दिल्ली के आई.एम.ए. हॉल में घुसते ही एक मूर्ति के दर्शन होते हैं। जब उस पर लिखे नाम को कोई बिहारी पढ़ता है तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। यह मूर्ति डा एकेएन सिन्हा की है। स्वतंत्र भारत में देशरत्न डा राजेन्द्र प्रसाद को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान आईएमए में डां एकेएन सिन्हा को प्राप्त है। डा.एकेएन सिन्हा पटना मेडिकल कालेज के माथे पर विराजमान स्वर्ण मुकुट के वह चमकदार हीरा हैं जिनकी विमलकीर्ति आज भी सबको आकर्षित कर रही है। डा. एकेएन सिन्हा नाम से प्रसिद्ध डा. अवध किशोर नारायण सिन्हा बिहार के बड़े ज़मींदार-परिवार से आते थे। उनके पिता ज़िलाधीश रह चुके थे। कदमकुआँ, पटना में उनका अपना बड़ा मकान था।
भारत जब आजाद हो रहा था, उसी समय डा.एकेएन सिन्हा उस समय के प्रिंस आफ वेल्स मेडिकल कालेज और वर्तमान के पटना मेडिकल कालेज के छात्र बने थे। वर्ष 1951 ई. में उन्होंने पटना मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री ली थी। वे पहले बिहारी थे जिन्हें 1957 में इडिनबर्ग यूनिवर्सिटी से एमआरसीपी की डिग्री मिली थी। इस तरह वे बिहार के पहले कार्डियोलॉजिस्ट बने। वे एमआरसीपी और हृदय-रोग के उच्चतर प्रशिक्षण हेतु इंग्लैण्ड गये थे। वहाँ उन्होंने एमआरसीपी लन्दन और एडिनबर्ग, दोनों स्थानों से किया। हृदय रोग का प्रशिक्षण उन्होंने गुडविन जैसे प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ के साथ हैमरस्मिथ जैसे उच्चतम श्रेणी के अस्पताल में पूरा किया। डा. गुडविन ने उन्हें हैमरस्मिथ में फैकल्टी में स्थान देने की पेशकश की थी। यह किसी युवा चिकित्सक के लिए बहुत बड़ी बात थी। परन्तु, डा. सिन्हा को स्वदेश-प्रेम ने वापस भारत लौटने पर विवश कर दिया। अमेरिका और इंग्लैंड के अस्पतालों में कई वर्षों तक काम किया। मेडिकल साइंस के क्षेत्र में हुए नूतन प्रयोगों और तकनीक का प्रशिक्षण लेकर फिर वापस भारत आ गए। इंग्लैंड और अमेरिका में भी एक डाक्टर और अध्यापक के रूप में उन्होंने असाधारण कीर्ति अर्जित की थी। लेकिन अपने देश और अपनी मिट्टी की पुकार ने उन्हें अपने देश लौटने को बाध्य कर दिया। अपनी मां और परिवार के जो प्रति प्यार था वह उन्हें खींचकर वापस बुला लिया।
वे पटना में जनता की सेवा हेतु लौट आये। उन्होंने बिहार सरकार की नौकरी की और पटना मेडिकल कालेज़ में हृदयरोग विभाग में पदस्थापित हो गये। उसके बाद उनका स्थानांतरण दरभंगा मेडिकल कालेज़ में कर दिया गया था। पटना छोड़ना उन्होंने स्वीकार नहीं किया और नौकरी ही छोड़ दी तथा निजी प्रैक्टिस करने लगे। वे उच्च श्रेणी के हृदयरोग विशेषज्ञ थे और जल्द ही वे बड़े प्रैक्टिशनर बन गये। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनमें अद्भुत सम्मोहन शक्ति थी। उनके प्रशंसकों में वयोवृद्ध से लेकर नये एमबीबीएस चिकित्सक भी शामिल थे। वे पटना मेडिकल कॉलेज़ में वरीय शिक्षक नहीं रहे, परन्तु मेडिकल कालेज़ में छात्रों और चिकित्सकों के बीच उनका मान-सम्मान और आदर का भाव सदैव बना रहा। उनमें पारस की खूबी थी, जिसे स्पर्श किया वह सोना बन गया। सामाजिक कार्यों में वे जिस प्रकार से रुचि लेते थे उसके उदाहरण नहीं मिलते हैं। उन्होंने प्रैक्टिस, निजी जीवन और सामाजिक कार्यों के समय को बाँट लिया था। सामाजिक सक्रियता के कारण सारे भारत एवं विदेश में भी उनके अनेक मित्र, शुभेक्षु एवं प्रशंसक थे।
विद्यार्थी जीवन से ही डा.एकेएन सिन्हा एक प्रभावशाली वक्ता थे। व्यक्तिगत या समूह में उनके संवाद की जो शैली थी, वह किसी को भी सहज ही आकर्षित कर लेती थी। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वे जन्मजात संगठनकर्ता थे। यही कारण था कि न केवल चिकित्सक बल्कि समाज के विविध क्षेत्र मंे काम करने वाले लोग भी उनके निकट संपर्क मंे थे। इस प्रकार उनका संपर्क क्षेत्र अत्यंत विस्तृत था। यही कारण था कि बिहार आईएमए. का अध्यक्ष पद पाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। आईएमए के अध्यक्ष के रूप में उनकी जो यात्रा शुरू हुई, वह अनवरत चलती रही। आगे चलकर वे कामनवेल्थ मेडिकल एसोशिएशन, वर्ल्ड मेडिकल एसोशिएशन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों के भी अध्यक्ष बने। ऐसे अंतरराष्ट्रीय पद पर पहुंचने वाले वे पहले भारतीय ही नहीं बल्कि प्रथम एशियाई भी थे। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने मात्र 41 वर्ष की उम्र में यह उपलब्धि हासिल की थी। यह उनके विराट व्यक्तित्व का चमत्कार था।
उनकी दूसरी मंजिल थी मेडिकल कांउंसिल आफ इण्डिया। 1979 में इसके सदस्य बने, 1980 में इसकी कार्यकारिणी में चुने गए और अन्ततः 1985 में इसके अध्यक्ष बन गए। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने जो भी चाहा, उसे हासिल किया। चिकित्सा-शिक्षा में सुधार और हर राज्य में मेडिकल यूनिवर्सिटी की स्थापना और चिकित्सा-सेवा के राष्ट्रीयकरण के क्षेत्र में उनका प्रयास अतुलनीय है।
राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से दिल्ली भारत की राजधानी है। दिल्ली के किसी संस्थान में किसी दिवंगत व्यक्ति की मूर्ति का मर्यादित तरीके से स्थापित होना अपने आप में एक विशिष्ट बात है। मतलब यह कि उस व्यक्ति ने अपनी जींदगी में एक परंपरा की स्थापना की है और वह परंपरा प्रभावशाली होकर आगे बढ़ रही है। ऐसी मान्यता है कि डा. एकेएन. सिन्हा ने अपने पुरूषार्थ से एक नवीन प्रतिमान स्थापित किया था। उनके प्रतिमान को अपना आदर्श मानकर उनके पीछे कई पीढ़ियां खड़ी होती चली गयी। इस अर्थ में डा सिन्हा स्वयं में एक संस्था थे। एकेएन ने चिकित्सा-राजनीति को नया आयाम दिया था।
एक बिहारी का आईएमए. के शीर्ष स्थान पर पहुंचना आसान नहीं था। इस पद की होड़ में बंगाल, दिल्ली, बम्बई और मद्रास जैसे महानगरों की कई बड़ी हस्तियां मैदान में डटी थीं। ऐसी कठीन परिस्थितियांे में डा.एकेएन सिन्हा के समन्वयकारी व्यक्तित्व ने असंभव को संभव कर दिया था। उन्होंने बिहार, उत्तर प्रदेश., बंगाल और मध्यप्रदेश को एक सूत्र में पीरोकर संगठनशास्त्र में एक नए अध्याय की शुरूआत की थी। उन्होंने आईएमए को रीढ़युक्त ऐसे संगठन में तब्दील कर दिया जो भारत की कार्यपालिका, न्यायपालिका और विघायिका के समक्ष प्रभावशाली ढंग से अपना पक्ष रखने में समर्थ हो।
यहां एक मद्रास की घटना का जिक्र आवश्यक है। मद्रास के एक डॉक्टर ने अपने किसी मरीज को पेनिसिलिन की सुई लगाई थी। ऐनाफ़ायलैक्टिक रिएक्शन हो गया और उसकी मौत हो गयी। सरकार ने उस डॉक्टर पर भारतीय दंड संहिता की घारा 302 के तहत केस दर्ज कर दिया। इसके अनुसार वह डक्टर हत्या का दोषी हो गया। न्यायालय में उस मामले की सुनवाई हत्या से सम्बंधित बिंदु पर होता। स्थानीय आईएमए. के लोगों ने अपने स्तर से बहुत प्रयास किया। लेकिन, सरकार द्वारा मामला दर्ज कर लिए जाने के कारण इस मामले में कहीं से कोई राहत मिलने की उम्मीद नही थी। इस मामले की जानकारी जब डा.एकेएन सिन्हा को मिली तब उन्होंने कहा कि था कि मेरे रहते ऐसा अत्याचार नहीं होगा। उस समय वे मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एम.सी.आई.) के अध्यक्ष थे। वे सीधे मद्रास के राज्यपाल से मिलने गये। उन्होंने उनसे डॉक्टर पर से केस हटाने का अनुरोध किया पर गवर्नर तैयार नहीं हुए। उन्होंने तब साफ-साफ कह दिया कि या तो उस डॉक्टर पर से केस हटाइये नहीं तो अपने सारे मेडिकल कॉलेजों की मान्यता रद्द कराने के लिये तैयार हो जाइये। गवर्नर और वहां के मुख्यमंत्री इस दृढसंकल्प से पूर्ण उस स्पष्ट कथन का महत्त्व जानते थे। सामने वाले की शक्ति को पहचानते थे। इसके बाद सरकार ने आनन-फानन में केस वापस ले लिया। इस प्रकार की कई कथाएं उनके जीवन से जुड़ी हुई हैं।
वे चिकित्सकों के हित के लिए संघर्ष करने को बराबर तैयार रहते थे, चाहे वह इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन, चिकित्सा-संवर्ग या अन्य चिकित्सकीय संस्था की बात हो। सन 1975 में बिहार स्टेट हेल्थ सर्विस और इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की सम्मिलित कार्यसमिति बनी जिसके अध्यक्ष एकेएन ही बने। उनके ही नेतृत्व में डाक्टरों की 24 दिन की हड़ताल चली थी। अंततः सरकार के साथ सम्मानजनक समझौता हुआ था।
प्रसिद्ध चिकित्सक डा. नरेंद्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक मेरा जीवन संघर्ष और सेवा में डा. एकेएन सिन्हा के बारे में लिखा है-‘मैंने पहले-पहल एमएस के विद्यार्थी के रूप में डा. एकेएन सिन्हा देखा था। डा. एसके सिन्हा का क्लास था। वे अपने साथ एक युवा, भव्य, खुले दिल के तथा बुद्धिमान दिखनेवाले चिकित्सक को लेकर पहुंचे, उनका परिचय दिया और कहा कि आज वे आपलोगों को हृदयरोग सर्जरी के बारे में बतलाएंगे। एकेएन ने प्रारम्भ किया। क्लास दो घंटे से अधिक चली। समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। इतना सुन्दर व्यवस्थित, सारगर्भित होते हुए हम नवसिखुओं के पूर्णतया समझनेवाली भाषा में उनका भाषण आज भी याद है। ऐसे प्रेरणादायक शिक्षक मिल जायँ तो विद्यार्थियों का स्तर तो ऊँचा हो ही जायेगा।’’ डा. नरेंद्र प्रसाद का यह कथन डा.एकेएन सिन्हा के व्यक्त्वि की उंचाई का प्रमाण है।
पुराने चिकित्सकों के अनुसार डा. एकेएन में अद्भुत चुम्बकीय आकर्षण था। सहज भाव से सभी चिकित्सक उनसे हृदय से जुड़ जाते थे। इसका विशेष कारण था उनका आदर देना और अपना नुकसान करके भी अपने मित्रों और शुभेक्षुओं का मददगार बनना। किसी के काम से यदि उन्हें दिल्ली, मुम्बई, मद्रास या लन्दन भी जाना हुआ, तो बराबर अपना खर्च कर ही गये। पैसे की लेन-देन के मामले में उनका सिद्धान्त बहुत ही स्पष्ट था कि दूसरों को जितना दे सको, अवश्य दे दो। पर किसी से कुछ भी कभी नहीं लेना, अन्यथा नीचे जाओगे। एकेएन सिन्हा की लोकप्रियता के चिकित्सक बिरले ही पैदा होते हैं। वे किसी भी चुनाव में कभी नहीं हारे। इसका कारण उनकी लोकप्रियता थी।
उन्हें फेफड़े का कैंसर था, जिसका आपरेशन यूएस के सबसे विशिष्ट कैंसर संस्थान (स्लोन कैटरिंग) में हुआ। परन्तु रोग बढ़ता ही गया। अंत बड़ा ही कष्टमय रहा। लंग कैंसर के साथ बोनी मेटास्टेसिस ने भी उनपर आक्रमण कर दिया था। आईएमए बिल्डिंग में ही रहा करते थे। डा. सहजानन्द सिंह उनकी सेवा में अंत तक लगे रहते थे। कैंसर से उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी लोकप्रियता उनकी शवयात्रा में दिखी। राजेन्द्र बाबू और जयप्रकाश नारायण की शवयात्रा को छोड़कर उतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी गयी थी। उसमें हज़ारों की संख्या में चिकित्सकों के साथ गरीब-अमीर लोग भी सम्मिलित हुए थे।