भारत के संविधान की यात्रा कथा बहुत रोचक है। कौतूहल और जिज्ञासा मिश्रित विस्मय से भरा हुआ। आसमान में भारत विभाजन के काले बादल मंडरा रहे थे। वहीं भारत की राजधानी दिल्ली हड्डियों को कंपा देने वाली कड़ाके की सर्दी से त्रस्त थी। यह भारत की राजनीति के संक्रमण काल 1946 के दिसंबर महीने की बात है। संविधान सभा के लिए चुनाव महीनों पहले हो गए थे। उसे अखंड भारत का संविधान बनाना था। लेकिन अब संविधान सभा को खंडित भारत के लिए संविधान बनाना था।
विपरित माहौल और संविधान सभा की चुनौतियां
वायसराय लार्ड वेवल का निमंत्रण पाकर विपरीत मौसम से बेपरवाह स्वाधीनता सेनानी दिल्ली पहुंचे। उनमें भारत के भाग्यविधाता का भाव था। उन लोगों ने संविधान सभा को आकार दिया। वे ही हमारे संविधान निर्माता बने। उनका कार्य चुनौतीपूर्ण था। जवाहरलाल नेहरू तब विस्मय में थे। उन्हें तब यही सूझा और वे बोले कि हो सकता है दिन मेघाच्छन्न हों, पर हैं तो आखिर दिन, इसलिए बादल फटने पर दिन अवश्य निकलेगा।
औपनिवेशिक ठप्पे से अलग होने की जिम्मेदारी
अंग्रेजों से लड़ते हुए कांग्रेस ने माना कि संविधान अभियान की तार्किक परिणति संविधान सभा में हुई है। वह इसे इतिहास प्रदत्त दायित्व समझती थी। लेकिन इससे अलग भी कुछ मत हैं। एक मत यह है कि भारत में संविधानवाद ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है। अंग्रेजों ने उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को धीमा करने के लक्ष्य से इसे बढ़ाया। जिसमें कांग्रेस फंसती चली गई। दूसरा मत यह है कि संविधान की मांग से स्वतंत्रता की राह आसान हुई। उस पर चलने और मंजिल पर पहुंचने में संविधान अभियान सहायक बना। आज एक तीसरा दृष्टिकोण प्रखरता से सामने आया है कि संविधान पर औपनिवेशिक प्रभाव बहुत अधिक है।
गोलमेज की विफलता ने दिखाया रास्ता
महात्मा गांधी संविधान की औपनिवेशिक अवधारणा के विरोध में थे। इसीलिए वे कांग्रेस की मांग पर तटस्थ रहते थे। वे स्वराज्य की अपनी मूल अवधारणा को ही समझाने और कांग्रेस के गले उतारने का अपने ढंग से प्रयास करते रहते थे। लेकिन गोलमेज सम्मेलनों की विफलता से कांग्रेस ने निष्कर्ष निकाला कि उसे संविधान की राह पर बढ़ना है। ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों के नए मोड़ पर महात्मा गांधी ने भी अनुभव किया कि संविधान की राह से आजादी के लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है। उन्होंने अपनी अवधारणा बदली। यह बात 1937 की है। महात्मा गांधी ने अनुभव किया कि कांग्रेस मृतप्राय हो गयी है। उसमें भविष्य के प्रति उत्साह नहीं दिख रहा है। नेतृत्व में थकान है। निराशा है। उससे कांग्रेस को बचाने के लिए उन्होंने अपनी राह बदली। विचार बदले। रणनीति बदली।
सांप्रदायिक समस्या, देशज प्रकृति और लोकइच्छा
इस तरह महात्मा गांधी ने संविधान के लिए तीन कसौटियां सुनिश्चित की। एक, सांप्रदायिक समस्या का निवारण। दो, देशज प्रकृति और तीन, लोकइच्छा। 1934 के बाद 1936 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में संविधान सभा की मांग को सुविचारित रूपरेखा दी। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए संविधान सभा का निर्माण चाहती है। जिसे वयस्क मतदाता चुनेंगे। गांधी और नेहरू से हरी झंडी मिलने पर कांग्रेस कार्यसमिति ने संविधान सभा के लिए 1939 में दूसरी बार प्रस्ताव पारित किया। संविधान सभा ब्रिटिश योजना में बनी। वह परोक्ष निर्वाचन से बनी। सीमित मताधिकार से चुनी गई विधान सभाओं ने संविधान सभा के सदस्यों को चुना। उस संविधान सभा में महात्मा गांधी के रहने का कोई सवाल नहीं उठता। उससे बाहर रहकर वे परामर्श के लिए उपलब्ध अवश्य थे।
संविधान सभा में योग्य और उचित लोगों की एंट्री
उनकी सलाह पर ही पत्रकार बी. शिवाराव संविधान सभा के सदस्य बनाए गए। इसी तरह दूसरी बार डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान सभा में गांधीजी के हस्तक्षेप से ही पहुंचे। जब संविधान सभा के लिए निर्वाचन हुए तो डा. भीमराव अंबेडकर सिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से और मुस्लिम लीग के समर्थन से बंगाल से निर्वाचित हुए थे क्योंकि मुंबई विधान सभा में उनकी संस्था को एक भी स्थान नहीं मिला था। विभाजन के पश्चात उनकी सदस्यता समाप्त हो गई। गांधीजी के हस्तक्षेप से तब डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने मुंबई के मुख्य मंत्री बी.जी. खेर को लिखा कि एम.आर. जयकर के त्यागपत्र से जो स्थान रिक्त हुआ है उस पर डॉ. अंबेडकर को निर्वाचित कराना है। इस तरह वे दूसरी बार 22 जुलाई, 1947 को संविधान सभा के सदस्य बने।
ब्रिटिश सरकार की शर्तों का बंधन या मजबूरी
पर यह सवाल हमेशा ही पूछा जाएगा कि क्या गांधीजी की कसौटियों पर संविधान सभा ने काम किया? क्या कांग्रेस के नेताओं ने संविधान सभा के बनते वक्त उनकी सलाह मानी? क्या ब्रिटिश सरकार के पास संविधान सभा संबंधी शर्तों को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था? यह सर्वविदित है कि संविधान सभा कैबिनेट मिशन की योजना से जन्मी थी, जबकि संविधान जनता के निर्णय से बनता है। उसे शासक से छीनकर बनाया जाता है। यहां विपरीत उदाहरण देख महात्मा गांधी ने कांग्रेस नेताओं को सलाह दी कि वे वायसराय के निमंत्रण को अस्वीकार करें। उस समय की परिस्थितियों में वह सलाह पूरी तरह सही थी।
कांग्रेस द्वारा गांधी जी की सलाह की उपेक्षा
यह बात 3 दिसंबर, 1946 की है। महात्मा गांधी नोआखाली में थे। उन्होंने श्रीरामपुर में एक नोट लिखा कि यह संविधान सभा तो ब्रिटिश सरकार की बनाई हुई है। 10 यह जिन शर्तों पर बनाई गई है उसमें मुस्लिम लीग, कांग्रेस और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों का शामिल होना जरूरी है। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया है। उसी तरह रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा से दूर रहे। ये उन शर्तों को तोड़ते थे जो संविधान की योजना के आधार थे। इसलिए महात्मा गांधी ने अपने नोट में सरदार पटेल को लिखा कि अगर इनके बहिष्कार के बावजूद सरकार संविधान सभा बुलाना चाहती है तो उसे कांग्रेस के साथ नया समझौता करना चाहिए। यह थी उनकी सलाह। इसके बाद उन्होंने यह सलाह भी दी कि सरकार अगर कांग्रेस के साथ अलग समझौता नही करती तो उसे संविधान सभा में नहीं जाना चाहिए। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व गांधीजी का तर्क सुनने के लिए तैयार नहीं था।