स्वाधीनता के शताब्दी वर्ष यानी 2047 के पूर्व नरेंद्र मोदी भारत को विकसित देश बनाने का सपना देख रहे हैं। उनके इस सपने को पूरा करने में बहुत बड़ी बाधा वह तंत्र है, जो आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है। पूर्व की तुलना में उसमें भ्रष्टाचार का रोग और गंभीर हो गया है। नरेंद्र मोदी हार मानने वाले कहां है? उन्होंने अपने लक्ष्य के रास्ते में आने वाली बाधाओं को ही हटा देने का फैसला किया है। इसके तहत भारत के भ्रष्ट नौकरशाहों की एक सूची तैयार की गयी है। चार श्रेणियों में तैयार इस सूची के आधार पर कार्रवाई शुरु भी हो गयी है।
पटना में चला अधिकारी पर डंडा
हाल ही में इसकी झलक बिहार की राजधानी पटना में देखने को मिला जब आयकर विभाग के एक बड़े अधिकारी की गिरफ्तारी हुई। यह गिरफ्तारी सतत चलने वाली उसी कार्रवाई का एक उदाहरण मात्र है। उस अधिकारी की गिरफ्तारी का समाचार दबाने का प्रयास किया गया, लेकिन जब सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तब यह सबके सामने आ गया। राजधानी से प्रकाशित होने वाले अखबार ने यह खबर दूसरे दिना छापा। अखबार के संवाददाता ने सूत्रों के हवाले से उस खबर को एक दिन पूर्व ही लिख दिया था। लेकिन, दूसरे दिन खबर प्रकाशित नहीं हुई थी। बताया जाता है कि अधिकारियों के दबाव में ऐसा हुआ। सोशल मीडिया पर जब बात फैल गयी तब दूसरे दिन अखबार ने प्रथम पृष्ठ पर उसे स्थान दिया।
बिहार में तीन अधिकारी निशाने पर
सूत्रों पर यदि विश्वास करें तो पूरे देश में हजार करोड़ तक के बड़े घपलों को अंजाम देने वाले मामलों में 300 से अधिक बड़ेे अधिकारियों की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण हैं। बिहार और यूपी में भी ऐसे अधिकारियों की लंबी सूची है। बिहार में ऐसे तीन आईएएस अधिकारी हैं जो हवाला जैसे मामलों में बहुत जल्द फंस सकते हैं। इनकी काली कमाई का इन्वेस्टमेंट आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क जैसे देशों में है। इनकी गिरफ्तारी में गठबंधन की राजनीति भी आड़े आ रही है। लेकिन, पानी जब नाक से उपर आ जाता है तब कार्रवाई तो करनी ही पड़ती है। लालू यादव जैसे ताकतवर नेता भी बच नहीं सके थे।
पावर वाले साहेब भी पावर विहीन
भारत में यह प्रचलित कहावत है कि पावर तो डीएम, सीएम और पीएम के पास ही होता है। यह कहावत लोकतंत्र की खोखली स्थिति और प्रशासनिक तंत्र की औपनिवेशिक मानसिकता और चरित्र को दर्शाता है। दिल्ली से लेकर पटना तक राजनीतिक गलियारे में आज भी यह सुनने को मिल जाता है कि आईएएस अधिकारियों के सामने पालिटिकल लोग यानी मंत्रियों की एक नहीं चलती है। अधिकारियों के सामने अपना काम कराने के लिए वे दांत निपोरते हैं।
औपनिवेशिक मानसिकता वाला तंत्र कायम
यह सही है कि नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगी मंत्रियो पर लगाम तो लगा दिया लेकिन अंग्रेजों के जमाने से भारत का शासन संभालने वाले तंत्र की मानसिकता बदलने में वे अब तक कामयाब नहीं हो सके हैं। औपनिवेशिक मानसिकता वाले तंत्र का विकल्प तैयार करने के लिए ही उन्होंने लैटरल बहाली की योजना बनाई। लेकिन उसपर बवाल शुरू हो गया। यह कहा जा रहा है कि उस बावल के पीछे भी घाघ आईएएस लाबी है जिनकी पैठ विभिन्न राजनीतिक दलों में है।
क्या है इस तंत्र की मानसिकता
अंग्रेजों ने भारत के प्राकृतिक संसाधन और यहां के लोगों का निकृष्ट शोषण करने के लिए जिस प्रशासनिक तंत्र का निर्माण किया था वह आज भी जिंदा है। अंग्रेजों के जाने के बाद सरकार चलाने वाले चेहरे तो बदल गए लेकिन सरकार चालाने वाला तंत्र वहीं रहा। उसकी मानसिकता नहीं बदली। यहां तक कि उनके आदर्श और प्रतिमान भी नहीं बदले। आजादी के सात दशक बाद भी वह तंत्र भारत के नागरिकों को अपनी प्रजा ही मानती है। नीति व नियमों को ताक पर रखकर अपने लिए सुख-सुविधा की व्यवस्था करना, अधिनस्थों और सामान्य नागरिकों को प्रताड़ित कर अपने अहम की तुष्टि करना उनका स्वभाव है।
एन० डी० गोरेवाला रिपोर्ट की चर्चा भी जरूरी
स्वतंत्र भारत में प्रशासन की कार्यशैली पर एन.डी. गोरेवाला की रिपोर्ट की चर्चा जरूरी है। ‘लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन नाम से आई उस रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नहीं हो सकता। इस रिपोर्ट में यह भी बात सामने आई कि अधिकार की तुलना में जिम्मेदारी नहीं होने के कारण यह तंत्र निरंकुश, गैरजिम्मेदार और समंती व्यवस्था का पर्याय हो गया है। इसमें विशेषज्ञता विहीन एक व्यक्ति विशेषज्ञों का मार्गदर्शक बन बैठता है। भारत को यदि विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आना है तो उसे अंग्रेजों के बनाए इस तंत्र को हिंद महासागर में फेंकना होगा।
राजेंद्र बाबू का सुझाव नहीं आया था रास
आजादी के बाद गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर प्रशासनिक सुधार का सुझाव दिया था। इसके बाद नेहरू ने 1952 में प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए अमेरिकी विशेषज्ञ पॉल एपिलबी की नियुक्ति की थी। उन्होंने भारत में सर्वेक्षण कर लोक प्रशासन में सुधार के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए थे जिसमें विशेषज्ञों की भूमिका प्रमुख थी। वामपंथी रूझान वाले नेहरू को वह सुझाव शायद रास नहीं आए। उनके सुझाव पर कोई अमल नहीं हुआ, जड़ता जस-की-तस बनी रही।
प्रशासनिक सुधार आयोग में भी खानापूर्ति
इसके बाद 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बना। आयोग के सदस्य चार वर्षों तक ऐश—मौज करते रहे। वर्ष 1970 में अंतिम रिपोर्ट की खानापूर्ति कर दी गयी, लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसके लगभग 30 वर्ष बाद 2005 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया था। इसमें भी दबे जुबान से विशेषज्ञों को प्रशासनिक महकमें में शामिल करने की बात कही गयी। ऐसा माना जा सकता है कि ब्यूरोक्रेसी में लेटरल एंट्री का पहला स्पष्ट प्रस्ताव 2005 में आया था। लेकिन तब भी आईएएस लाबी के षड्यंत्र के कारण इसे सिरे से खारिज कर दिया गया। इसके बाद 2010 में दूसरे प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में भी इसकी अनुशंसा की गई थी, लेकिन इसे आगे बढ़ाने में समस्याएँ आने पर सरकार ने इससे हाथ खींच लिये।
एनडीए में शामिल पार्टियों का भी विरोध
2024 में नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत प्रधानमंत्री ने इस दिशा में कदम बढ़ाया तो राजनीतिक दलों से इसका विरोध कराया गया। यहां तक कि एनडीए में शामिल कुछ पार्टियों ने भी इसका विरोध कर दिया। मामला लटक गया है। लेकिन, मामला लटका नहीं रहेगा। भ्रष्टाचार में शामिल सैकड़ों काले अंग्रेजों के रात की नींद हराम होने वाली है। अंग्रेजों के काले शासन को स्वाधीन भारत में चलाने वाले भ्रष्ट आईएएस लॉबी के दिन अब लदने वाले हैं।