बात पीएमसीएच के चिकित्सक और सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष डा. नरेंद्र प्रसाद की सेवानिवृत्ति की है। दिनांक 31 मार्च, 1992 को वे सेवानिवृत्त हुए थे। उस दिन भी वे जेनरल क्लास-लेक्चरर थिएटर नं. एक में नियत समय पर ठीक 8ः30 बजे सुबह पहुंच गए थे। उनकी क्लास में हाज़िरी, क्लास के अंत में घंटी बजने के बाद ही होती थी, जिससे क्लास की पढ़ाई का समय हाज़िरी में व्यतीत न हो जाय। उस दिन भी उन्होंने ऐसा ही किया। अंत में उन्होंने कहा कि यह मेरा अन्तिम क्लास है और आज मैं सेवानिवृत्त हो रहा हूं। मेरे विद्यार्थियों ने मुझे बहुत कुछ दिया। इसके लिए मैं आपका आभार प्रकट करता हूँ और आप सबों को अपने से बहुत बड़ा डाक्टर बनने का आशीर्वाद देता हूं। यह कहते-कहते उनका भाव उमड़ पड़ा था। उनकी आखों से भाव के आंसू बरस रहे थे। विद्यार्थी भी भावुक हो उठे थे। विद्यार्थियों का सान्निध्य छूटने की कसक, कालेज़ एवं अस्पताल से एकात्मता की समाप्ति को लेकर उनके मन-मस्तिष्क में जो भावातिरेक हुए वे आंसुओं के माध्यम से बाहर आ गए।
अपनी आत्मकथा में उन्होंने पीएमसीएच में अपनी सेवा के अंतिम दिन का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि शायद इसीलिए भावातिरेक में मैं अपने को रोक नहीं सका। इसके बाद मैं वार्ड में गया। 11ः30 बजे तक पूरा राउंड किया और वार्ड के हाउस-सर्जन, परिचारिकाओं और कर्मचारियों से विदाई ली। 11ः30 बजे मैं अपने कमरे में आया। जिनको भार सौंपना था, उन्हें बुलवाया तथा बाकी सभी शिक्षकों को भी बुलवाया। चाय, कॉफी, गपशप चली। मैंने सेवानिवृत्ति चार्ज-रिर्पाेट पहले ही भर रखी थी। ठीक 12ः00 बजे दिन में, जिनको प्रभार सौंपना था, उनके सामने चार्ज-रिपोर्ट रखा और उनका हस्ताक्षर हो गया। प्रतियां उचित स्थान पर भेज दी गयीं। एक प्रति मैंने अपने लिए भी रख ली। 12ः00 बजे दिन में मेरी विदाई समारोह का आयोजन था। पूरा राजेन्द्र सर्जिकल ब्लॉक सभागार शिक्षकों, पदाधिकारियों, कर्मचारियों और स्नातक एवं स्नातकोत्तर विद्यार्थियों से ठसाठस भरा था। दृश्य देखकर मेरा मन भर गया। लगा कि मेरी सेवा को लोगों ने सराहा है।
यह मेरे लिए गर्व की बात थी। मैंने पहले ही कह दिया था कि लम्बी भाषणबाजी नहीं हो। कई उपहार भी मुझे मिले। अंत में करीब डेढ़ बजे मुझे बोलना था। मैंने सबों को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘पटना मेडिकल कॉलेज़ और अस्पताल मेरी जननी और जनक दोनों रहा है। इसी कालेज़ ने मुझ-जैसे साधारण साधनहीन विद्यार्थी को इतना ऊंचा उठा दिया कि वह आज यहां के शल्य चिकित्सा के विभागाध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्त हो रहा है। इस परिसर ने मुझे जितना दिया, उसकी भरपाई कई जीवन में कभी भी मैं नहीं कर सकूँगा। सेवानिवृत्ति की इस वेला में मेरे मन में अजीब भाव उत्पन्न हो रहे हैं। सम्मान के साथ मैं यहाँ से विदा हो रहा हूँ। यह मेरे-जैसे विचित्र व्यक्ति के लिए असाधारण बात है। आज से सरकारी दायित्व नहीं रहा, अतएव अपनी निजी प्रैक्टिस पर और अन्य निजी कार्यों पर अधिक ध्यान दे सकूँगा। अभी तक समय की बराबर कमी ही रही है, वह शायद अब नहीं रहेगी। इसलिए कुछ खुलापन और स्वतन्त्रता महसूस कर रहा हूँ। परन्तु पांच मुख्य बातों से मैं वंचित हो जाऊँगा, इसका बराबर दुःख रहेगा।
उन पांच बातों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि इस परिसर में मैं बराबर जवानों की संगति में था। विद्यार्थीगण, रेजिडेन्ट, कर्मचारीगण एवं परिचारिकाएं सभी हमसे कम उम्र की थीं, इसलिए मैं बराबर अपने को युवा समझता आया। यह मेरी पहली क्षति होगी। स्नातक और स्नातकोत्तर-विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए स्वाध्याय अनिवार्य था और अपने ज्ञान की वृद्धि भी होती थी। यह सब मैं मन से नहीं, वरन् डर से करता था कि मेरी हेठी न हो जाए और मैं मूर्ख न बन जाऊँ। महाविद्यालय-परिसर में रहने के कारण विभिन्न विभागों में जाने से तथा वार्ताक्रम में भाग लेने से ज्ञानवर्द्धन होता ही रहता था और विभिन्न विभागों में वैज्ञानिक एवं अन्य प्रगतियों की जानकारी सहज भाव से मिलती रहती थी। यह तीसरी क्षति होगी। महाविद्यालय में बातचीत के दौरान भी ज्ञानवर्द्धन होता रहता था और कहाँ क्या हो रहा है, क्या खिचड़ी पक रही है, इसकी जानकारी मिलती रहती थी। इस तरह मैं जागरुक और जानकार रह सका हूँ, जो छूट जायगा। यह मेरी चौथी क्षति होगी। मेरी सबसे बड़ी क्षति मैंने अपने पूरे कॅरियर में अस्पताल में असहाय, निर्धन एवं अशक्त लोगों की सेवा सरकार के व्यय पर करके यश पाया। यह अब सम्भव नहीं हो सकेगा। निजी अस्पताल में इतना कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाएगा, इसका मुझे सबसे अधिक दुःख है।