भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में लोकमत परिष्कार की जोेेेे सहज प्रवृति व प्रकृति रही है, वही भारतीय पत्रकारों के लिए नीति निर्देशक तत्व है। पश्चिम के प्रभाव में आने के बाद भारत में पत्रकारिता को लेकर एक विचित्र प्रकार की अवधारण विकसित होती चली गयी। आजादी के पूर्व अंग्रेजी पत्रकारिता का एक स्वरूप विकसित हुआ जिसमें औपनिवेशिक मानसिकता की प्रधानता थी। अंग्रेजी पत्रकारिता और हिंदी पत्रकारिता में स्पष्ट अंतर दिखता था। अंग्रेजी की पत्रकारिता करने वाले सुविधाओं से सम्पन्न होते थे और वे स्वयं को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकारों से श्रेष्ठ मानते थे। बहुत दिनों तक यह भ्रम रहा कि हिंदी समाचार पत्र अंग्रेजी समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के अनुवाद के सहारे चलते हैं। हिंदी की पत्रकारिता में तथ्य की कमी रहती है। मनगढंत कथा-कहानियांे की अधिकता रहती हैं। आजादी के बाद कई दशकों तक यह अवधारणा बनी रही। इसमें सरकार व सरकार के तंत्रों की भूमिका प्रमुख थी।
औपनिवेशिक मानसिकता
आजादी के बाद भारत राजनीतिक रूप से तो स्वतंत्र को गया लेकिन भारत का पूरा तंत्र औपनिवेशिक मानसिकता की ग्रंथी में बुरी तरह से जकड़ा रहा। इसके कारण भारत के तंत्र को चलाने वालों के लिए अंग्रेजी समाचार पत्र ही सबकुछ थे। इसके कारण आजादी के बाद भारत की पत्रकारिता का सहज व स्वाभाविक विकास नहीं हुआ। पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी समाचारपत्र एक उद्योग के रूप में विकसित होता चला गया जिसके मूल में धन कमाने की इच्छा थी। उद्योग धंधों को फैलाने में एक स्रोत या दबाव उपकरण के रूप में समाचारपत्रों का उपयोग होने लगा। औद्योगि क्रांति के बाद पश्चिम के दशों में मजदूर आंदोलनों के कारण समाज में जो टकराव की स्थिति बनी थी वह भारत मंे भी दिखने लगी। पत्रकारिता का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं था। ऐसे में भारतीय ज्ञान परम्परा व लोकमत परिष्कार की सहज व स्वाभाविक प्रकृति संघर्ष के शोर गूल में कही लुप्त होने लगी। ऐसे में भारतीय पत्रकारों ने राष्ट्रीय विचारों के साथ पत्रकारिता कर्म के लिए आवश्यक बौद्धिक वातावरण निर्माण के लिए पहल शुरू की। इसी प्रयास के परिणाम स्वरूप नेशनल यूनियन औफ जर्नलिस्ट इंडिया नामक संगठन सामने आया। आजादी के बाद कई दशकों तक विदेशी विचारधारा से प्रभावित मजदूर आंदोलनों के कारण भारत को बहुत क्षति पहुंची थी क्योंकि ऐसे श्रमिक संगठनों के दृष्टि पथ में भारत का कोई स्थान नही था। यह प्रवृति लोकतंत्र और पत्रकारिता के लिए अत्यंत खतरनाक साबित हुई है।
विमर्श को विकृत करने का षड्यंत्र
भारत में बहुत दिनों तक यह सिद्धांत चलता रहा कि विदेशों मंे छापई मशीन के आविष्कार के बहुत दिनों बाद भारत में पत्रकारिता का विकास हुआ। इस प्रकार भारत में पत्रकारिता की शुरूआत अंग्रेजों या अन्य यूरोपीय लोगों के कारण हुआ। पूर्व में पत्रकारिता के लिए विशेष पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। बाद के काल में इसके लिए पाठ्यक्रम सुनिश्चित किए गए, डिग्री, डिप्लोमा जैसी व्यवस्था बनायी गयी। भारत में पत्रकारिता के उद्भव व विकास का इतिहास बताया जाने लगा जिसके मूल में छपाई तकनीक और कंपनियों के शोषण के विरोध में आवाज उठाने की बात बतायी जाती है। मतलब यह कि भारत में पत्रकारिता की शुरूआत अंग्रेजों के आने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल हुई। यह इतिहास भारत में पत्रकारिता व तत्व समीक्षा की परम्परा के इतिहास को नकारने जैसा है। इसके कारण पत्रकारिता को लेकर जो आख्यान(नैरेटिव) भारत में फैलाये गए हैं वे वास्तव में विमर्श को विकृत करने का एक षड्यंत्र है।
भारत को राजनीतिक रूप से आजाद करने का जब संगठित प्रयास शुरू हुआ तब भारत की प्रकृति व ज्ञान परम्परा के अनुकूल पत्रकारिता की आवश्यकता महसूस की गयी। इसके बाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से लेकर मोहनदास करमचंद गांधी जैसे अनेक नेताओं ने पत्रकारिता को अपना अस्त्र बनाया। आजादी की लड़ाई के दिनों में विमर्श सुधारक यंत्र के रूप में भारत की पत्रकारिता का पुनर्जन्म हुआ।
शब्दों के संस्कार बदले
पश्चिम के प्रभाव के कारण भारत की प्रकृति, संस्कृति व ज्ञान परंपरा को अभिव्यक्त करने वाले शब्दों के संस्कार बदले हैं। उनके अर्थ संकुचित या विकृत भी हुए हैं। इस में एक शब्द प्रचार भी है। संस्कृत के चर धातु के साथ ’प्र’ प्रत्यय की संधि से प्रचार शब्द की व्युत्पति हुई है। चर धातु से चलना क्रिया का भाव बोध होता है लेकिन प्र प्रत्यय की संधि से प्रकृष्टता के साथ चलना या चलाना का अर्थ बनता है। वहीं पश्चिम के देशों में प्रचलित प्रोपेगेंडा शब्द को ही प्रचार शब्द का समानार्थी मान लिया गया। इस अर्थ में यदि हम प्रचार शब्द को लेते हैं तो यह एजेंडा सेट करने के लिए एक टूल मात्र है। इस प्रकार पश्चिम के प्रभाव के कारण व्यापक अर्थ व संदर्भ वाले भारतीय शब्द ‘प्रचार’ के संस्कार ही बदल गए।
प्रचार शब्द की संस्कार यात्रा
प्रचार शब्द की संस्कार यात्रा का संक्षिप्त विवरण ब्रह्मांड पुराण के द्वितीय खंड में उपलब्ध है। एक समय राजा सागर जब अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, तब राजा को उस स्थिति से त्राण दिलाने के लिए ऋषियों की सभा में देवर्षि नारद की चर्चा होती है। उसी चर्चा के क्रम में एक सूत्र आता है-प्रचारः नारदवृति। मोटे तौर पर इसका अर्थ यह हुआ कि प्रचार नारद की सहज प्रवृति है। वहीं दूसरे स्थान पर प्रचारः नारदस्यवृति भी आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रचार नारद की वृति है। अर्थात प्रचार को यदि समझना है तो नारद के जीवनचरित को समझना होगा। जिनका काम सत्य व सूचना को फैलाना है जिसके आधार पर राजा सही निर्णय ले सके। वर्तमान समय में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है क्योंकि
नारद पुराण में सनत कुमार की जिज्ञासा शांत करने के लिए नारदजी अपनी वृति और कर्म का रहस्य बताते हैं। वे कहते हैं कि मेरा प्रधान कर्म कथा है। मेरी कथा की आत्मा तत्वबोध है जो पुराणों में सहज और सरल रीति से उपलब्ध है। जिज्ञासुओं का भ्रम दूर करने के लिए व संसारी जनों को त्रितापों से मुक्ति दिलाने के लिए सत्य संकल्प से मैं कथा का प्रवचन करता हूं जिसमें त्रिलोक के नूतन समाचार होते हैं।
नारद के इष्ट वामन देव है, जिनकी स्तुति के माध्यम से हम प्रचार की प्रकृति, प्रवृति व स्वरूप को समझ सकते हैं।
चौतन्यम् सुमनं मनं मन मनं मानं मनं वामनं
विश्वासार सरं सरसरं सारं सरं वासरं
मायाजाल धवं धव धव धवं धावं धवं माधवं
बैकुंठाधिपते भवं भव भव भवं भावं भवं शाम्भवं
नारद भगवान वामन की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मन व बुद्धि को चैतन्यता प्रदान कर धर्म की स्थापना करने वाले वामनदेव आप हमारे इष्ट हैं क्योंकि आपने बिना अस्त्र-शस्त्र के देव संस्कृति की रक्षा की थी। आपने अपनी वाणी से माया के जाल को काटकर विश्व में धर्म की पुनर्स्थापना की है। यानी प्रचार का प्रभाव दिव्यास्त्रों से भी अधिक गहरा होता है। शायद इसीलिए कहा गया है कि जब तोप काम नहीं आए तब अखबार निकालो।