कृष्णकांत ओझा
बिहार का सबसे बड़ा चिकित्सा शिक्षा संस्थान पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल अपने शताब्दी वर्ष में भारत का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा बड़ा मेडिकल कॉलेज अस्पताल बनने की राह पर तेजी से चलता दिख रहा है। चिकित्सा शिक्षा, शोध और स्वास्थ्य सेवा के मामले में कीर्तिमान स्थापित करने वाला यह संस्थान गिरकर उठने और उठकर फिर से चलने की ओर अग्रसर है। बहुत लंबे समय तक बिहार में चिकित्सा व स्वास्थ्य सेवा के बुरे हाल का दंश भारत के इस प्रीमियर संस्थान को भी झेलना पड़ा। छोटी-बड़ी बीमारी से मुक्ति के लिए मरीजों की भारी भीड़ के बीच अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाते-निभाते चिकित्सा शिक्षा एवं शोध की गौरवशाली परंपरा वाला यह संस्थान सबका अस्पताल बनकर रह गया था।
हारे को हरि नाम की तरह पीएमसीएच सभी रोगियों का अंतिम सहारा तो बना लेकिन, वह नहीं बन सका जो इसे बनना था। यह एक ऐसा मेडिकल कॉलेज है जिसके दर्जनों छात्र पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके हैं। यहां के पूर्ववर्ती छात्र चिकित्सा जगत के प्रकाशमान सितारे बनकर आज पूरी दुनिया में छाये हुए हैं। इसके बावजूद इसकी विकास यात्रा न केवल ठहर सी गयी, बल्कि विपरीत दिशा में चल पड़ी थी।
ऐसा क्यों? शताब्दी वर्ष जैसे अवसर पर इस प्रश्न का उत्तर तो इससे जुड़े लोगों को ढूंढना ही चाहिए। क्योंकि, त्रुटियों से यदि सीख ली जाए, तो त्रुटियां भी वरदान हो जाती हैं। किसी भी संस्थान की आयु व्यक्ति की आयु से बहुत अधिक होती है। जो संस्थान युग की मांग के अनुसार स्वयं को बदलता रहता है, वही दीर्घजीवी होता है। इसमें राजसत्ता की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। नालंदा, विक्रमशीला, तक्षशीला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालय इसके उदाहरण हैं। ये विश्वविद्यालय तब तक विश्व को आलोकित करते रहे, जब तक इन्हें राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त रहा। भारत की राजसत्ता जैसे ही कमजोर हुई आतंकी बख्तियार ने ज्ञान के केंद्र प्राचीन नालंदा वि.वि. को जलाकर राख कर दिया।
आजादी के पूर्व 25 फरवरी 1925 को भारत के प्राचीन नगरों में से एक पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर एक मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास किया गया था। शिलान्यास करने वाले ब्रिटेन के राजकुमार प्रिंस ऑफ वेल्स थे। इसीलिए इस कॉलेज का नाम प्रिंस अॅाफ वेल्स मेडिकल कॉलेज रखा गया। वर्ष 1947 में भारत आजाद हो गया। शासन की बागडोर भारतीयों के हाथ में आ गया। इसके बाद भी इस संस्थान का नाम प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज ही रहा। यह नाम इस संस्थान की स्वर्ण जयंती यानी स्थापना के 50 वर्ष तक कायम रहा। वर्ष 1975 में जब यह संस्थान अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा था, तब इसका नाम विधिपूर्वक पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल कर दिया गया। 1975 के पूर्व इस मेडिकल कॉलेज द्वारा जारी सभी योग्यता प्रमाणपत्रों पर प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज ही लिखा मिलता है। मात्र 50 वर्षों में ही बिहार के लोगों की स्मृति से पीएमसीएच का प्रारंभिक नाम लुप्त हो गया। अब यह दस्तावेजों में ही उपलब्ध है।
गौरवशाली अतीत वाले इस संस्थान का परिवार बहुत विशाल है, जिसमें इसके पूर्ववर्ती छात्र भी शामिल हैं। वे सात समंदर पार विश्व के विकसित देशों में भी महत्वपूण भूमिका में जमे हुए हैं। विकसित देशों के चिकित्सा विज्ञान में शोध की वे रीढ़ बने हुए हैं। पूर्ववर्ती छात्र बताते हैं कि एक समय था, जब पीएमसीएच से एमबीबीएस की परीक्षा पास करने के बाद विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए ब्रिटेन जाते थे, तब वहां के संस्थानों में प्रवेश परीक्षा के बिना ही उनका नामांकन हो जाता था। यह पीएमसीएच की छवि और विश्वास के कारण होता था, जो यहां के चिकित्सकों और शिक्षकों ने प्रचंड पुरुषार्थ के बल पर अर्जित किया था। यह सिलसिला 1970 तक जारी रहा। इसके बाद धीरे-धीरे पटना मेडिकल कॉलेज की धाक विदेशों में कम होने लगी।
पीएमसीएच को लेकर एक और रोचक जानकारी है जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। यहां तक कि पीएमसीएच के विद्यार्थियों को भी यह जानकारी नहीं है कि वास्तव में पीएमसीएच टेंपल मेडिकल स्कूल का परिवर्द्धित रूप है। ब्रिटेन की सरकार ने सन 1874 में टेंपल मेडिकल स्कूल के नाम से पटना में चिकित्सा कार्य के लिए युवाओं के प्रशिक्षण का एक संस्थान स्थापित किया था। इसके माध्यम से चिकित्सा कौशल वाला व्यक्ति तैयार होता था जो सैनिकों के साथ-साथ जनसामान्य का भी उपचार करते थे। वर्ष 1911 में बिहार और उड़ीसा, बंगाल प्रांत से अलग हो गया। उस समय बंगाल की राजधानी कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज था। बिहार को अलग राज्य का दर्जा देने के बाद यहां पूर्णतः अंग्रेजी पद्धति से उपचार करने वाले चिकित्सकों के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए एक मेडिकल कॉलेज की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। तब पटना में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज की स्थापना हुई।
ब्रिटेन के नेशनल लाइब्रेरी ऑफ स्कॉटलैंड में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज की स्थापना से लेकर आगे तक का वार्षिक रिपोर्ट आज भी उपलब्ध है। उस रिपोर्ट के अनुसार एक जुलाई 1925 से इस संस्थान में शिक्षण कार्य शुरू हो गए थे। लेफ्टिनेंट कर्नल एचआर डटन इस कॉलेज के प्रथम प्राचार्य थे। प्रथम बैच में 31 छात्रों का नामांकन हुआ था, जिसमें 13 बिहारी हिंदू, 6 मुसलमान, 5 उड़िया एवं 2 आदिवासी थे। यह बिहार और ओड़िशा का संयुक्त रूप से पहला मेडिकल कॉलेज था। प्रारंभिक वर्ष में इस कॉलेज में बायोलाजी, एनाटॉमी, ऑर्गेनिक केमेस्ट्री, फिजियोलाजी, मैटेरिया मेडिका और फरमाकॉलॉजी, पैथोलॉजी की ही पढ़ाई संभव हो सकी थी। सर्जरी, मिडवाइफरी, मेडिकल जूरिस्प्रूडेंट की पढ़ाई शुरू नहीं हो सकी थी। मैटेरिया मेडिका और फरमाकॉलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. टीएन बनर्जी थे और उनके सहयोगी डॉ. पीसी राय थे। पैथोलाजी के शिक्षक डॉ.एसपी वर्मा थे। वहीं फिजियोलाजी के हेड प्रो. क्रूकसैंक थे।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ स्कॉटलैंड के अभिलेखागार में संरक्षित रिपोर्ट के अनुसार प्रथम वर्ष में ही इस मेडिकल कॉलेज के छात्रावास में चेचक रोग फैल गया था, जिसके कारण छात्रों के अलग रहने की व्यवस्था करनी पड़ी थी। इसके कारण पढ़ाई और परीक्षा में बाधा आई थी। प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज की स्थापना और इसके संचालन में भारतीयों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उस समय के बिहार के धनी लोगांे व जमींदारों ने इसके लिए बहुत बड़ी धनराशि दी थी। अकेले दरभंगा महाराज ने इस कॉलेज की स्थापना के लिए पांच लाख रुपए दान दिए थे। बड़े दानदाताओं के नाम आज भी कॉलेज के प्रशासनिक भवन के मुख्य द्वार के पास लगे शिलापट्ट पर अंकित हैं। इन लोगों ने कुल 9 लाख रुपए इस कॉलेज के लिए दान दिया था। इसके अलावा छोटे दानदाताओं ने भी दान दिए थे।
पटना मेडिकल कॉलेज का इतिहास बिहार के बंगाल से अलग होने से भी जुड़ा हुआ है। बंगभंग आंदोलन के बाद 1911 में किंग जॉर्ज पंचम भारत की यात्रा पर आए थे। उनकी ऐतिहासिक दिल्ली दरबार के बाद बिहार और ओड़िशा प्रांत 1912 में अस्तित्व में आया गया था। इसके बाद बिहार के लिए मेडिकल कॉलेज की मांग उठने लगी थी।
किंग जॉर्ज की उस ऐतिहासिक भारत यात्रा के 10 वर्ष बाद उनके पुत्र तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स भारत की यात्रा पर आए थे। एडवर्ड, वेल्स के राजकुमार और ब्रिटिश सम्राट किंग जॉर्ज पंचम के बेटे ने अक्टूबर 1921 से मार्च 1922 तक भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की थी। अपने शाही दौरे के तहत वे 22 दिसंबर, 1921 की सुबह नेपाल से ट्रेन और स्टीमर के माध्यम से पटना पहुंचे थे। बाद में प्रिंस ऑफ वेल्स ब्रिटेन के सम्राट एडवर्ड षष्ठम बने थे। पटना के ऐतिहासिक शहर में उनके स्वागत में अनेक शाही कार्यक्रमांे का आयोजन किया गया था। अपने इस यात्रा के दौरान ही उन्होंने पटना में एक मेडिकल कॉलेज की आधारशिला रखी थी। बिहार और उड़ीसा के पहले मेडिकल कॉलेज का नाम उनके नाम पर रखा गया था।
अभिलेखागार के रिकार्ड के अनुसार, प्रिंस ऑफ वेल्स जहाज से पटना स्थित आयुक्त घाट पर पहुंचे थे। इसके बाद एडवर्ड का बांकीपुर मैदान में भव्य स्वागत हुआ। बांकीपुर मैदान का नाम ही अब गांधी मैदान हो गया है। स्वागत समारोह के बाद दोपहर में वे सरकारी घर में आराम करने चले गए। उसी भवन को अब राजभवन कहा जाता है। वर्तमान समय में वह भवन बिहार के राज्यपाल का निवास स्थान है। उस विशाल भवन के पास ही विशाल मैदान था, जिसमें उनके पोलो खेलने की व्यवस्था की गयी थी। रात्रि भोज के बाद उन्होंने वहां एक अनौपचारिक स्वागत समारोह में भाग लिया, जिसमें बिहार और उड़ीसा प्रांत से कुछ मेहमानों को आमंत्रित किया गया था। आमंत्रित अतिथियों में पटना सिटी के प्रसिद्ध किला हाउस के राय बहादुर राधा कृष्ण जालान भी थे। वह एक व्यापारी थे और अपने समय के एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व थे। उनके प्रयास से पटना के व्यवसायियों ने मेडिकल कॉलेज के लिए दान दिया था।
पीएमसीएच के प्रशासनिक भवन में प्रिंसिपल कार्यालय के ठीक बाहर एक विशाल संगमरमर की पट्टिका, स्थापित की गई है जिस पर कॉलेज का नाम प्रिंस ऑफ वेल्स लिखा हुआ है। यह इसकी स्थापना की कहानी बताती है। पट्टिका में लिखा है कि कॉलेज की स्थापना 1925 में हुई थी और 25 फरवरी, 1927 को औपचारिक रूप से बिहार और उड़ीसा के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर हेनरी व्हीलर ने इसका उद्घाटन किया था।
पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल जिसे लोग सामान्य बोलचाल की भाषा में पीएमसीएच ही कहते है। यह कॉलेज आम आदमी की भावना से जुड़ा हुआ है। कुछ लोगों के लिए यह संस्थान तीर्थ की तरह है। इसके पूर्ववर्ती छात्रों में बहुत से ऐसे हैं जो विदेश में जा बसे हैं। वे जब भी भारत आते हैं तब अपने बेटे-बेटियों के साथ पटना मेडिकल कॉलेज जरूर आते हैं। कॉलेज के पुराने छात्रावास के उन कमरों को अपने बेटे-बेटियों को एकबार जरूर दिखाना चाहते हैं। इससे जुड़ी रोचक कहानियां अक्सर सुनने को मिल जाती है। सरकार की उपेक्षा के कारण इस कॉलेज के पुराने छात्रावासों एवं महत्वपूर्ण भवनों की स्थिति अत्यंत खराब थी। इतना ही नहीं सुरक्षित प्रसव के मामले मंे इस अस्पताल पर लोग आंख बंदकर विश्वास करते थे। यही कारण है कि बड़े घर के बच्चों का जन्म इस अस्पताल में हुआ है। डॉ. नरेंद्र प्रसाद, डॉ. आरएन सिंह जैसे प्रसिद्ध चिकित्सक भी स्वीकार करते हैं कि संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में हमारे बच्चों का जन्म इसी पीएमसीएच में हुआ था। इस अस्पताल के दक्ष नर्सों व महिला चिकित्सकों की दूर-दूर तक ख्याति थी। गरीब-अमीर सबका विश्वास इस संस्थान पर था।
सरकार की उपेक्षा के कारण इस संस्थान में संसाधन की कमी होती चली गयी। सृजित पदों पर बहाली न होने के कारण डॉक्टर और तकनीकी सहयोगियों की भारी कमी हो गयी। ऐसे में गौरवशाली पीएमसीएच बदहाल स्थिति में चला गया। समीक्षा व देखरेख की कमी के कारण बहुत से अनुपयोगी पद भी प्रभाव में थे। ऐसे में इस अस्पताल पर से लोगों का विश्वास समाप्त होने लगा। वर्ष 2005 के बाद इस संस्थान की कायापलट करने का प्रयास शुरू हुआ। कैबिनेट ने पीएमसीएच के 29 अनुपयोगी पदों को विलोपित करते हुए आधुनिक चिकित्सा पद्धति और तकनीक के लिए आवश्यक पदों के सृजन की स्वीकृति दी।
इस संस्थान की समस्या के कारणों की जांच-पड़ताल के बाद योजनाएं तैयार हुई और उस पर काम शुरू हुआ तब धीरे-धीरे परिणाम भी दिखने लगे हैं। फिलहाल पीएमसीएच 5462 बेड के साथ विश्व का दूसरा सबसे बड़ा अस्पताल बनने के मार्ग पर अग्रसर है। लेकिन, भवन व संसाधन के बाद गुणवत्तापूर्ण परिणाम की बात सामने आती है। पीएमसीएच को चरणबद्ध तरीके से तीन चरणों में पुनर्विकसित करने की महत्वाकांक्षी योजना क्रियान्वित की जा रही है। पीएमसीएच के शताब्दी वर्ष में इस योजना का पहला चरण पूरा हो चुका है। इस अस्पताल में क्षमता से कई गुना अधिक रोगी इलाज कराने आते हैं। फिलहाल, समस्या है लेकिन समस्या के समाधान की आशा भी है।
पीएमसीएच के लिए 4 नवम्बर 2018 इसे पुनर्जीवन का दिन है। इसी दिन नीतीश कैबिनेट ने पटना मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल यानी पीएमसीएच के पुनर्विकास को मंजूरी दी थी। इसी मंजूरी के बाद पीएमसीएच को 5540.07 करोड़ रुपए की लागत से संसाधन सम्पन्न करने का प्रयास शुरू हुआ था। उस दिन के फैसले पर कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी सामने आयी थीं। लेकिन, जैसे-जैसे काम आगे बढ़ रहा है, लोगों को विश्वास होने लगा है कि असंभव लगने वाला काम अब संभव हो जाएगा। नए कलेवर में अस्पताल को बिहार मेडिकल सर्विसेज ऐंड इंफ्रास्ट्रक्चर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीएमएसआईसीएल) पूरी तरह से तैयार हालत में सौंपेगा।
इस अस्पताल के निर्माण में ग्रीन ग्रिड का प्रयोग भी शामिल है। इसे ऊर्जा संरक्षण के क्षेत्र में बड़ा कदम माना जा रहा है। बिहार का यह पहला ग्रीन ग्रिड होगा। लगभग 250 करोड़ की लागत से इसे तैयार किया जा रहा है। इस ग्रीन ग्रिड के बन जाने से पीएमसीएच अस्पताल बिजली के लिए आत्मनिर्भर हो जाएगा। गैस इंसुलेटेड सिस्टम से इसे तैयार किया जाएगा। ब्रिटेन और जर्मनी के तर्ज पर तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। बिजली के साथ-साथ सौर ऊर्जा का भी इस तकनीक से इस्तेमाल हो सकेगा।