लोकआस्था के पर्व छठ को लेकर जनमानस में कई कथाएं प्रचलित हैं। सबके अपने-अपने दावे भी हैं। इस बारे में कोई निश्चित नहीं कहा जा सकता है। लेकिन, भाविष्योतर पुराण में महर्षि वैशम्पायन ने चक्रवर्ती सम्राट परीक्षित के पुत्र जन्मेजय की जिज्ञासा समाधान के लिए सतयुग से लेकर कलिकाल के प्रवेश तक की कुछ कथाएं सुनाई हैं। उन्हीं कथाओं में सूर्य और देवी षष्ठी की उपासना के महापर्व छठ के प्रारंभ से लेकर उसके विकास की यात्रा का एक मानक विवरण मिलता है।
परीक्षित पुत्र जन्मेजय और महर्षि वैशम्पायन वार्तालाप
परीक्षित के बाद कलिकाल व्याप्त हो गया। परीक्षित के धर्मात्मा पुत्र चक्रवर्ती राजा जन्मेजय को यह ज्ञात हो गया कि कलिकाल में प्रकृति अपनी गति बदलने वाली है जिसमें मानव जाति के समक्ष घोर संकट होंगे। उन संकटों के समाधान के लिए पुण्यात्मा राजा जनमेजय ने उस काल के ब्रह्मज्ञानी महर्षि वैशम्पायन से समाधान के उपाय पूछे। ऐसा उपाय जो अल्पकाल में संभव हो क्योंकि कलिकाल में मनुष्य की आयु कम होने वाली थी। भविष्योतर पुराण में परीक्षित पुत्र राजा जन्मेजय और वैशम्पायन ऋषि के बीच वार्तालाप के रूप में सतयुग से लेकर कलिकाल के प्ररंभ तक की कई कथाओं का वर्णन मिलता है जिनका संबंध सूर्य षष्ठी व्रत से है। कथा है कि पांचाली ने अपने व्यथा ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महर्षि धौम्य को सुनाते हुए उनसे इसका उपाय बताने की विनति की थी।
महर्षि च्यवन से जुड़ा षष्ठी व्रत का आख्यान
महर्षि वैशम्पायन ने जन्मेजय को छल पूर्वक द्युत में हरा दिए जाने के बाद पांडवों के वनवास और द्रौपदी सहित माता कुंती के अपरा कष्टों के वर्णन के क्रम में सतयुग की एक कथा सुनायी थी जो महर्षि च्यवन से जुड़ी हुई हैं। जो सूर्य षष्ठी व्रत की प्रामाणिक कथा मानी जाती है। कष्ट निवारण का मार्ग बताने के लिए ऋषि धौम्य ने द्रौपदी को सतयुग में शर्याति नामक राजा की कथा सुनाई। बहुत पुण्य के बाद राजा शर्याती को एकमात्र कन्या उत्पन्न हुई थी। अकेली सन्तान होने के कारण वह माता-पिता की अत्यन्त प्यारी थी। अत्यंत सुंदर होने के कारण उस का नाम सुकन्या पड़ा।
सुकन्या की नादानी और महर्षि च्यवन का क्रोध
एक समय राजा शर्याति अमोद-प्रमोद एवं शिकार के लिए अपने मंत्रियों, सेना और पुरोहित को साथ वन गए थे। उनके साथ उनकी पुत्री सुकन्या भी थी। वन के सुंदर फूल लेने के क्रम में वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गयी जहां एक मिट्टी के छोटे टिलानुमा स्थान से अद्भुत ज्योति निकल रही थी। सुकन्या उस ज्योति को देखकर आकर्षित हो गयी और उसे उस एक कांटे के सहारे मिटटी के ढेर से निकालने का प्रयास करने लगी। इसी बीच उस ज्योति वाले स्थान से रक्त का स्राव शुरू हो गया। इसे देखकर वह डर गयी और वापस अपने पिता के शिविर में भाग कर पहुंच गयी। वह मिटटी का ढेर नहीं बल्कि बहुत काल से तपस्या में रत महर्षि च्यवन थे। हजारों वर्षों से तपस्या में एक ही आसन पर बैठे रहने के कारण दीमक ने उनके शरीर पर मिट्टी का आवरण बना दिया था लेकिन उनके नेत्र से तेज निकल रहे थे। सुकन्या ने जब उनके नेत्रों में कांटा डाल दिया तब वे फूट गयीं और महर्षि च्यवन का ध्यान टूट गया। इसके कारण उन्हें अपार कष्ट होने लगा। महर्षि च्यवन के कष्ट व क्रोध के परिणाम स्वरूप राजा शर्याति और उनके साथ वहां गए सभी लोगों के मल-मूत्र अचानक अवरूद्ध हो गए और वे लोग दर्द से कराहने लगे। इसके बाद राजा शर्याति ने अपने पुरोहिता को बुलाया और इसका कारण पूछा। उनके पुरोहित ने दिव्य दृष्टि से देखकर बताया कि सुकन्या ने भूल से ऋषि च्यवन के आंखों को फोड़ दिया है जिसके परिणाम स्वरूप ऐसी स्थिति बनी है।
नाग कन्याओं ने सुकन्या को बताया छठ का विधान
राजा शर्याति अपने परिवार के साथ महर्षि च्यवन के पास गए और उनकी सेवा के लिए अपनी पुत्री को उन्हें दान दे दिया। अपना धर्म समझ कर शरीर से जर्जर महर्षि च्यवन की सुकन्या ने सेवा करनी शुरू की। एक दीन नाग कन्याएं महर्षि च्यवन के आश्रम के पास स्थित सरोवर में सूर्य षष्ठी व्रत करने पहुंची। वहां उन लोगों ने महर्षि च्यवन की सेवा में लगी सुकन्य को देखकर बहुत प्रभावित हुई। नाग कन्याओं ने उसे सूर्य षष्ठी व्रत का विधान बताया। उस व्रत के प्रभाव के कारण देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार उसके समक्ष प्रस्तुत हुए और महर्षि च्यवन का शरीर युवा हो गया था। सुकन्या को नागकन्या ने बताया कि यह श्रेष्ठ व्रत ऋषि कश्यप ने हमें बताया था अतः इस अवसर पर हम उनकी भी पूजन करेंगे।
सूर्य षष्ठी पूजा कैसे करें? हर विधान का अलग प्रभाव
सुकन्या ने नाग कन्याओं से आदर पूर्वक कहा कि ‘‘इस व्रत का और पूजा का क्या प्रभाव है? क्या फल है? इस पूजा की विधि क्या है? किस महीने और किस तिथि को यह उत्तम व्रत किया जाता है? मुझ पर कृपा कर आप मुझे विस्तार से बताएं। अत्यंत विनम्र और पतिव्रता सुकन्य के समक्ष नाग कन्याओं ने इस व्रत के सारे भेद खोल दिए।
सर्वमनोरथ सिद्धि के नियम और उपवास का तप
नागकन्या ने बताया- ‘‘कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सप्तमी युक्त होने पर सर्वमनोरथ सिद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। व्रती को चाहिये कि पंचमी के दिन नियम से व्रत को धारण करे। सन्ध्या काल में खीर का भोजन कर पृथ्वी पर सोये। षष्ठी (छठ) के दिन व्रत (उपवास) रहे। दिन में चार रंगों से सुशोभित मण्डप में सूर्यनारायण का पूजन करे और रात्रि में जागरण करे। अनेक प्रकार के फल और पकवान आदि के नैवेद्य चढ़ाये और सूर्यनारायण की प्रीति के लिए गीत-वाद्य आदि गा-बजाकर उत्सव मनाये। जब तक सूर्यनारायण का दर्शन न हो, तब तक व्रत धारण किये रहे। यह व्रत नदी या पवित्रसरोवरों के तट पर ही संभव है।
सूर्य देव के 12 नामों का जप और अर्घ्य का महत्व
प्रातःकाल सप्तमी को सूर्यनारायण के दर्शन कर अर्घ्य दे। दूध, नारियल, कदलीफल, पुष्प, चन्दन से सूर्य के बारह नामों के उच्चारण करते हुए प्रत्येक नाम से दण्डवत् प्रणाम करते हुए अर्घ्य दे। जगत के सविता, जगत के नेत्र, जगत के उत्पत्ति-पालन-नाश हेतु त्रिगुण रूप, त्रिगुणात्मक, ब्रह्मा, विष्णु, शिव रूप सूर्यनारायण को नमस्कार है! इस प्रकार इस व्रत के करने से सूर्यनारायण महाघोर कष्ट को दूर कर मनवांछित फल प्रदान करते हैं। हे सुव्रत! मैं ने यह रविषष्ठी व्रत तुम से कहा।’’
ऋषि धौम्य से द्रौपदी ने सीखा छठ व्रत का विधान
ऋषि धौम्य से कथा श्रवण करने के बाद द्रौपदी ने यह व्रत किया जिससे उसके कष्टों का निवारण हो गया। सूर्य षष्ठी व्रत को लेकर महर्षि कष्यप, राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी देवसेना की भी एक कथा प्रचलित है। ऐसा माना जाता है कि लंका विजय कर जब श्रीराम और सीता अवध लौटे थे तब कार्तिक शुक्ल षष्ठी सप्तमी को उन्होंने आदित्य षष्ठी व्रत का अनुष्ठान किया था। श्रीराम को महर्षि अगस्त ने इसका रहस्य बतलाया था।