बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार की एक वायरल तस्वीर और साथ ही पटना में जदयू कार्यालय के बाहर लगे एक पोस्टर ने होली के बाद बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी है। सोशल मीडिया पर वायरल नीतीश के बेटे निशांत की तस्वीर में वे मुख्यमंत्री के दो करीबी नेता संजय झा और विजय चौधरी के कंघे पर हाथ धरे दिख रहे हैं। इस वायरल तस्वीर के सामने आने के बाद निशांत की पॉलिटिकल एंट्री को तब और बल मिला जब पटना में जदयू कार्यालय के बाहर बजाप्ता पोस्टर लगाकर इसकी तस्दीक कर दी गई। पोस्टरों पर लिखा है, ‘बिहार की मांग सुन लिए निशांत’। पार्टी नेताओं का मानना है कि निशांत कुमार पार्टी को नई ऊंचाइयों पर ले जाएंगे।
दिग्गज समाजवादी बन गए परिवारवादी
लेकिन इस सबके बीच बड़ा सवाल यह कि अब तक लालू यादव और रामविलास पासवान के परिवारवाद पर हमले कर अपनी राजनीति करते रहे नीतीश कुमार अब किस मुंह से अपने बेटे की जदयू में एंट्री को जस्टिफाई करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक राकेश प्रवीर के अनुसार बिहार की राजनीति में समाजवाद के नाम पर तीन बड़े नेता उभरे। लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार। तीनों ने अपनी राजनीति परिवारवाद के विरोध से शुरू की। जहां लालू और रामविलास ने तो परिवारवाद बहुत जल्द अपना लिया, परंतु नीतीश इससे बचते रहे और अपनी इस खूबी को उन्होंने जनता में भुनाया भी। लेकिन समय के साथ अब उनके सामने पार्टी और सत्ता बचाने की बेचैनी है। ऐसे में अब वे भी परिवारवाद की राजनीति में फंस रहे तो कोई आश्चर्य नहीं।
लालू के समक्ष पार्टी बचाने का संकट
लालू प्रसाद यादव की बात करें तो उन्होंने 90 के दशक में कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का बिगुल बजाया था, आज खुद अपने परिवार को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं। कांग्रेस के विरोध में उन्होंने अपनी राजनीति चमकाई। यहां तक कि कांग्रेस की परिवार नियोजन योजना का भी विरोध किया और 9 बच्चे पैदा किए। जब चारा घोटाले में जेल जाने की नौबत आई, तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर राबड़ी देवी सीएम नहीं बनतीं, तो पार्टी टूट जाती।
रामविलास ने भी अपनाया लालू वाला रास्ता
सत्ता का स्वाद चखने से पहले कांग्रेस विरोधी लहर में रामविलास पासवान ने अपने भाषणों में अक्सर कहा करते थे कि रानी के पेट से राजा पैदा नहीं होता। लेकिन सत्ता में आने के बाद वे खुद अपने परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाने से नहीं चूके। संपूर्ण क्रांति से निकले पासवान ने अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की थी। लेकिन जब उनकी बारी आई, तो उन्होंने अपने भाई पशुपति पारस, रामचंद्र पासवान, मामा के परिवार हजारी फैमिली और फिर अगली पीढ़ी के चिराग पासवान और प्रिंस पासवान को राजनीति में उतारा। यह उनके उस कथन का विरोधाभास है, जिसमें उन्होंने परिवारवाद की राजनीति का विरोध किया था।
अब ‘बड़े भाई’ की डगर पर नीतीश कुमार
नीतीश कुमार अब तक परिवारवाद और ‘पति-पत्नी की सरकार’ का विरोध करते रहे हैं। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अब उनके सामने भी पार्टी बचाने की लालू वाली मजबूरी आन पड़ी है। उनके अनुसार सियासी हालात ऐसे हैं कि जहां निशांत कुमार जेडीयू के लिए जरूरी हो गए हैं, वहीं एनडीए की भी मजबूरी है कि उसके पास नीतीश कुमार जैसा कोई अन्य चेहरा मौजूद नहीं। जनता दल यूनाइटेड फिलहाल नीतीश कुमार के नेतृत्व में आगे बढ़ रहा है लेकिन पार्टी अब सेकंड लाइन लीडरशिप डेवलप करना चाहती है। इसी क्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पुत्र को आगे किया जा रहा है। अब तक राजनीति से तौबा करने वाले निशांत राजनेताओं से मिल रहे हैं और राजनीतिक मुद्दों पर बात कर रहे हैं। हाले के दिन जिस तरीके से विजय चौधरी और जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा के कंधे पर हाथ रखकर निशांत ने तस्वीरें खिंचवाई तथा NDA के रणनीतिकारों से अपील की कि पापा नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाए, इससे तो यही संकेत है कि उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी का आगाज कर दिया है।