अभ्युदय आनंद
पटना मेडिकल कालेज की ख्याति देश-विदेश में जिन महान शिक्षकों और चिकित्सकों के कारण था, उन्हें शताब्दी वर्ष के अवसर पर अवश्य याद किया जाना चाहिए। यह सौभाग्य की बात है कि उनमें से कुछ अभी स्वस्थ हैं और समाज की सेवा कर रहे है। डा. टीएन बनर्जी से शुरू होकर डा. मैरी पी जान, डा. मधुसूदन दास तक यह परंपरा अपनी बुलंदी पर पहुंची। डा. एसएन आर्या, डा. सीपीठाकुर जैसे महान विभूतियों ने उस गौरवशाली परंपरा को न केवल जारी रखा बल्कि उसको आगे भी बढ़ाया।
प्रोफेसर डॉ. मधुसूदन दास एक उत्कृष्ट चिकित्सक और प्रसिद्ध फिजिशियन थे। वे 16 जनवरी 1910 को उनका जन्म हुआ था। उन्होंने 1935 में पटना मेडिकल कॉलेज से स्नातक किया और फिर उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता चले गए, जहां उन्होंने डिग्री आफ डीटीएम प्राप्त की। इसके बाद, उन्होंने 1938 में एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से एमआरसीपी और 1939 में डीएमआर की उपाधि प्राप्त की। इसके तुरंत बाद, उन्हें सीएएस (क्लिनिकल असिस्टेंट सर्जन) के रूप में नियुक्त किया गया और उन्होंने बिहार के विभिन्न स्थानों में अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने रेलवे और रेडियम संस्थान में भी कार्य किया। नवंबर 1945 में, उन्हें मेडिकल रजिस्ट्रार के रूप में नियुक्त किया गया। बाद में, उन्होंने अपने ही संस्थान में व्याख्याता (लेक्चरर) के रूप में सेवा दी और फिर प्रोफेसर ऑफ क्लिनिकल मेडिसिन के पद पर पदोन्नत हुए। पद्म भूषण प्रोफेसर एम.ए. हई के सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने विश्वविद्यालय के मेडिसिन विभाग के प्रमुख का पदभार संभाला और 1967 तक इस पद पर रहे। उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उनके निर्देशन में, कई छात्रों ने चिकित्सा क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। डॉ. मधुसूदन दास न केवल एक महान चिकित्सक थे, बल्कि वे एक प्रेरणादायक शिक्षक और आदर्श व्यक्तित्व भी थे। उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।
पीएमसीएच की ख्याति में चार चांद लगाने वाली प्रोफेसर (डा) मैरी पी. जॉन का जन्म 29 अक्टूबर 1904 को अयमनम, केरल में हुआ था। उन्होंने 1930 में लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, दिल्ली से चिकित्सा की पढ़ाई पूरी की और अपनी शानदार शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कार जीते। उन्हें वार्षिक रूप से दिया जाने वाला सबसे प्रतिष्ठित ‘हक्सन पुरस्कार’ प्राप्त हुआ, जो रोगियों के प्रति सबसे दयालु और सहानुभूतिपूर्ण छात्र को दिया जाता था।
दिल्ली, अजमेर, लाहौर और कलकत्ता में विभिन्न पदों पर सेवा देने के बाद, वे 1937 में ब्रिटेन (यू.के.) गईं। वहां पहुंचने के छह महीनों के भीतर उन्होंने रॉयल कॉलेज ऑफ ऑब्सटेट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजिस्ट्स की सदस्यता प्राप्त की, जो उस समय एक भारतीय के लिए कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। 1954 में, उन्हें इस कालेज की फेलोशिप प्रदान की गई। भारत लौटने के बाद, उन्होंने 1939 में पटना मेडिकल कालेज में कार्यभार संभाला और 1953 में प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग की पूर्ण प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनीं। 1960 में वे सेवानिवृत्त हुईं।
सहजता से जटिलतम विषय भी अपने छात्रों के मस्तिष्क में बैठा देने वाले डा. सीपी ठाकुर ने बंगाल के मुख्यमंत्री और विश्व प्रसिद्ध चिकित्सक डा. विधानचन्द्र राय की परम्परा को आगे बढ़ाया। चिकित्सा विज्ञान के समर्थ शिक्षक, रोगियों को देखते ही रोग की पहचान कर लेने में दक्ष प्रो. (डा) सीपी ठाकुर एक कुशल राजनीतिज्ञ भी है। राजनीति करते हुए उन्होंने चिकित्सक के रूप में अपने दायित्व का भी निर्वहन किया। पहली बार चुनाव लड़े और सांसद बन गए। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री भी बने। पीएमसीएच में प्रथम ऑटोएनालाइजर और प्रथम डायलिसिस मशीन लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। आईजीआईएमएस का ब्लू प्रिंट सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रधान मंत्री के समक्ष प्रस्तुत किया था।
डॉ. सी.पी.ठाकुर के डॉक्टर बनने की कहानी भी खास थी। स्कूल के दिनों में वे कालाजार से पीड़ित रहे। बचने की संभावना नहीं थी, पर बच गए। इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला भी हो गया था और कुछ महीने उन्होंने क्लास भी किया था। फिर पीएमसीएच से नामांकन का पत्र मिला तो बचपन का सपना साकार करने के लिए पीएमसीएच में नामांकन करा लिया। डाक्टर के रूप में कालाजार की दवा खोज कर उन्होंने विश्व में प्रतिष्ठिा अर्जित की। डा. सीपी ठाकुर एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण संस्था हैं। उनके चेहरे पर हमेशा तैरने वाली मुसकराहट उनके असाधरण व्यक्तित्व का परिचय देती है। सहजता और सरलता उनके व्यक्तित्व की मौलिक विशेषता है। छात्र हों या मरीज विषय को वे कम्प्लिकेटेड नहीं बनाते थे। उनका एक रिसर्च अनूठा था, लीक से हटकर। उन्होंने रिकार्ड्स के आधार पर यह प्रमाणित किया था कि शुक्ल पक्ष में आपराधिक घटनाएं कृष्ण पक्ष की तुलना में ज़्यादा होती हैं, जो कि प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध थीं।
अब बात करते हैं डा. एसएन आर्या की। चिकित्सक होने के साथ ये विख्यात राष्ट्रवादी भी हैं। विश्व हिंदू परिषद के स्तंभ है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में रहने के बावजूद डा. आर्या ने अपने मूल दायित्व यानी चिकित्सा सेवा से कभी मुंह नहीं मोड़ा। गहन अध्ययन करने वाले आर्या साहब बड़े ही मेथॉडिकल क्लिनिशियन और सक्षम शिक्षक थे।
डा. आर्या और डा. ठाकुर के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहा करती थी। दोनों अपने बैच के टापर थे। पीएमसीएच के एक हीरा तो एक जवाहर थे। मेथोडिकल आर्या साहेब मरीजों की अत्यधिक भीड़ के बावजूद सारे सिम्पटम और फाइंडिंग साफ-साफ और पूरा लिखते थे। वे इंग्लैंड में एक जोरदार एक्सीडेंट के शिकार हो गए थे। कार इनके एक छात्र चला रहे थे। रात का समय था। कुछ पता नहीं चला और कार नीचे लुढ़क गयी। होश आया तो परा मेडिक आ चुके थे। किसी ने फोन कर दिया था। इन्होंने कहा, ‘‘आई एम ए डॉक्टर। ई थिंक आई हैव ब्रोकन माय स्पाइन। प्लीज हैंडल केयरफुल्ली।’’ परा मेडिक ने कहा, ‘‘डू नोट बोदर, वी आर ट्रेंड फॉर इट।’’ जिस अस्पताल में इन्हें ले जाया गया वहां इनके एक छात्र ही ड्यूटी पर थे। चोट गंभीर थी। आठ जगह हड्डी टूटी थी। इनके सारे छात्रों को खबर मिली और रोस्टर बना कर इनकी सेवा में लग गए। छः महीने वे वहां रहे अपने छात्रों के भरोसे। इन्हें एक ही अफ़सोस होता रहा कि आवेश में आकर इन्होंने इस्तीफा क्यों दे दिया और बहुत से छात्र लाभान्वित होने से वंचित रह गए। अपनी आत्मकथा में वे इस बात का जिक्र करते हैं।