डॉ. स्वीटी कुमारी
समाज सेविका व सामाजिक विश्लेषक
बीसवीं सदी का आरंभिक भारत एक गहन वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक मंथन के दौर से गुजर रहा था। यह एक ऐसा युग था जब स्वतंत्रता संग्राम की धाराएं विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित हो रही थीं, सामाजिक सुधारों की बहसें तीव्र थीं और ‘राष्ट्र’ की परिभाषा को लेकर विविध दृष्टिकोण टकरा रहे थे। इसी उथल-पुथल भरे परिदृश्य में डा. केशव बलिराम हेडगेवार की राष्ट्रोन्मुख सोच का उदय हुआ। उनकी विचारधारा किसी शून्य में उत्पन्न नहीं हुई, बल्कि यह तत्कालीन राष्ट्रीय धाराओं, क्रांतिकारी आंदोलनों और मुख्यधारा के स्वतंत्रता संग्राम की अपूर्णता के प्रति एक सीधी प्रतिक्रिया थी। उनकी सोच को समझने के लिए उस युग की जटिलताओं को समझना अनिवार्य है, जिसने उनके विचारों को आकार दिया और उन्हें एक वैकल्पिक मार्ग खोजने के लिए प्रेरित किया।
डा. हेडगेवार का जन्म 1889 में हुआ था, जो उन्हें उस पीढ़ी में स्थापित करता है जो स्वतंत्रता संग्राम के सबसे गहन दौर के बीच वयस्क हुई। यह वह समय था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व था, लेकिन साथ ही बंगाल और महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन भी अपनी जड़ें जमा रहे थे। समाज सुधारक जाति-प्रथा, महिला शिक्षा और अन्य सामाजिक कुरीतियों पर बहस कर रहे थे। राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक पुनर्जागरण के ये दोहरे सूत्र भारतीय विमर्श पर हावी थे। इसी परिवेश ने डॉ. हेडगेवार के युवा मन पर गहरा प्रभाव डाला और उनके भविष्य के मार्ग की नींव रखी।
डा. हेडगेवार के राष्ट्रवादी विचारों की जड़ें उनके छात्र जीवन से ही गहरी थीं। नागपुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ‘वंदे मातरम’ गाने के कारण उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया गया, जो ब्रिटिश शासन के प्रति उनके विद्रोही स्वभाव का प्रारंभिक प्रमाण था। उच्च शिक्षा के लिए जब वे कलकत्ता गए, जो उस समय क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का गढ़ था, तो वे अनुशीलन समिति जैसे प्रमुख क्रांतिकारी संगठनों के संपर्क में आए। यह केवल एक युवा उत्साह नहीं था, बल्कि एक ऐसा अनुभव था जिसने उनमें अनुशासन, संगठन और आत्म-बलिदान के मूल्यों को गहराई से स्थापित किया। इन क्रांतिकारी गतिविधियों ने उन्हें यह सिखाया कि केवल भावनाएं पर्याप्त नहीं होतीं, बल्कि एक संगठित और अनुशासित शक्ति के बिना कोई भी संघर्ष सफल नहीं हो सकता।
क्रांतिकारी मार्ग की सीमाओं को महसूस करते हुए, डा. हेडगेवार ने मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेने का निर्णय लिया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए और सक्रिय रूप से काम किया। इसी बीच 1919-1924 का खिलाफत आंदोलन उनके लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। उन्होंने देखा कि कांग्रेस द्वारा तुर्की के खलीफा के पद को बचाने के लिए चलाए गए इस आंदोलन ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के बजाय सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा कर दिया। आंदोलन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों ने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि राजनीतिक लक्ष्यों के लिए धार्मिक भावनाओं का उपयोग करना राष्ट्रीय एकता के लिए घातक था। उन्हें यह महसूस हुआ कि कांग्रेस की नीतियां सतही राजनीतिक समझौतों पर आधारित थीं और वे समाज की अंतर्निहित कमजोरियों को दूर करने में विफल रहीं।
यह मोहभंग एक गहन पुनर्विचार का कारण बना। डा. हेडगेवार का वैचारिक विकास एक विशिष्ट प्रक्षेपवक्र को दर्शाता है। पहले क्रांतिकारी कार्रवाई, फिर मुख्यधारा की राजनीतिक भागीदारी, और अंततः दोनों से मोहभंग होकर एक वैकल्पिक, सांस्कृतिक रूप से निहित मार्ग की खोज। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि समस्या स्वतंत्रता के लक्ष्य में नहीं, बल्कि उसे प्राप्त करने की विधि और नींव में थी। न तो गुप्त हिंसा और न ही शीर्ष-स्तरीय राजनीतिक सौदेबाजी तब तक सफल हो सकती है, जब तक कि समाज की आंतरिक दुर्बलता, विघटन और आत्म-विस्मृति की मूलभूत समस्या का समाधान नहीं कर लिया जाता। इसी निष्कर्ष ने उन्हें एक ऐसे संगठन की स्थापना के लिए प्रेरित किया जो राजनीति से दूर रहकर चरित्र-निर्माण और समाज-संगठन पर ध्यान केंद्रित करे।
भारत का सौभाग्य गहरे अंधकार से बाहर निकल रहा था। उसी कालखंड में वर्ष 1989 में नागपुर में डा.हेडगेवार का जन्म हुआ। उधर तीरथराज प्रयाग की भूमि पर उसी वर्ष भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी जन्म हुआ था।
डा. हेडगेवार के व्यक्तिगत और वैचारिक विकास को उनके समय की प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़कर विधाता भविष्य के महान इतिहास के बारे में सेकेत दे रहे थे। खिलाफत आंदोलन के पतन (1922-24) के ठीक बाद नागपुर में 1925 मंे आरएसएस की स्थापना से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि विशिष्ट घटनाओं के प्रति एक सुविचारित प्रतिक्रिया थी।
डा. हेडगेवार के राष्ट्रोन्मुख विचार का दार्शनिक मर्म ‘राष्ट्र’ की उनकी अनूठी संकल्पना में निहित है। उनके लिए राष्ट्र केवल एक आधुनिक राजनीतिक निर्माण या भौगोलिक इकाई नहीं था, बल्कि एक प्राचीन, जीवंत और सभ्यतागत यथार्थ था, जो एक साझा सांस्कृतिक चेतना (चिति) द्वारा परिभाषित होता है। उनके चिंतन में ‘राष्ट्र’ (शाश्वत, सांस्कृतिक राष्ट्र) और ‘राज्य’ (अस्थायी, राजनीतिक सत्ता) के बीच एक स्पष्ट और मौलिक भेद है। यह भेद उनके द्वारा स्थापित संगठन के मूल ‘अराजनीतिक’ चरित्र को समझने के लिए सर्वोपरि है। उनके अनुसार, भारत एक ‘प्राचीन राष्ट्र’ है, न कि कोई ऐसा राष्ट्र जिसे बनाया जा रहा हो। राष्ट्र अपनी संस्कृति, परंपराओं और लोगों के साथ अनादि काल से अस्तित्व में है। इसके विपरीत, ’राज्य’ या सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। वे केवल राष्ट्र की इच्छा को व्यक्त करने का एक साधन मात्र हैं। राष्ट्र का अस्तित्व किसी भी राज्य या शासन प्रणाली से स्वतंत्र और श्रेष्ठ है।
‘चिति’ और ‘हिंदुत्व’ राष्ट्र की आत्मा
डा. हेडगेवार का मानना था कि भारतीय राष्ट्र एक सामान्य सांस्कृतिक-आध्यात्मिक सार से बंधा हुआ है, जिसे उन्होंने ‘हिंदुत्व’ या ‘हिदू-पन’ के रूप में पहचाना। उनके लिए, यह केवल एक पूजा-पद्धति या धर्म नहीं था, बल्कि एक संपूर्ण जीवन-दृष्टि थी, जिसमें इस भूमि पर विकसित हुए सभी दर्शन, मूल्य और जीवन-पद्धतियां शामिल थीं। भारत राष्ट्र की पहचान उसकी ‘सनातन संस्कृति और जीवन मूल्यों’ से अविभाज्य रूप से जुड़ी हुई है। यही सांस्कृतिक आधार, जिसे ‘चिति’ या राष्ट्र की आत्मा कहा जा सकता है, देश के विभिन्न समुदायों को एक सूत्र में पिरोता है। राष्ट्र का मूल आधार ‘अपने देश की संस्कृति और लोग’ हैं।
उनकी दृष्टि में ‘अखंड भारत’ की कल्पना केवल एक राजनीतिक आकांक्षा नहीं थी, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप की अंतर्निहित सांस्कृतिक एकता में एक गहरा विश्वास था। हिमालय से लेकर महासागर तक की यह भूमि एक अविभाज्य सांस्कृतिक इकाई थी। उनका ध्यान उन सभी निवासियों के बीच एकता और अपनेपन की भावना को बढ़ावा देने पर था जो इस साझा सभ्यतागत विरासत से अपनी पहचान जोड़ते थे।
औपनिवेषिक नैरेटिव का प्रतिकार
डा. हेडगेवार की ‘राष्ट्र’ की यह संकल्पना अपने बौद्धिक ताने-बाने में मूलतः उपनिवेशवाद-विरोधी है। औपनिवेशिक इतिहासकारों ने अक्सर यह नैरेटिव गढ़ा कि भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं, बल्कि यह केवल एक भौगोलिक अभिव्यक्ति या विभिन्न समुदायों का एक बिखरा हुआ समूह था जिसे केवल ब्रिटिश शासन ने एकीकृत किया। इसके विपरीत, डा. हेडगेवार का भारत को एक ‘प्राचीन राष्ट्र’ और ‘सनातन संस्कृति’ पर आधारित बताने पर निरंतर जोर देना इस औपनिवेशिक नैरेटिव का सीधा बौद्धिक प्रतिकार था। इस दृष्टिकोण से, उनका उद्देश्य केवल अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता (राज्य) प्राप्त करना नहीं था, बल्कि एक अधिक गहन ‘सभ्यतागत वि-उपनिवेशीकरण’ प्राप्त करना था। यह राष्ट्र की एक स्वदेशी परिभाषा को पुनः प्राप्त करने और उसे पुनः स्थापित करने का एक प्रयास था, जो भारतीय मानस और उसकी आत्म-छवि को औपनिवेशिक प्रभावों से मुक्त कर सके।
महात्मा गांधी और सावरकर जैसे उस कालखंड के प्रमुख चिंतकों को सामने रखकर जब सावरकर के वैचारिक अधिष्ठान और कार्यपद्धति पर विचार करते हैं तो वैसे सूक्ष्म भेद स्पष्ट नजर आने लगते हैं जिसकी अनदेखी होती रही है। सावरकर का ध्यान मुख्य रूप से राज्य सत्ता पर कब्जा करने पर था, वहीं हेडगेवार का पूरा जोर ‘व्यक्ति निर्माण’ और एक दीर्घकालिक सांस्कृतिक परियोजना के माध्यम से समाज को बदलने पर था। इसी तरह, उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद गांधी के समन्वयवादी, आस्था-आधारित राष्ट्रवाद से भिन्न था। यह दर्शाता है कि ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ कोई एकाश्मक विचारधारा नहीं थी, बल्कि इसमें रणनीति और प्राथमिकता को लेकर महत्वपूर्ण आंतरिक भिन्नताएं थीं।
डा. हेडगेवार का मानना था कि भारत की पराधीनता का मूल कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं, बल्कि हिन्दू समाज की आंतरिक कमजोरियां थीं। उनका निदान मुख्य रूप से आत्म-विश्लेषणात्मक था, जो बाहरी दुश्मन के बजाय समाज की अपनी दुर्बलताओं पर केंद्रित था। उन्होंने तर्क दिया कि एक संगठित और शक्तिशाली समाज को कोई भी बाहरी शक्ति लंबे समय तक गुलाम नहीं बना सकती।
उनके विश्लेषण में, हिंदू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी उसका आंतरिक विघटन था, विशेष रूप से जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता। उन्होंने ‘आपसी फूट, जातिगत भेदभाव, और अनुशासनहीनता’ को राष्ट्र के पतन का मुख्य कारण माना। उनका मानना था कि इन विभाजनों ने समाज को भीतर से खोखला कर दिया था, जिससे यह विदेशी आक्रमणकारियों के सामने कमजोर पड़ गया। एक ऐसा समाज जो स्वयं अपने ही भीतर विभाजित हो, वह कभी भी एकजुट होकर बाहरी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता। यह एक आत्म-प्रदत्त घाव था जिसने सदियों की गुलामी का मार्ग प्रशस्त किया।
सदियों की पराधीनता का एक और गंभीर परिणाम था-आत्मविस्मृति। डा. हेडगेवार का मानना था कि हिन्दू समाज अपने गौरवशाली इतिहास, अपनी उपलब्धियों और अपनी अंतर्निहित शक्ति को भूल चुका है। इस आत्म-विस्मृति ने एक ‘मनोवैज्ञानिक कमजोरी’ या दासता की मानसिकता को जन्म दिया। लोग अपनी राष्ट्रीय पहचान के प्रति उदासीन हो गए थे और उनमें सामूहिक चेतना का अभाव था। इसलिए, उनका एक प्रमुख उद्देश्य इस सोई हुई ‘राष्ट्रीय चेतना’ को फिर से जगाना था।
संगठन की शक्ति
अपने राजनीतिक और क्रांतिकारी अनुभवों से डा. हेडगेवार ने यह निष्कर्ष निकाला कि हिन्दू समाज, अपनी विशाल संख्या के बावजूद, कमजोर था क्योंकि वह असंगठित और अनुशासनहीन था। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘संगठन में ही शक्ति है’। व्यक्तिगत वीरता के कई उदाहरण होने के बावजूद, एक संगठित और अनुशासित सामूहिक चरित्र की कमी एक महत्वपूर्ण विफलता थी जिसे तत्काल ठीक करने की आवश्यकता थी।
डॉ. हेडगेवार के इस निदान ने राष्ट्रवादी समस्या-कथन को मौलिक रूप से बदल दिया। उनके कई समकालीनों के लिए, समस्या ‘अंग्रेज’ थे। लेकिन, हेडगेवार के लिए, समस्या ‘हम’ यानी हिन्दू समाज की आंतरिक स्थिति थे। अंग्रेज इस गहरी बीमारी का केवल एक लक्षण थे। इस दृष्टिकोण का एक गहरा निहितार्थ था कि यदि अंग्रेज चले भी जाते, तो एक कमजोर और विभाजित समाज या तो किसी अन्य शक्ति द्वारा जीत लिया जाता या आंतरिक कलह में ढह जाता। इसलिए, उनका प्राथमिक लक्ष्य ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन नहीं, बल्कि समाज का पुनर्निर्माण था। यह बताता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शुरुआती दशकों में प्रत्यक्ष स्वतंत्रता संग्राम से अलग क्यों रहा। एक ऐसा बिंदु जिस पर तब और आज भी बहुत राजनीतिक बहस होती है। उनका ध्यान बीमारी के इलाज पर था, न कि केवल लक्षण पर। समाज की समस्याओं के निदान के लिए डा. हेडगेवार ने एक व्यावहारिक और दीर्घकालिक समाधान प्रस्तुत किया। वह समाधान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में सामने आया। 1925 में विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना किसी तात्कालिक राजनीतिक प्रतिक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिए एक सदियों लंबे दृष्टिकोण के साथ की गई थी। यह उनके उस विश्वास का मूर्त रूप था कि एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण मजबूत व्यक्तियों के निर्माण से ही संभव है।
संघ की स्थापना
संघ की स्थापना डा. हेडगेवार की हिंदू समाज को संगठित करने के लिए एक प्रभावी पद्धति की लंबी खोज का परिणाम थी। उन्होंने इसे एक धीमी, धैर्यवान और जमीनी स्तर की प्रक्रिया के रूप में डिजाइन किया, जिसका उद्देश्य भाषणों या प्रस्तावों के माध्यम से नहीं, बल्कि दैनिक अभ्यास के माध्यम से समाज के ताने-बाने को बदलना था। डा. हेडगेवार के समाधान का मूल तत्व ‘व्यक्ति निर्माण’ (चरित्र-निर्माण) की अवधारणा थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि एक मजबूत राष्ट्र केवल नैतिक रूप से मजबूत, अनुशासित और राष्ट्र के प्रति निस्वार्थ रूप से समर्पित व्यक्तियों द्वारा ही बनाया जा सकता है। अंतिम लक्ष्य एक ‘सुसंगठित और अनुशासित समाज’ का निर्माण करना था, और इसकी शुरुआत व्यक्ति के परिवर्तन से होनी थी। यह एक ऐसा दृष्टिकोण था जो राजनीतिक क्रांति के बजाय सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को प्राथमिकता देता था।
‘व्यक्ति निर्माण’ के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए डा. हेडगेवार ने ‘शाखा’ (दैनिक रचनात्मक मिलन) को मुख्य साधन के रूप में विकसित किया। शाखा संगठन की मूल ‘इकाई’ के रूप में विकसित की गयी। यह केवल एक सभा नहीं, बल्कि एक सामाजिक तकनीक थी जिसे दैनिक, अनुष्ठानिक दिनचर्या के माध्यम से अनुशासन, सौहार्द, शारीरिक क्षमता विकास और वैचारिक प्रतिबद्धता के मूल्यों को स्थापित करने के लिए डिजाइन किया गया था। खेल, प्रार्थना, बौद्धिक चर्चा और शारीरिक व्यायाम जैसी सरल गतिविधियों के माध्यम से, शाखा का उद्देश्य जातिगत भेदों को मिटाना और जमीनी स्तर पर एक एकीकृत हिन्दू पहचान का निर्माण करना था। शारीरिक प्रशिक्षण पर जोर समाज की कथित शारीरिक कमजोरी का मुकाबला करने और आत्मविश्वास पैदा करने के लिए था।
इस प्रक्रिया के माध्यम से, डा. हेडगेवार ‘स्वयंसेवक’ यानी स्व-प्रेरित कार्यकर्ता का एक आदर्श कैडर बनाना चाहते थे। एक स्वयंसेवक वह व्यक्ति है जो राष्ट्र को स्वयं से ऊपर रखता है, अपने दैनिक जीवन में अनुशासन का अभ्यास करता है, और बिना किसी पुरस्कार या मान्यता की अपेक्षा के सामाजिक सामंजस्य के लिए निस्वार्थ भाव से काम करता है। निस्वार्थ सेवा की यह अवधारणा उनके दृष्टिकोण के केंद्र में थी।
शाखा की कार्यप्रणाली सामाजिक मनोविज्ञान की गहरी समझ को दर्शाती है। डा. हेडगेवार ने यह पहचाना कि गहरे बैठे मूल्य और पहचान केवल बौद्धिक अनुनय से नहीं बदलते, बल्कि निरंतर, साक्षात अभ्यास और सामुदायिक बंधन के माध्यम से बदलते हैं। शाखा वास्तव में पुनः-समाजीकरण का एक तंत्र है। इसकी गतिविधियांे में खेल, शारीरिक व्यायाम, गीत, कहानियां, विश्वास, अनुशासन और अपनेपन की भावना का निर्माण करने की स्वाभाविक प्रवृति है। यह जाति जैसी पूर्व पहचानों से ऊपर उठती हैं। उन्होंने सामाजिक सुधार पर जटिल सैद्धांतिक बहसों को दरकिनार कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने एक व्यावहारिक, दैनिक अनुभव बनाया जहां एक साझा दिनचर्या और एक नई, सर्वोपरि ‘स्वयंसेवक’ पहचान के सामने जातिगत मतभेद अप्रासंगिक हो गए। वे मन बदलने के लिए व्यवहार बदल रहे थे, न कि व्यवहार बदलने के लिए मन। यह केवल उपदेश देने की तुलना में सामाजिक परिवर्तन के लिए एक कहीं अधिक सूक्ष्म और दीर्घकालिक रूप से प्रभावी रणनीति थी।
सामाजिक दृष्टिकोण व विचार
डा. हेडगेवार का सामाजिक दृष्टिकोण उनके राष्ट्रीय संगठन के लक्ष्य के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। उन्होंने उन सभी सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया जो हिन्दू समाज की एकता में बाधक थीं, जिनमें अस्पृश्यता सबसे प्रमुख थी। हालांकि, उनके सुधार का स्वरूप और प्राथमिकताएं अक्सर अकादमिक और राजनीतिक बहस का विषय रही हैं।
डा. हेडगेवार ने अस्पृश्यता की प्रथा को हिन्दू समाज पर एक कलंक मानते हुए इसका स्पष्ट रूप से विरोध किया। उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय रूप से काम किया कि संघ के भीतर जातिगत भेदभाव के लिए कोई जगह न हो। उनका प्रसिद्ध कथन था कि संघ में आने के बाद सभी केवल ‘हिंदू’ हैं, कोई अलग जाति नहीं। उन्होंने संघ के कार्यक्रमों में अंतर-जातीय भोजन को प्रोत्साहित किया और सभी के लिए पानी के स्रोतों को खोलने जैसे कदम उठाए, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी थे। उनका लक्ष्य एक ‘समरस समाज’ का निर्माण करना था, जहां सभी घटक एक-दूसरे के साथ सद्भाव से रहें।
यहां एक महत्वपूर्ण विश्लेषण आवश्यक है। क्या डा. हेडगेवार का लक्ष्य डा. बी. आर. अम्बेडकर की तरह जाति व्यवस्था का पूर्ण उन्मूलन था, या उनका प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय संगठन के बड़े लक्ष्य के लिए विभिन्न जातियों के बीच एकता और सद्भाव यानी सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना था। साक्ष्य बताते हैं कि उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक था और कार्यात्मक एकता पर केंद्रित था। उन्होंने एक संयुक्त मोर्चा बनाने को प्राथमिकता दी। उनकी पद्धति जाति व्यवस्था की शास्त्रीय नींव पर सीधा, समाज-व्यापी हमला करने के बजाय, अपने संगठन के प्रभाव क्षेत्र के भीतर जाति को अप्रासंगिक बनाना था।
डा. हेडगेवार के जाति सुधार के दृष्टिकोण को ‘साधनात्मक’ या ‘कार्यात्मक’ कहा जा सकता है। उन्होंने अस्पृश्यता और जाति-आधारित भेदभाव का विरोध केवल इसलिए नहीं किया कि वे नैतिक रूप से गलत थे, बल्कि इसलिए भी कि वे उन्हें हिंदू ‘राष्ट्र’ की सबसे बड़ी रणनीतिक कमजोरी के रूप में देखते थे। उनका जातिवाद का हर विरोध राष्ट्र की कमजोरी और पतन के संदर्भ से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार, उनके सुधार उनके प्राथमिक लक्ष्य राष्ट्रीय संगठन के लिए एक आवश्यक पूर्व शर्त थे। यह ‘साधनात्मक’ दृष्टिकोण संघ के भीतर अस्पृश्यता के खिलाफ उनके प्रयासों की ईमानदारी और अम्बेडकर जैसे कट्टरपंथी, उन्मूलनवादी दृष्टिकोण से देखे जाने पर उनके दृष्टिकोण की संभावित सीमाओं, दोनों की व्याख्या करता है। यह सामाजिक क्रांति का धर्मशास्त्र नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकीकरण की रणनीति थी।
भारत में विचारधारा की निरंतरता और प्रभाव
1940 में डा. हेडगेवार के निधन के समय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक अपेक्षाकृत छोटा संगठन था। लेकिन, उनकी विरासत उनके द्वारा स्थापित संगठन या उनके विचारों तक ही सीमित नहीं है। यह उस वैचारिक और संगठनात्मक पारिस्थितिकी तंत्र में निहित है जिसे उन्होंने बनाया, जो आज भी समकालीन भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित कर रहा है।
डा. हेडगेवार के बाद, उनके उत्तराधिकारियों के नेतृत्व में संघ का एक छोटे समूह से एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के रूप में विस्तार हुआ, जिसके साथ कई संबद्ध संगठन जिन्हें सामूहिक रूप से विचार परिवार कहने की परम्परा विकसित हो गयी है। ‘राष्ट्र’, ‘व्यक्ति निर्माण’, और ‘संगठन’ के उनके मूल विचारों को उनके अनुयायियों द्वारा समय के साथ व्याख्यायित, अनुकूलित और लागू किया गया है। यह संगठन आज समाज के लगभग हर क्षेत्रों में व्याप्त है। शिक्षा, श्रम, राजनीति, सामाजिक सेवा, स्वास्थ्य सेवा, छात्र राजनीति, साहित्य, कला-संस्कृति, धर्म-अध्यात्म, भाषा, पत्रकारिता, स्वदेषी, पर्यावरण जैसे अनेक क्षेत्रों में इस विचार परिवार के संगठन न केवल सक्रिय बल्कि प्रभावी भी है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीतिक
डा. हेडगेवार ने संघ की कल्पना एक अराजनीतिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में की थी। हालांकि, समय के साथ, संघ और चुनावी राजनीति के बीच एक जटिल और विकसित संबंध बना। 21वीं सदी में आंदोलन द्वारा प्राप्त महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव, ‘समाज को फिर से बनाने’ के मूलभूत लक्ष्य और ‘राज्य चलाने’ के हालिया लक्ष्य के बीच एक अंतर्निहित तनाव और तालमेल दोनों को दर्शाता है।
डा. हेडगेवार की विचारधारा का प्रभाव बहुआयामी रहा है जिसके कारण औपनिवेषिक मानसिकता वाले राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी इसको लेकर वितंडा खड़ा करते रहे हैं। आजादी के बाद से ही ऐसे लोग इस विचार को विवादास्पद सिद्ध करने के प्रयास करते रहे हैं। एक ओर, इसके अनुयायी इसे सामाजिक सेवा, राष्ट्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक गौरव को बढ़ावा देने का श्रेय देते हैं। दूसरी ओर, आलोचक राष्ट्रवाद की इसकी परिभाषा, धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति इसके रुख और भारत के राजनीतिक ध्रुवीकरण में इसकी भूमिका को लेकर गंभीर प्रश्न उठाते हैं।
अंततः, डा. हेडगेवार की सबसे स्थायी विरासत एक स्व-प्रतिकृति वैचारिक और संगठनात्मक पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण है। ‘व्यक्ति निर्माण’ की प्रक्रिया ने समर्पित कार्यकर्ताओं की पीढ़ियों को तैयार किया है, जिन्होंने बदले में, उनके मूल विचारों को भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में पहुंचाया है। यह विस्तार यादृच्छिक नहीं है। यह ‘व्यक्ति निर्माण’ प्रक्रिया का तार्किक परिणाम है। दशकों तक शाखा की विचारधारा से आकार पाए व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उस विश्व-दृष्टि को अपने पेशेवर और सार्वजनिक जीवन में लागू करना चाहते हैं। इस प्रकार, आज देखी जाने वाली राजनीतिक सफलता स्वयं में लक्ष्य नहीं है, बल्कि लगभग एक सदी पहले उनके द्वारा रखी गई सांस्कृतिक और सामाजिक नींव का एक विलंबित परिणाम है। उनकी सच्ची विरासत एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक गहरा अंतर्निहित सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन है जिसने अब महत्वपूर्ण राजनीतिक अभिव्यक्ति हासिल कर ली है। निस्संदेह, डा. हेडगेवार आधुनिक भारत के सबसे परिणामी, यद्यपि विवादास्पद, वैचारिक शिल्पकारों में से एक हैं, जिनकी दृष्टि राष्ट्र की नियति को गहन तरीकों से आकार देना जारी रखे हुए है।