नवादा : बिहार विधानसभा के नव-निर्वाचित अध्यक्ष डॉ. प्रेम कुमार को मगध की भूमि ने गढ़ा। यह वह भूमि है, जहां फल्गु के तट पर बहता हुआ समय केवल नदी-नालों की कहानी नहीं कहता, बल्कि आस्था, दर्शन और अनुशासन की एक दीर्घ परंपरा को आगे बढ़ाता है। विष्णुपद की सीढ़ियों पर चढ़ती भक्ति और प्रज्ञा की वह विरासत, जिसने गया को बुद्ध और विष्णु दोनों का धाम बनाया, आज भी इस शहर के जन-जीवन में संस्कार की तरह रची-बसी है। ऐसे आध्यात्मिक परिवेश की मिट्टी से उठकर जब कोई जननायक अपने कर्म और संयम से प्रतिष्ठा के शिखर तक पहुंचता है तो यह उपलब्धि किसी एक व्यक्ति की नहीं, पूरे क्षेत्र की होती है।
गया शहर से लगातार नौ बार विधायक चुना जाना सामान्य उपलब्धि नहीं। यह केवल चुनावी ग्राफ़ का स्थायी आरोह नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक मनोदशा, उसकी निष्ठा और उसकी आकांक्षा की एक विशिष्ट व्याख्या है। 1990 में पहली बार चुनाव जीतने के बाद डॉ. प्रेम कुमार ने जो यात्रा शुरू की, उसमें न अहंकार की आंच दिखी, न सत्ता का नशा। उनके व्यक्तित्व की सादगी, जनसरोकारों के प्रति उनकी सहज प्रतिबद्धता और जनता से सीधा संवाद, ये सब मिलकर उस विश्वास को निरंतर गाढ़ा करते रहे, जो गयाजी ने उन पर रखा। उनकी जीत को केवल जातीय समीकरणों के फ्रेम में कैद करना उनके प्रभाव की व्यापकता को छोटा करना होगा।
यह तथ्य सही है कि वे चंद्रवंशी समुदाय से आते हैं, जिसका इस क्षेत्र में उल्लेखनीय आधार है। किंतु प्रेम कुमार का सामाजिक आधार इससे कहीं व्यापक है। वे एक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने जाति के बने-बनाए घेरों से ऊपर उठकर सर्व समाज की स्वीकृति अर्जित की। उनके पास कोई तेवरों वाला भाषणबाज चेहरा नहीं है; बल्कि शांत, सुनने वाला, हर द्वार पर पहुंचने और हर पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने वाला स्वभाव है, जिसने उन्हें गया की सामाजिक बुनावट का नैसर्गिक हिस्सा बना दिया।
गया, जहां परंपरा और आधुनिकता का संतुलन अनवरत बहता रहता है। उसकी यह दोहरी धारा प्रेम कुमार के व्यक्तित्व में भी दिखती है। विष्णुपद की शाश्वतता और बुद्ध की करुणा दोनों का अद्भुत संगम उनकी राजनीतिक शैली में दिखता है। बिहार में स्वास्थ्य, शहरी विकास, कृषि और पर्यावरण जैसे विभागों का नेतृत्व करते हुए उन्होंने प्रशासन को केवल आदेश की नहीं, सेवा की भाषा दी। उनके काम में गया के आध्यात्मिक वातावरण की शांति भी झलकती है और संघर्षों को संवाद में बदल देने की क्षमता भी।
2015 का चुनाव बिहार की राजनीति का कठिन दौर था। महागठबंधन की तेज़ लहर में जहां बड़े-बड़े नाम बहे, वहीं प्रेम कुमार अपने जनाधार पर अडिग रहे। यह वही क्षण था जब गया की जनता ने फिर दिखाया कि उसके लिए नेता केवल दल का नहीं, भरोसे का होता है। यही भरोसा उन्हें नेता प्रतिपक्ष की गरिमामय भूमिका तक लेकर गया, क्योंकि जनता जानती थी कि संघर्ष में भी मर्यादा और असहमति में भी संवाद की परिपाटी का पालन वही नेता कर सकता है, जिसकी राजनीति केवल सत्ता पर केंद्रित न हो।
आज जब वे बिहार विधान सभा के 18वें अध्यक्ष बने हैं तो यह केवल एक संवैधानिक पद की प्राप्ति नहीं, बल्कि तीन दशक की तपस्या, संयम और नैतिक आचरण का पुरस्कार है। यह उस परंपरा का भी सम्मान है, जिसमें राजनीति को ‘करियर’ नहीं, ‘कर्तव्य’ माना जाता है। उनके सर्वसम्मति से निर्वाचन में उनकी सामाजिक स्वीकार्यता का स्पष्ट संदेश छिपा है कि प्रेम कुमार केवल एक दल या एक वर्ग के नेता नहीं, बल्कि बिहार की लोकतांत्रिक मर्यादाओं के एक नए संरक्षक के रूप में देखे जा रहे हैं।
उनकी यात्रा में जेपी आंदोलन से जुड़ाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है। यह संबंध उन्हें उस नैतिक धारा से जोड़ता है, जिसने भारतीय राजनीति में सिद्धांत, त्याग और चरित्र को केंद्र में रखा था। आज जब राजनीति में वैचारिक दृढ़ता दुर्लभ होती जा रही है, प्रेम कुमार का यह पारिवारिक-राजनीतिक संस्कार उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता है। वरिष्ठ पत्रकार सेराज अनवर का यह कथन सहज सत्य जैसा लगता है कि, “अपने शहर का कोई उच्च पद पर पहुंचे, तो गर्व होता है।” गयाजी ने पहले जीतनराम मांझी के रूप में मुख्यमंत्री दिया, उससे भी पहले बुद्ध और विष्णु जैसे युग-पुरुष दिए, सूफी पीर मंसूर दिए और अब विधानसभा अध्यक्ष। विचारधारा चाहे जो हो, लेकिन गया का गौरव अपनी जगह अडिग है।
आज जब प्रेम कुमार बिहार विधानमंडल की गरिमा और दिशा तय करने की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं तो यह उनके लिए सत्ता से अधिक दायित्व का समय है। जैसे फल्गु नदी सूखे में भी अपने भीतर जल को सहेजकर रखती है, उसी तरह उन्होंने भी अपनी लंबी राजनीतिक यात्रा में संवाद, संयम और सेवा को भीतर जिंदा रखा है। मगध की जनता ने जिस मिट्टी से उन्हें उठाया, वही अब पूरे बिहार के लोकतांत्रिक आंगन में मर्यादा की आधारशिला बन चुकी है।
भईया जी की रिपोर्ट