अभी हिंदी पखवाड़ा चल रहा है, तो हिंदी के बहाने अपनी-अपनी वैचारिकी का प्रसार करने वाले आयोजन भी हो रहे हैं। 20 सितंबर 2025 को पटना में ‘हिंदी राष्ट्रवाद का सफर’ विषय पर एक व्याख्यान हुआ। कथा सम्राट प्रेमचंद को पढ़ना हिंदी के हर विद्यार्थी के लिए एक आवश्यक अनुष्ठान की भांति है। उनके पोते व अंग्रेजी के प्राध्यपक प्रो. आलोक राय ‘हिंदी राष्ट्रवाद का सफर’ के मुख्य वक्ता थे। प्रेमचंद को पुस्तकों के माध्यम से जानने वाली वर्तमान पीढ़ी ने उनके पोते को सुनने उत्सुकता से पहुंची। ‘हिंदी राष्ट्रवाद का सफर’ पर व्याख्यान देते हुए आलोक राय ने कई सारी नई व अनोखी स्थापनाएं दर्शकों के सामने रखीं।
हिंदी बनाम मानक हिंदी का षड्यंत्र
इसी विषय पर रचित अपनी पुस्तक से उद्धरण देते हुए उन्होंने जन सामान्य वाली बरती जाने वाली हिंदी तथा मानक हिंदी में बड़ा अंतर बताया। उन्होंने कहा कि मानक हिंदी समाज पर थोपी गई चीज है। यह कि मानक हिंदी से सवर्ण-वर्चस्व का आग्रह ध्वनित होता है। सवर्ण-वर्चस्व वाली कोई भी चीज दलित विरोधी होती है, तो इसका भाव यही हुआ कि मानक हिंदी दलित विरोधी है। यह भी कि मनुवाद के कालबाह्य होने के बाद उसके आधुनिक विकल्प के रूप में मानक हिंदी को षड्यंत्र के तहत लाया गया है। यह भी कि मानक हिंदी से हिंदू राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त होता है। ये सारी मनगढंत बातें उन्होंने डेढ़ घंटे लंबे पूर्वाग्रह से भरे अपने व्याख्यान में कहीं।
शुद्ध हिंदी सुनकर ‘हवन की बू’!
इस बीच में हिंदी आंदोलन पर प्रकाश डालते हैं और हंटर आयोग से लेकर एंथनी मैकडॉनल की चर्चा करते हैं। फिर कहते हैं कि शुरू में नागरी लिपि के लिए आंदोलन हुए। महामना के समय तक नागरी ही थी, फिर बाद में इस नागरी को किसने षड्यंत्र कर देवनागरी बना दिया? आलोक राय को देवनागरी शब्द में ही षड्यंत्र दिखता है। उन्हें शुद्ध हिंदी बोलने की कितना कष्ट है, इसका उदाहरण देखिए। वे कहते हैं कि शुद्ध हिंदी सुनकर लगता है कि कहीं से ‘हवन की बू’ आ रही हो। ऐसे कटाक्षपूर्ण विशेषण का उपयोग वे ‘खालिस उर्दू’ या ‘मेटिक्यूलस इंग्लिश’ बोलने वालों के लिए नहीं करते हैं। यहां उनका दोहरा चरित्र उजागर होता है। प्रश्नोत्तर सत्र में दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को लेकर किए गए प्रश्न को वे बड़ी चतुराई से टाल जाते हैं और पुन: विषय को मानक हिंदी के विरोध को देशहित में आवश्यक बताने की ओर मोड़ देते हैं।
मानक हिंदी के विरोध की आड़ में…
आलोक राय यहीं नहीं रुकते। वे मानक हिंदी के विरोध में तीखा आंदोलन खड़ा करने का आह्वान करते हैं। उनके अनुसार बोलचाल वाली संकर हिंदी चलेगा, परंतु मानक हिंदी नहीं चाहिए। वस्तुत: आलोक जैसे बुद्धिजीवियों को हिंदी के मानकीकरण से समस्या है। हिंदी के संदर्भ में उन्हें जैसे ही थोड़ी सफलता प्राप्त होगी, वे संस्कृत अथवा अन्य किसी भारतीय भाषा के मानकीकरण के विरुद्ध मुहिम छेड़ देंगे। भाषा के मानकीकरण का विरोध करना असल में व्याकरण का विरोध है। सूक्ष्मता से देखें तो मानक हिंदी के विरोध की आड़ में यह किसी भी प्रकार के नियमबद्धता का विरोध है। नियमबद्धता के विरोध का ही दूसरा नाम अराजकता है। भाषा की नियमबद्धता को ये लोग यदि ध्वस्त करने में सफल हो जाते हैं, तो विधि के शासन से लेकर लोक परंपरा की नियमबद्धता को ध्वस्त करने में लग जाएंगे। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थायित्व को तोड़कर अराजकता में ढाल देना इनकी क्रांति के मूल में है। इनके वैचारिकी पीठों में प्रशिक्षण के दौरान इन्हें ‘अपहिवल थ्योरी’ के मंत्र से दीक्षित किया जाता है। आलोक राय उसी वैचारिकी से प्रशिक्षित हैं।
कॉमरेड की हत्या पर आधा सच
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक अपूर्वानंद ने इस कार्यक्रम में विषय प्रवेश कराया। कार्यक्रम क्योंकि छात्रनेता रहे कॉमरेड चंद्रशेखर पर था, तो उन्होंने उनकी हत्या की चर्चा करते हुए कहा कि जिन लोगों ने बिहार के सिवान जिले में कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या करायी वे असहमति की आवाज को दबाना चाहते थे और जो महौल उस समय सिवान में था, वही माहौल आजकल पूरे भारत में है। अपने वक्तव्य में अपूर्वानंद ने सुविधानुसार तथ्यों को छिपा लिया। सभी जानते हैं कि राजद के सांसद रहे मो. शहाबुद्दीन के कहने पर शेख और इलियास ने कॉमरेड चंद्रशेखर की हत्या की थी। हत्यारों के नाम लेने के बदले उसे धरे से ‘असहमति’ बोलकर वे निकल गए, जबकि आज भी भाकपा-माले की वेबसाइट पर मो. शहाबुद्दीन समेत हत्यारों के नाम लिखे हुए हैं। (स्क्रीनशॉट देखें) यानी अगर अपूर्वानंद की मानें तो सिवान में 90 के दशक में जो आतंक का माहौल मो. शहाबुद्दीन का था, वैसा ही आतंक का माहौल अभी पूरे देश में है। ऐसा आधा सच और मिथ्या प्रचार हिंदी के प्राध्यापक सरेआम करते हैं। संयोग ही है कि जहां यह जघन्य हत्याकांड हुआ, उसी सिवान की धरती से अपूर्वानंद भी आते हैं।

शुद्ध हिंदी का मतलब?
सुविधानुसार तथ्यों को मरोड़ देना, कल्पना को यथार्थ बना देना वामपंथियों की पुरानी आदत है। आलोक राय अथवा अपूर्वानंद इससे भिन्न नहीं हैं। वामपंथी पोर्टल ‘दि वायर’ पर अपूर्वानंद का हिंदी दिवस पर आलेख चस्पा है। उस आलेख को पढ़कर स्पष्ट होता है कि हिंदी के इस विद्वान प्रोफेसर को हिंदी से ही कितना द्वेष है (स्क्रीनशॉट देखें)। यहां भी वे अपने चातुर्य से आधा सच लिखकर निकल गए हैं। उदाहरण देखिए। अपूर्वानंद लिखते हैं— ”शुद्ध हिंदी का मतलब है उर्दू से मुक्त हिंदी. जैसे चावल से कंकड़ निकाले जाते हैं, वैसे ही हिंदी से उर्दू को चुन-चुनकर बाहर किया जाता है और उसका परिष्कार किया जाता है. परिष्कृत करने के लिए संस्कृत के शब्द ठूंस-ठूंस कर भरे जाते हैं.” यानी शुद्ध हिंदी के नाम पर उर्दू शब्दों को कंकड़ की भांति बाहर करना तथा संस्कृत शब्दों को ठूंसना कह रहे हैं। ध्यान दीजिए कि हिंदी का इतना प्रसिद्ध शिक्षक ठूंसना जैसा शब्द से काम चला रहा है, जबकि उनके पास शब्दों का भंडार है। लेकिन, वे कुशाग्र बुद्धि के हैं। अभिधा के बदले उन्होंने ‘ठूंस—ठूंस कर’ को लक्षणा में प्रयोग किया, ताकि शुद्ध हिंदी के लिए किए गए ‘बल प्रयोग’ पर पाठक का ध्यान जाए।

भाषाई मार्ग का एकतरफा यातायात
हां, तो अब उनके आधे सच पर आते हैं। शुद्ध हिंदी के लिए उर्दू शब्दों का निकाला जाना उन्हें खटकता है। लेकिन, खालिस उर्दूदां लोगों द्वारा शुद्ध उर्दू के नाम पर सहज हिंदी शब्दों के बजाए उनका अंग्रेजी पर्याय उपयोग करना नहीं खटकता है। जैसे उर्दू पत्रों में आयोग के बदले कमिशन, सदस्य के बदले मेंबर व उनका बहुचचन मेंबरान आदि का प्रयोग होता है। हिन्दुस्तानी बोली के वकीलों को उर्दू भाषियों की यह कट्टरता नहीं दिखती। आलोक या अपूर्वानंद जैसे लोग यह कभी नहीं कहेंगे कि हिंदी में जब फारसी—उर्दू समाहित है, तो उर्दू में शब्दों के अभाव में अंग्रेजी शब्द की जगह उसके प्रचलित हिंदी पर्यायों को बरतने में क्या परेशानी है? भाषाई मार्ग के इस एकतरफा यातायात उन्हें दिखायी नहीं देता है। जिस भारत भूमि पर हजारों वर्ष तक संस्कृत, पाली, पाकृत बोली गई, वहां इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा हठात्—बलात् फारसी थोपी गई। यहां तक कि जब भारत के लोकमानस ने फारसी को स्वाभाविक रूप से आत्मसात नहीं किया, तो विधिवत सरकारी भाषा बनाकर लोगों के कंठ में ठूंसा गया। आज भी भूमि से संबंधित लेख्य-पत्र फारसी शब्दों से दमकते है। इस भाषाई अतिक्रमण पर आलोक या अपूर्वानंद जैसे लोग योजनाबद्ध रूप से मौन साध लेते हैं।
हिंदी शिक्षक को हिंदी से ही परेशानी
यह विडंबना ही है कि हिंदी के प्राध्यापक को हिंदी दिवस मनाने पर भी परेशानी है। उसी आलेख में प्रोफेसर साहब लिखते हैं— ”बाहर का कोई हो तो इस मियादी राष्ट्रव्यापी हिंदी ज्वर को देखकर अचरज में पड़ जाए. आख़िर क्या तीर मारा था हिंदी ने 14 सितंबर को कि पूरा महीना ही उसके नाम कर दिया गया है? क्या बांग्लावालों की तरह अपनी भाषा के अधिकार के लिए कोई संघर्ष किया था, जान दी थी?” फिर आगे लिखते हैं— ”हर साल 14 सितंबर को सरकारी पैसे से इसकी याद दिलाई जाती है. यह दिवस भी याद न रहे अगर सरकारी कोष इसके लिए बंद हो जाए. भारत में किसी और भाषा का दिवस इस प्रकार मनाया जाता हो, इसका प्रमाण नहीं. एक ही भाषा का गुणगान करने के लिए क्यों भारत के सारे करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल हो? इससे हिंदी का गौरव कैसे बढ़ता है?” (लिंक देखें)
हिंदी को हिंदीवाद और राष्ट्रवाद से मुक्त किए बगैर भाषा का पुनर्वास असंभव
पूर्वाग्रह से भरे हिंदी शिक्षक के आलेख को पढ़ने के बाद हिंदी के प्रति द्वेष स्पष्ट दिखने लगता है। भारतवर्ष में हिंदी के ऐसे अनोखे शिक्षक हैं, जिन्हें हिंदी के गुणगान से कष्ट होता है। इनके अनुसार, करदाताओं के पैसे को हिंदी के प्रचार के लिए खर्च करना अनावश्यक है। हां, मोटे वेतन वाली प्रोफेसर की नौकरी करते हुए हिंदी का तिरस्कार करना इनके अनुसार आवश्यक है। संभवत: देश का यह एकमात्र उदाहरण होगा जहां सरकारी शिक्षण संस्थान में नौकरी करने वाला हिंदी का शिक्षक हिंदी को ही अपमानित करने वाला लेख लिखता है और सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। लोकतांत्रिक अधिकारों के ओवरडोज का इससे बेहतर उदाहरण कहीं और नहीं मिलेगा।