सुपौल लोकसभा क्षेत्र
लालू का प्रयोग बेअसर
राकेश प्रवीर की रिपोर्ट
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने इस बार लोकसभा उम्मीदवारों के चयन और टिकट बंटवारे में कई प्रयोग किए हैं। पहले चरण में जहां उन्होंने लीक से हटकर भूमिहार और यादव बहुल लोकसभा क्षेत्र नवादा में भूमिहार का मुकाबला यादव की जगह कुशवाहा से कराया, तो तीसरे चरण में पिछड़ा और अतिपिछड़ा बहुल सीट सुपौल पर यादव की जगह उन्होंने दलित कार्ड खेला है। इसी प्रकार सिवान में भी उन्होंने यादव उम्मीदवार उतार कर एक नया दावं ही चला है। बिहार की सबसे ज्यादा 26 लोकसभा सीटों पर राजद ही चुनाव लड़ रहा है। मगर, जानकारों की मानें तो लालू की नजर लोकसभा की सीटें जीतने से ज्यादा अगले साल होने वाले विधान सभा के चुनावों पर है।
यही कारण है कि, लालू प्रसाद यादव लोकसभा चुनाव से ही आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं।
उन्होंने सुपौल में पहली बार दलित प्रत्याशी का प्रयोग किया है। लालू के इस प्रयोग से मुकाबला न केवल रोचक हो गया है, बल्कि इस बार सीटिंग सांसद और एनडीए प्रत्याशी दिलेश्वर कामैत को टक्कर भी मिल रहा है। पिछले चुनाव में दिलेश्वर कामैत 2.66 लाख के अंतर से जीते थे। इस बार वह कम होता हुआ दिख रहा है। जीत-हार के मार्जिन का ग्राफ इस बार काफी बदल सकता है। ऐसे में यह चर्चा भी लाजिमी है कि क्या लालू प्रसाद यादव राजद को एम-वाई से बाहर निकाल कर ए टू जेड की पार्टी बनाने की कवायद के तहत ये सारे प्रयोग कर रहे हैं।
कोसी के सुपौल सीट पर उन्होंने अपने ही दल के सिंहेश्वर (सु.) विधानसभा क्षेत्र से विधायक अनुसूचित जाति से आने वाले चंद्रहास चौपाल को उम्मीदवार बनाया है, जबकि, यह सीट अनारक्षित श्रेणी में है। अनारक्षित सीट पर आरक्षित जाति के उम्मीदवार को मैदान में उतारकर लालू यादव ने सबको चौंकाया जरूर मगर जमीनी स्तर पर उनके इस प्रयोग का कुछ खास असर दिखाई नहीं दे रहा है।
विगत तीन चुनाव 2009, 2024 और 2019 में गठबंधन के तहत सुपौल सीट कांग्रेस के खाते में रही, लेकिन 2024 में लालू यादव ने न केवल कांग्रेस से यह सीट ले ली, बल्कि यादव की जगह दलित प्रत्याशी को यहां से उतार कर उन्होंने जातियों का एक नया समीकरण तैयार करने की कोशिश भी की है। पिछले तीन चुनाव से यहां अतिपिछड़ा वर्सेज यादव के बीच मुकाबला चल रहा था। इनमें दो बार अतिपिछड़ा और एक बार यादव कैंडिडेट की जीत हुई।
2009 के लोकसभा चुनाव में सुपौल सीट से जदयू के विश्वमोहन कुमार जो मंडल समुदाय से आते हैं ने जीत दर्ज की थी। उन्हें 3,13, 677 यानी 45 प्रतिशत वोट मिला था और कांग्रेस की रंजीत रंजन दूसरे स्थान पर रही थी जिन्हें कुल 1,47,602 यानी 21.02 प्रतिशत वोट मिले थे। जदयू उम्मीदवार की जीत का अंतर 1,66,075 अर्थात 23.8 प्रतिशत था।
मगर 2014 में इस सीट से कांग्रेस की रंजीत रंजन (राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पत्नी) ने 3,32,927 यानी 34.3 प्रतिशत मत हासिल कर जीत दर्ज की थी। 2014 में जदयू और भाजपा के अलग-अलग चुनाव लड़ने के कारण जदयू के दिलेश्वर कामैत को 2,73,255 यानी 28.2 प्रतिशत तथा भाजपा के कामेश्वर चौपाल को 2,49,693 अर्थात 25.7 प्रतिशत मत मिले थे। 59, 672 मतों के मामूली अंतर से कांग्रेस प्रत्याशी रंजीत रंजन की तब जीत हुई थी।
2019 में स्थिति बदली और भाजपा तथा जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा। जदयू के दिलेश्वर कामैत को 5,97, 377 यानी 53.8 प्रतिशत मिले और कांग्रेस की रंजीत रंजन को 3,30,524 यानी 29.8 प्रतिशत वोट से संतोष करना पड़ा। तब जीत का अंतर 2,66,853 यानी कुल मतदान का 24 प्रतिशत रहा।
इस बार जदयूू ने कैंडिडेट के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है। सीटिंग सांसद दिलेश्वर कामैत को ही अपना उम्मीदवार बनाया है। इन दोनों के अलावा भाजपा के टिकट के प्रबल दावेदार माने जाने वाले बैद्यनाथ मेहता बागी होकर निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। ऐसा कयास है कि जदयू के वोट को प्रभावित करेंगे। मगर स्थानीय लोगों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी चर्चा तक नहीं है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि अन्ततः राजद और जदयू उम्मीदवार के बीच ही सीधी लड़ाई होगी।
मुस्लिम-यादव के बाद दलित यहां बड़ा फैक्टर
सुपौल में दलित एक बड़ा फैक्टर है। इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं, कि सुपौल भले आरक्षित सीट न हो, लेकिन इस लोकसभा में पड़ने वाली 6 विधानसभा में से दो सिंहेश्वर और त्रिवेणीगंज विधानसभा सीट अनुसूचित जाति (दलित) के लिए आरक्षित हैं। राजद कैंडिडेट चंद्रहास चौपाल सिंहेश्वर विधानसभा के विधायक भी हैं। सुपौल में सबसे बड़ी आबादी यादव की है। इसके बाद मुस्लिम की आबादी भी अच्छी खासी है। दोनों को अगर जोड़ दें तो सुपौल में दोनों जातियों के वोटर्स की संख्या लगभग 5.30 लाख है। इनके बाद यहां एक बड़ी आबादी दलित की है। इनमें ऋषिदेव, सरदार, पासवान, राम मुख्य तौर पर शामिल हैं। वैसे सुपौल लोकसभा क्षेत्र में कुल वोटर 19.17 लाख हैं जिनमें 8.21 लाख पुरुष और 7.67 लाख महिला मतदाता हैं।
सुपौल वही जीतेगा, जो पिछड़ा वोट साधेगा
सुपौल को जानने वाले कहते हैं कि दलित कार्ड का ज्यादा लाभ यहां मिलने वाला नहीं है। सुपौल वही जीतेगा, जो पिछड़ा वोट साधेगा। यहां हर चुनाव में ओबीसी और ईबीसी वोटर्स गेमचेंजर साबित होते हैं। इसी का फायदा पिछले दो चुनाव से एनडीए को मिल रहा है। इनकी गिनती मुख्य रूप से नीतीश कुमार के कोर वोट बैंक के रूप में होती है। इसी लिए माना जा रहा है कि लालू प्रसाद यादव का प्रयोग सुपौल में बहुत कारगर होने वाला नहीं है।
दलित मोदी को मान रहे नेता
सुपौल में लालू ने राजद की ओर से भले ही दलित प्रत्याशी को मैदान में उतारा हो, लेकिन दलित की बड़ी आबादी नरेंद्र मोदी के साथ है या फिर चिराग पासवान को ही अपना नेता मान रहे हैं। हालांकि, सीएम नीतीश कुमार के प्रति दलितों में भारी नाराजगी भी है। इसके बाद भी वे यहां एनडीए प्रत्याशी को ही अपना समर्थन कर रहे हैं। उनका कहना है कि हम फिलहाल नीचे के प्रत्याशी से ज्यादा ऊपर मोदी को देख रहे हैं।
वैसे, सुपौल में नीतीश कुमार और सांसद दिलेश्वर कामैत के खिलाफ लोगों में नाराजगी है। लोग कहते हैं कि नीतीश कुमार इतनी बार पलटी मार लिए हैं कि अब उन पर भरोसा करना मुश्किल है। जबकि, जदयू के कैंडिडेट दिलेश्वर कामैत के बारे में लोगों का कहना है कि चुनाव जीतने के बाद वे लोगों को भूल गए हैं। एक बार भी झांकने के लिए नहीं आते। हालांकि, इन दोनों की नाराजगी पर मोदी का 5 किलो अनाज और पीएम किसान सम्मान निधि के तहत मिलने वाली सालाना 6 हजार की राशि भारी पड़ रहा है।