गीतों के बिना छठ पर्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। विशेष धुन और राग वाले कर्णप्रिय गीत जब कानों में पड़ने लगते हैं तब अचानक अहसास होने लगता है कि छठ पर्व नजदीक है। कभी सांझा-पराती तो कभी दीपचंदी शैली में ये छठ गीत बाकी सभी गीतों से बहुत ही भिन्न होते हैं। नाग कन्याओं ने महर्षि च्यवन की पत्नी सुकन्या को सूर्य षष्ठी व्रत का जो विधान बताया था, उसमें गीत-संगीत भी शामिल है। इसी कथा के आधार पर यह लोक मान्यता है कि छठ गीतों का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना पुराना यह पर्व।
चेतना स्थिर करने में मददगार छठ के लोकगीत
छठ एक उत्सव प्रधान लोकपर्व है अतः इसमें कर्मकांड, शास्त्र और मंत्र की प्रधानता नहीं है। इसलिए बिना छठी मैया के गीत के आप इसे सोच भी नहीं सकते हैं। कर्ण प्रिय छठी गीत की अलग पहचान है। छठी गीत की आवाज कान में जाते ही बिहार के लोगों के मुख से अनायास निकल जाता है जय छठी मैया। ये गीत न सिर्फ मन को आह्लादित करते हैं, बल्कि ये हमारी चेतना को स्थिर कर उसे व्रत में स्थित करने में मददगार होते हैं।
कुमुद अखौरी से लेकर शारदा सिन्हा तक शैली एक
घर-घर में महिलाएं इस पर्व की रस्मों को करते समय अपनी स्थानीय भाषा में छठगीत गाती हैं। इसका कोई विशेष शिक्षण नहीं होता। यह सामान्य महिलाओं के गायन की विधा रही है। रिमिक्स के जमाने में आज भी सबसे ज्यादा मनभावन छठ गीत व्रती महिलाएं ही गाती हैं। कुमुद अखौरी और विंध्यवासिनी देवी से लेकर शारदा सिन्हा तक लोकप्रिय गायिकाओं ने इसी जनसामान्य की शैली का अपने गायन में प्रयोग किया। वाद्य यंत्रों के सहारे इन गायिकाओं ने छठ के लोकगीतों के फलक को दुनिया में जो विस्तार दिया वह अकल्पनीय है
कहरवा और दीपचंदी ताल का प्रकृति पर प्रभाव
छठ पर्व में अनेक प्रकार के फल और पकवान आदि के नैवेद्य चढ़ाये जाते हैं जिनका वर्णन सूर्यनारायण को रिझाने वाले लोक गीतों में मिलता है। प्रकृति के प्रभाव से लोक के कंठ से निकलने वाले छठ गीतों को कला समीक्षकों ने अपने-अपने तरीके से पारिभाषित करने का प्रयास किया है। कला समीक्षकों का मानना है कि लोक के कंठ में व्याप्त होने वाले छठी गीत कहरवा ताल या दीपचंदी ताल से निबद्ध हैं। इन गीतों के प्रभाव से एक ऐसे भाव संसार की रचना मन-मस्तिष्क में होने लगती है जिसमें प्रकृति के प्रतीक पादप, पशु पक्षी भी उमंग में नृत्य करते प्रतीत होते हैं। वातावरण में गूंजने वाले छठ गीत कानों से होकर सीधे हृदय में उतरते हैं। वास्तव में यह भाव के धरातल पर मन के नृत्य की स्थिति का हमें बोध करा देता है।
केरवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके झुंके
हो करेलु छठ बरतिया से झांके झुंके
हम तोसे पूछी ले बरतिया ऐ बरितया से केकरा लागी
हे करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी
हे करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी
हमरो जे बेटवा पवन ऐसन बेटवा से उनके लागी
हे करेलू छठ बरतिया से उनके लागी
शास्त्रीय नहीं, फिर भी प्रभाव उनसे भी अधिक
संगीत विशेषज्ञ कहते हैं कि यह लोकगीत कहरवा ताल में निबद्ध हैं। शास्त्रीय नहीं होने के बावजूद ये शास्त्रीय से कही ज्यादा प्रभावोत्पादक हैं। इसी प्रकार एक और प्रचालित गीत पर यदि हम नजर रखते हैं तो काव्य शिल्प की दृष्टि से परिष्कृत न होने के बावजूद यह प्रभाव डालने की क्षमता से भरपूर हैं।
पहिले पहिल हम कईनी
छठी मईया व्रत तोहार
करिहा क्षमा छठी मईया
भूल-चूक गलती हमार
एक और गीत है जो छठ से सम्बंधित आचरण पर प्रकाश डालता है। छठ पर्व ऐसा है जिसमें धर्म के दसो लक्षण स्पष्ट दिखते हैं।
ऊ जे केरवा जे फरेला खबद से
ओह पर सुगा मेड़राए
मारबो रे सुगवा धनुख से
सुगा गिरे मुरझाए
ऊ जे सुगनी जे रोएली वियोग से
आदित होई ना सहाय
शुद्धता की प्रधानता और सुधार के लिए झिड़की
छठ से अनजान कोई व्यक्ति इस गीत में हिंसा की बात कह सकता है। लेकिन इसमें हिंसा कहीं नहीं, बल्कि शुद्धता के लिए सुधारात्मक झिड़की मात्र है। व्रत करने वाली महिला आकाश में विचरण करने वाले सुग्गा यानी तोता को सावधान करते हुए कहती है कि वृक्ष पर लगे फलों को यदि जूठा करने का प्रयास करोगे तो धनुष से तुम्हें मुर्छित कर देंगे। मारेंगे नहीं। इसके बाद तुम्हारी सुग्गी वियोग से रोने लगेगी और सूर्य देव से सहायता मांगेगी तब तुम मूर्छा से मुक्त हो सकोगे।