प्रशांत रंजन
सिनेमा विधा अपने सशक्त संप्रेषण के लिए विख्यात है। इसलिए जब यह कल्पना की छौंक के साथ यर्थाथ को प्रस्तुत करता है, तो दर्शक के लिए दोनों को अलग कर देख पाना कठिन हो जाता है। इस परिस्थिति से जो संभ्रम उत्पन्न होता है, उससे अर्थ का अनर्थ प्रकट होता है। अपनी अनोखी निर्देशकीय शैली के लिए प्रसिद्ध इम्तियाज़ अली की हालिया फिल्म ’अमर सिंह चमकीला’ के साथ भी यही हुआ है।
अस्सी के दशक में अपने फूहड़ गानों के बल पर तेजी से लोकप्रियता का शिखर स्पर्श करने और उतनी ही तेजी से अवसान को प्राप्त हाने वाले पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला के जीवनवृत पर फिल्म बनाना खतरों से खेलने जैसा है। फिल्म आने बाद दर्शकों के बड़े वर्ग द्वारा दी गई तीखी प्रतिक्रिया के बाद खतरों वाली आशंका सत्य सिद्ध हुई। लेकिन, यह फिल्म उतनी ही संवेदना से देखे जाने की अपेक्षा रखती है, जितनी संजीदगी से इसे बनाया गया है। इम्तियाज की फिल्मों का मुख्य पात्र दो स्तरों पर यात्राएं करता है- एक बाहरी, जो हमें कथानक में दिखता है और दूसरा आंतरिक यात्रा, जिसे हम किरदार के साथ महसूस करने लगते हैं। जब वी मेट, लव आजकल, रॉकस्टार, हाईवे, तमाशा में इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। संभवतः प्रथम बाद इम्तियाज ने अपनी फिल्म के लिए अरेखिए कथानक बुनी है और इसलिए चमकीले की पूरी दास्तां फ्लैशबैक के माध्यम से हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। इस कथानक की समयरेखा को इम्तियाज अपनी समझ से कई स्थानों पर खंडित करते हैं, ताकि दर्शक को सनद रहे कि वह कलात्मक स्वतंत्रता के साथ बनाई गई फीचर फिल्म देख रहा है, न कि ठोस-सपाट यथार्थ वाचन करने वाली कोई डॉक्यूमेंट्री। उन्होंने दो कार्य और किए हैं- महत्वपूर्ण पड़ावों के दौरान चमकीला व उसकी पत्नी की असली तस्वीरें फ्रेम में दिखाते हैं, ताकि दर्शक इत्मीनान रहे कि असली वाला चमकीला इस फोटो में, जबकि दिलजीत दोसांझ वाला चमकीला फिल्म का हीरो है। इस अंतर और पुष्ट करने के लिए फिल्मकार ने कई दृश्यों (शॉट्स पढ़ें) को द्वयरंगीय एनिमेशन में ढालकर भी दिखा दिया है, ताकि आप बिल्कुल मुगालते में न रहें कि आप कलात्मकता व कल्पनाशीलता से अलंकृत एक बायोपिक देख रहे हैं।
बायोपिक फिल्मों के साथ एक समस्या है कि उन्हें कथानक चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं होती और व्यक्ति के वास्तविक जीवन में जो घटित हुआ होता है, बस उसी में थोड़ी-बहुत नाटकीयता की गुंजाइश के साथ कथा बनानी पड़ती है। यानी कथा की बनावट लगभग पहले से तय होती है। …तो जो थोड़ा बहुत प्रयोग हो सकता है वह कथा की बुनावट में ही संभव है। इस कसौटी पर देखें, तो इम्तियाज़ अली ने अपने निर्देशकीय कौशल का श्रेष्ठ उपयोग किया है। वरना, कोई कच्चा फिल्मकार होता, तो कब यह फिल्म चमकीला के गानों की तरह ही फूहड़ता की उपाधि प्राप्त कर लेती, पता भी नहीं चलता। आजकल वेबसीरीजों में सच्चाई के नाम पर जिस पर हिंसा व नंगई को परोसा जा रहा है, उस कसौटी पर अली ने अश्लील सामग्री (चमकीला के गानों के बोल) की जमीन पर भी सावधानी से काम किया है, क्योंकि जरा ठहर कर सोचें कि अगर फिल्म से चमकीला के उन अश्लील बोल वाले गानों को हटा दें, तो पूरी फिल्म की जमीन ही खिसक जाएगी। दरअसल, यह बायोपिक एक विमर्श छेड़ती है। क्या अश्लील गानों की वजह से चमकीला मारा गया? आतंकी संगठन व प्रशासन के बीच चमकीला फंस गया? बंदूक की नोक पर कलाकार से पैसे की वसूली वजह बनी? वंचित वर्ग से आने वाले अमर सिंह के चमकीला बनने का संघर्ष किसी को प्रेरित भी कर पाएगी? कई प्रश्न हो सकते हैं। बात यह भी है कि रोमांटिक कहानियां परोसने वाले इम्तियाज ने इस बार अपने दर्शकों को अवांछित सच से सामना कराया है, तो मन में अपच होगी ही।
अमर सिंह अपनी पत्नी के साथ स्टेज शो में फूहड़ गाने गा रहा होता है और उसके कैसेट धड़ल्ले से बिक रहे होते हैं। इससे आतंकी संगठन के लोग चमकीला को ऐसा करने से मना करते हैं, वह मान जाता है। इसके बाद वह धार्मिक गाना गाने लगता है, तब पुलिस उस पर आतंकियों से मिले होने के आरोप लगाती है। अ बवह द्वंद्व में फंस जाता है। इधर कुंआ, उधर खाई। इस बीच कुछ लोग उससे बंदूक की नोक पर पैसे भी ऐंठते हैं। इन सबमें उलझा चमकीला फिर अश्लील गाने पर वापस आता है और अंततः मारा जाता है। चमकीला क्यों मारा गया? इस प्रश्न से अधिक यह फिल्म वंचित समाज से आने वाले चमकीले के जीवन संघर्ष व उस समय क्षेत्र में व्याप्त आतंक के साये में राजनीतिक व सामाजिक परिवेश को चित्रित करती है। इस चित्रण में चमकीला का व्यक्तित्व हावी है। इसलिए इस फिल्म को अश्लीलता का महिमामंडन करने वाली फिल्म से अधिक अलगाववाद व आतंकवाद से पीड़ित पंजाब में एक कलाकार के दमन की कहानी है। फिल्मकार का चातुर्य है कि कहीं भी किसी आतंकी संगठन का नाम नहीं लिया है, बाकी बहुत कुछ कह दिया है।
अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने असल जीवन में चमकीले की चमक देखी है और शायद इसलिए भी उस पात्र को निभाने में वे सहज रहे। स्वयं निर्देशक इसकी पुष्टि करते हैं। विशुद्ध पंजाबी तो वे हैं ही। अमरजोत कौर के पात्र में परिणति चोपड़ा औसत हैं। चमकीला के सहयोगी के रूप में टिक्की व अन्य ने इमानदारी से काम किया है। एक झलक कुमोद मिश्रा की भी दिखती है। चमकीला के अखाड़े भी एक पात्र की भूमिका में है, यह काम प्रशंसनीय है। अखाड़े में चमकीला द्वारा गाए जा रहे पंजाबी गानों के हिंदी अनुवाद रोमन लिपि में पर्दे पर दिखता है, इस साधारण सी रचनात्मकता से फिल्मकार हिंदी पट्टी के दर्शकों को स्पूनफीडिंग करते हैं। व्यवसायिक सिनेमा की यह मांग है।
अस्सी के दशक के पंजाब को विश्वसनीयता से फिल्माया गया है। पात्रों के परिधान का विशेष ध्यान रखा गया है। इसका सबसे मजबूत पक्ष एआर रहमान का संगीत है, जिसने कथा के भाव में प्राण भर दिए हैं। ’बज बाजा बाजा’ से चमकीला का भड़कीला जीवनवृत आरंभ होता है व ’विदा करो’ से इस ट्रैजडी को समेटा गया है।