के साथ ही प्रो (डॉ.) यू.एन. शाही भी शामिल थेे। डॉ. नरेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में उन दिनों का पूरा विवरण लिखा है। वे लिखते हैं कि प्रो. आर.वी.पी. सिन्हा की सेवानिवृत्ति के बाद मैंने डॉ. यूएन शाही का दूसरा रूप देखा। आर.वीपी की सेवानिवृत्ति के दूसरे दिन मैंने जाकर डॉ. शाही के पास रिपोर्ट किया। उन्होंने मुझसे पूछा कि आप सबसे सीनियर ट्यूटर हैं, किस यूनिट में जाना चाहेंगे? मैंने कहा कि सर मैं नौकरी कर रहा हूं। आप जहां कहेगें, मैं वहीं पर काम करूंगा। उन्होंने कहा कि केवल डॉ. एचएन वर्मा का यूनिट खाली है। आप वहीं चले जाएं, क्योंकि और सब यूनिट तो भरे हैं। हमलोगों की डॉ. एचएन वर्मा से शैक्षणिक अनुभव और पदस्थापन की लड़ाई जगत विख्यात थी जो कागजी थी। सड़क पर आमने-सामने ‘तू-तू, मैं-मैं’ नहीं होती थी। डॉ. शाही ने मन में सोचा होगा कि मैं उनसे किसी अन्य यूनिट में पदस्थापना के बारे में अवश्य अनुरोध करूंगा। मैंने उनसे कहा कि कल सुबह मैं उनके यहां जाकर योगदान दे दूंगा।
दो मिनट बाद ही उन्होंने कहा कि मैं आज कोई आदेश नहीं दे रहा हूं। आप कल आएं, तब मैं काग़ज़ तैयार करवा लूंगा। दूसरे दिन मैं उनके कमरे में पहुंचा। कॉफी के बाद हमदोनों अकेले थे। डॉ. शाही ने मुझसे फिर प्रश्न किया कि आप तो सबसे वरीय हैं। मैंने छोटा-सा उत्तर ‘‘हां’’ में दिया। तब डॉ. शाही ने मुझसे पूछा कि यदि मैं आपको अपने यूनिट में रख लूं तो आपको एतराज़ तो नहीं होगा। मैंने उत्तर दिया, ‘‘श्रीमान, मैं इससे आनन्दित और अनुगृहीत होऊंगा।’’ उस दिन से उनकी सेवानिवृत्ति तक मैं उनके यूनिट में रहा। डॉ. शाही ने मुझे सदैव नम्बर 1 का स्थान दिया। राजेन्द्र सर्जिकल वार्ड में दो ऑपरेशन थिएटर का जोड़ा था। एक तरफ मेरी लिस्ट रहती थी और दूसरी तरफ प्रो. शाही की। जब भी मुझे कठिनाई हुई, मैंने निःसंकोच उन्हें बुलाया और वे भी बराबर आये। हमलोगों की दूरियां घटने लगीं और शायद हमदोनों ‘पारस्परिक प्रशंसा संघ’ के सदस्य बन गए, जो उनकी सेवानिवृत्ति एवं मृत्यु तक बनी रही। आज भी मेरी नज़रों में डॉ. शाही के समान मेधावी, विशाल स्वच्छ एवं कोमल हृदय के व्यक्ति बिरले ही पैदा होते हैं।