डॉ. आरएन सिंह
(लेखक पटना के प्रसिद्ध हड्डी रोग विशेषज्ञ तथा विश्व हिन्दू परिषद के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)।
आजादी के पूर्व 1874 में टेम्पल मेडिकल स्कूल के माध्यम से पटना में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में संस्थागत कार्य की जो परम्परा शुरू हुई थी, वही प्रिंस आफ वेल्स मेडिकल कालेज के रूप में सतत जारी रहा। जब हम आजाद हुए तब मेडिकल साइंस के अध्ययन, अध्यापन, शोध और सेवा के लिए समर्पित इस संस्थान का नाम पटना मेडिकल कालेज हो गया। हमें गर्व है कि हमारे इस संस्थान का योगदान मेडिकल साइंस की विकास यात्रा में हिमालय जैसा विराट और समुद्र जैसा गहरा है। हमारे इस संस्थान ने अध्ययन, अध्यापन और शोध के साथ ही सेवा के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किया है वह अतुलनीय है।
वर्ष 1955 में पटना मेडिकल कालेज में मेरा नामांकन हुआ था। एमबीबीएस से लेकर एमएस तक की पढ़ाई मैने अपने इस संस्थान में पूरी की। लगभग एक दशक का वह कालखण्ड मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और आनंददायक था। जब भी मैं सोचता हूं तब मेरी स्मृति पटल पर उन दिनों की यादंे और भावनाएं उमड़ने-घुमड़ने लगती हैं। अपने उस भाव को व्यक्ति करते हुए मेरे मुख से एक ही शब्द निकलता है, वह है मां। पीएमसीएच मेरी दूसरी मां है। इसके ऋण को मैं हमेशा याद रखता हूं।
आजादी के बहुत पहले भारत में स्थापित पांच मेडिकल कालेज अस्पतालों में पीएमसीएच भी एक था। बिहार और उड़ीसा में तो केवल यही एक मेडिकल कालेज अस्पताल था। इस संस्थान में बड़े-बड़े काम हुए, इस संस्थान के पूर्ववर्ती छात्र पूरे दुनिया में फैले हुए हैं। पीएमसीएच के हजारों पूर्ववर्ती छात्र भारत ही नहीं बल्कि भारत से बाहर विकसित देशों में भी योग्य चिकित्सक के रूप में अपनी कीर्ति पताका फहरा रहे हैं। इस अर्थ में पीएमसीएच के योगदान का आंकलन करें तो यह एक विश्वस्तरीय संस्थान है।
पीएमसीएच के बाद शिक्षा के लिए मैं विदेश भी गया था और बहुत दिनों तक वहां रहकर वहां के संस्थानों के शिक्षण-प्रशिक्षण और कार्य पद्धति को मैंने नजदीक से देखा है। इस प्रकार मैं स्वयं को इस स्थिति में पाता हूं कि विदेश के संस्थानों के साथ मैं अपने पीएमसीएच की तुलना कर सकूं। मुझे गर्व है कि हमारा पीएमसीएच विदेश के बड़े संस्थानों जैसा ही है। अंग्रेजी चिकित्सा की जिस पद्धति और पाठ्यक्रम से पटना मेडिकल कालेज में शिक्षा दी जाती थी, उसी पद्धति व पाठ्यक्रम से इंगलैण्ड के मेडिकल शिक्षण संस्थानों में भी शिक्षा दी जाती थी। यहां के मेडिकल छात्र जब उच्च या विशेष शिक्षा के लिए इंगलैण्ड जाते हैं तो उन्होंने कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि इंगलैण्ड के मेडिकल शिक्षण संस्थानों में भी उसी तरह से शिक्षा दी जाती है। पटना मेडिकल कालेज और इसके शिक्षकों की ख्याति पूरे विश्व में थी। आर्थोपेडिक्स में डा.बी.मुखोपाध्याय, गाइनी में मिस जौन्स, लाला सूरजनंदन प्रसाद, डा. एम दास, डा.दुखन राम, डा.हई जैसे विश्वविख्यात चिकित्सों की लंबी सूची है। ऐसे चिकित्सक पीएमसीएच के पूर्ववर्ती छात्र या शिक्षक रहे हैं। इस संस्थान में बहुत बड़े-बड़े काम हुए। महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे महापुरूषों का उपचार भी इस संस्थान में हुआ है। भारत के राष्ट्रपति का उपचार भी यहां के चिकित्सकों ने किया है। डा.दुखन राम भारत के राष्ट्रपति के चिकित्सक थे। यह दुखद बात है कि बीच के छोटे कालखंड में इसकी गरिमा में थोड़ी कमी देखी गयी है फिर भी हाथी यदि बैठता भी है तो उंचाई रहती है।
मेरा मानना है िकइस महान संस्थान की गरिमा कभी भी कम नहीं होगी। हम लोग इसकी गरिमा को उठाने में लगे रहते हैं। इस महान संस्थान के गौरव को अक्षुण रखने के लिए बड़ी योजना पर काम हो रहा है। इस योजना के माध्यम से पुराने भवनों की जगह एक स्थान पर संस्थान के सभी विभागों को लाने और 5400 बेड की व्यवस्था करने का काम तेजी से चल रहा है। अत्याधुनिक उपकरण, संसाधन और साजोसामान के साथ हमारा यह संस्थान नए अवतार में लोगों की सेवा में तत्पर रहेगा।
पटना मेंडिकल कालेज के आर्थोपेडिक्स विभाग की ख्याति पूरे विश्व में थी। मैं भी आर्थोपेडिक्स का हूं। वर्ष 1956 में राजेन्द्र सर्जिकल ब्लाक का उद्घाटन हुआ। यह ब्लाक जेनरल सर्जिकल के लिए था। इसके द्वितिय तल पर आर्थोपेडिक्स विभाग की स्थापना हुई। उसके संस्थापक प्रो. बी मुखोपाध्याय थे। ये विश्वविख्यात चिकित्सक थे। वे हंटेरियन लेक्चरर थे। रायल कालेज आफ सर्जन्स में एक हंटेरियन लेक्चर होता है। उसमें उनका व्याख्यान हुआ था। डा. बी. मुखोपाध्याय का बोन टीबी पर बहुत बड़ा काम था। भारत और एशिया ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के डाक्टर बोन टीबी के मामले में डा. बी. मुखोपाध्याय के ओपिनियन को मानते थे। पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में रिसर्च का एक सहज वातावरण था। शिक्षक अपने छात्रों में सारी अर्जित अनुभव व ज्ञान उडेल देना चाहते थे। ऐसा शायद अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।
भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय जब जख्मी सैनिकों की चिकित्सा की समस्या पैदा हुई तब पीएमसीएच और यहां के चिकित्सक और छात्र आगे आ गए थे। अस्पताल के सी वार्ड को युद्ध में जख्मी सैनिकों के लिए चिकित्सा केंद्र बना दिया गया। सेना ने पीएमसीएच के विश्वविख्यात शिक्षक और हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. बीमुखोपाध्याय को मेजर की मानद उपाधि देकर उन्हें सैनिकों की चिकित्सा की पूरी जिम्मेदारी दे दी थी। हम सभी उस काम में लगे थे। उस समय पीएमसीएच में भी राष्ट्र भक्ति का अद्भुत दृश्य था। पीएमसीएच के छात्रों और शिक्षकों में राष्ट्र के लिए कुछ करने का भाव था। उसी समय मेरे मन में यह संकल्प हुआ कि मैं हड्डी का डाक्टर बनूंगा। भगवान ने मेरे इस संकल्प को पूर्ण किया।
मुझे स्मरण है, नालंदा मेडिकल कालेज में शिक्षण कार्य करने के बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए यूके चला गया था। वर्ष 1982 में अपने देश वापस लौटने बाद मैंने अपने मूल कालेज पीएमसीएच की ओर रूख किया। यहां हमारी पोस्टिंग नहीं थी। लेकिन, अपने कालेज से लगाव के कारण यहां आता जाता रहा। पूर्ववर्ती छात्र संघ के सचिव और अध्यक्ष के रूप में हमने पांच छह साल तक अपनी सेवाएं दी। इस दौरान हमने अनुभव किया कि पीएमसीएच के पूर्ववर्ती छात्रों का सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार एक-दूसरे के प्रति अद्भुत है। हमने बिहारी डाक्टरों का विश्वव्यापी एसोशिएशन बनाया है जिसमें सबसे अधिक डाक्टर पीएमसीएच के पूर्ववर्ती छात्र है। पटना मेडिकल कालेज अस्पताल पर हम सबका विश्वास था। मेरी तीन बेटियों का जन्म पीएमसीएच में ही हुआ था। इस महान संस्थान का चिकित्सा पेशा को सम्मानित बनाने में बड़ा योगदान है।