बच्चों के भगवान के रूप में जन-जन में विख्यात डा. लाला सूरजनंदन प्रसाद ने अपनी असाधारण मेधा से पटना मेडिकल कालेज की ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। उनका सम्पूर्ण जीवन चिकित्सा विज्ञान एवं सेवा के लिए समर्पित था। भारत जिस दिन स्वतंत्र हुआ था, उसी दिन वे इंग्लैंड से अध्ययन कर वापस भारत लौटे थे। उस दिन को याद करते हुए डा. लाला सूरज नंदन कहते थे कि भगवान ने मुझे आजाद भारत के भविष्य के स्वास्थ्य के लिए इस धरती पर भेजा है। वर्ष 1948 में उन्होंने पीएमसीएच में पेडियाट्रिक्स विभाग की स्थापना की थी।
प्रारंभिक स्कूली शिक्षा और एमबीबीएस
लाला सूरजनन्दन प्रसाद का जन्म 1 जनवरी 1915 को नालंदा जिले के सोहसराय में हुआ था। उनकी स्कूली शिक्षा दुमका जिला स्कूल, संथाल परगना में हुई। उस समय मैट्रिक की परीक्षा में वे पूरे भागलपुर कमिश्नरी में प्रथम स्थान पर रह थेे। इसके बाद एक मेधावी छात्र के रूप में उनकी ख्याति पूरे जिले में फैल गयी थी। उन्होंने वर्ष 1939 में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज, पटना से स्नातक किया। क्षय रोग में लिनलिथगो गोल्ड मेडल से सम्मानित लाला सूरजनन्दन वर्ष 1941 में सिविल असिस्टेंट सर्जन के रूप में राज्य चिकित्सा सेवा में शामिल हुए। वे वर्ष 1945 में यूके.चले गए। वहां एडिनबर्ग से एमआरसीपी और लंदन से डीसीएच की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने के बाद, वर्ष 1947 में 15 अगस्त को भारत वापस आ गए। यह एक अद्भुत संयोग था कि जिस दिन भारत आजाद हुआ उसी दिन वे विदेश से अपनी धरती पर पहुंचे थे। राजनीति के अजातशत्रु डा.राजेन्द्र प्रसाद के परिवार से उनकी नजदीकी थी।
1947 से जुड़ गया पीएमसीएच से नाता
भारत लौटने के बाद उन्होंने 1947 से पटना मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग में व्याख्याता, प्रोफेसर और निदेशक प्रोफेसर के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। विदेश के अपने अनुभव व प्रशिक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने पीएमसीएच में शिशु रोग विभाग की स्थापना का प्रयास किया। तत्कालीन सरकार ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए बहुत शीध्र 1948 में ही स्वतंत्र पैडियाट्रिक्स विभाग की स्थापना की अनुमति दे दी। इस प्रकार डा. लाला सूरजनन्दन प्रसाद को पीएमसीएच के पेडियाट्रिक्स विभाग का संस्थापक माना जाता है। यहां वे दिसंबर 1972 तक कार्यरत रहे। मार्च 1973 में उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज में शिशु रोग के एमेरिटस प्रोफेसर और 1973 में राजेंद्र मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना के मानद निदेशक नियुक्त किया गया। डॉ. प्रसाद को 1964 में रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन, एडिनबर्ग और 1971 में नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज की फेलोशिप से सम्मानित किया गया। उन्हें 1964 में अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स और 1978 में इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स की मानद फेलोशिप से भी सम्मानित किया गया। वे 1964 में स्थापित इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के संस्थापक अध्यक्ष रहे और 1977 में नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज और नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन के उपाध्यक्ष भी रहे। वे दो कार्यकालों के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की बिहार राज्य शाखा के अध्यक्ष चुने गए थे। 1956 में इंडियन पीडियाट्रिक सोसाइटीय डीन, मेडिसिन संकाय, मगध विश्वविद्यालय, गया भी रहे।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सहभागिता
डॉ. लाला सूरजनन्दन ने 1958 में सिंगापुर में प्रथम एशियाई क्षेत्रीय बाल चिकित्सा कांग्रेस में भारतीय बाल रोग विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व किया और 1961 में नई दिल्ली में आयोजित प्रथम अखिल एशियाई बाल चिकित्सा कांग्रेस की आयोजन समिति के अध्यक्ष थे। 1965 में टोक्यो में बाल चिकित्सा की ग्यारहवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस, 1968 में मैक्सिको, 1971 में वियना और 1967 में ग्ट पोलिश बाल चिकित्सा कांग्रेस, 1968 में टप् मध्य पूर्वी भूमध्यसागरीय बाल चिकित्सा कांग्रेस, एथेंस में भाग लिया। 1970 में तेहरान, 1970 में बाल चिकित्सा गैस्ट्रोएंटरोलॉजी (स्वीडन) के लिए यूरोपीय सोसायटी की तीसरी वार्षिक बैठक, 1970 में स्टॉकहोम में बाल चिकित्सा अनुसंधान के लिए यूरोपीय सोसायटी की वार्षिक बैठक, 1973 में मनीला में बाल चिकित्सा की अखिल भारतीय कांग्रेस, 1976 में इंडोनेशिया, 1974 में बैंकॉक और 1974 में ही अर्जेंटीना में बाल चिकित्सा की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस, 1977 में नई दिल्ली, 1983 में मनीला, प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण पर 1971 में वियना में ग्प्प्प् अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस ऑफ पीडियाट्रिक्स में शोध किया।
सृजनात्मक उपलब्धियां
डॉ. लाला सूरजनन्दन ने कई पुस्तकों का संपादन किया है, जिनमें मैनुअल ऑफ पीडियाट्रिक्स (ॅभ्व्) 1973, टेक्स्ट बुक ऑफ पीडियाट्रिक्स 1976 और पीडियाट्रिक प्रॉब्लम्स इन साउथ-ईस्ट एशिया, 1977, थ्योरी एंड प्रैक्टिस ऑफ फैमिली प्लानिंग एंड वेलफेयर 1977, पीडियाट्रिक प्रॉब्लम्स 1982य और एडवांस इन पीडियाट्रिक्स 1989 शामिल हैं, जिन्हें अंग्रेजी चिकित्सा पुस्तकों की श्रेणी में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने 51 मूल शोध पत्र प्रकाशित किए हैं।
कालाजार, जिंक और सेलेनियम पर शोध कार्य
वे लंबे समय तक काला-अजार पर शोध से जुड़े रहे और उन्होंने कई शोध पत्र प्रकाशित किए हैं जो प्रमुख राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में भी काम किया। उनका मानना था कि बच्चों के स्वास्थ्य के लिए हवा-पानी का स्वच्छ रहना जरूरी है। पीएमसीएच से अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वे बाल रोगों के बारे में शोध से जुड़े रहे। अपने पास उपचार के लिए आने वाले प्रत्येक बच्चे का परीक्षण वे अत्यंत गहनता से करते थे और उसका पूरा ब्योरा भी वे स्वयं तैयार करते थे। यही कारण था कि उन्होंने अवकाश ग्रहण करने के बाद भी बाल चिकित्सा के लिए उपयोगी पुस्तक व आलेख दे सके। उनके आलेख पूरे विश्व में महत्वपूर्ण सदर्भ के रूप में जाने जाते थे। उन्हें 1974 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। सचमुच वे पटना मेडिकल कालेज के गौरवशाली इतिहास के एक स्वर्णीम अध्याय थे। भारत सरकार ने उन्हें यह सम्मान देकर चिकित्सा शोध के क्षेत्र में काम करने वालों को सम्मानित किया था।