भारत में अब चुनाव विचारों का नहीं, दिखावे का उत्सव बन गया है। जनता की मेहनत की कमाई हर पांच साल में रैलियों, हेलिकॉप्टरों और प्रचार के शोर में उड़ जाती है— और बदलाव केवल चेहरे का होता है, चरित्र का नहीं।
विनोद कुमार तिवारी
(राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार)
हर पांच साल में भारत में किसी महाकुंभ जैसा दृश्य बन जाता है। सड़कों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर, गांव-गांव में लाउडस्पीकर, और आसमान में हेलिकॉप्टर। हर दिशा में “लोकतंत्र के पर्व” की गूंज होती है। दुनिया इसे आश्चर्य से देखती है। पर भीतर से यह उत्सव धीरे-धीरे एक महंगा रस्म बन चुका है। 2024 के लोकसभा चुनाव पर देश ने करीब ₹1.35 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। इतनी राशि जिससे देशभर के सरकारी अस्पतालों की ज़रूरतें पूरी हो सकती थीं या हर विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा मुफ़्त हो सकती थी। लोकतंत्र को चलाने का असली खर्च तो कम है — पर उसे जीतने का खर्च बेहिसाब हो चुका है। अब चुनाव जनता की सेवा का नहीं, शक्ति प्रदर्शन का साधन बन गए हैं।
चुनाव का बाज़ार और उसकी झूठी रौनक
जैसे ही चुनाव की तारीख़ें घोषित होती हैं, देश के हर हिस्से में एक अस्थायी अर्थव्यवस्था जन्म लेती है।
पोस्टर छपते हैं, मंच सजते हैं, विज्ञापन एजेंसियाँ सक्रिय हो जाती हैं, सोशल मीडिया प्रचारक हायर किए जाते हैं, और हेलिकॉप्टरों की बुकिंग महीनों पहले हो जाती है। यह सब देखने में विकास जैसा लगता है, लेकिन यह महज़ क्षणिक हलचल है। मतदान खत्म होते ही यह अर्थव्यवस्था भी समाप्त हो जाती है। न कोई नया रोज़गार स्थायी बनता है, न कोई उत्पादन होता है — बस धन का तेज़ प्रवाह होता है जो अंततः धूल में मिल जाता है। अगर यही पैसा कारखानों, प्रशिक्षण केंद्रों या अस्पतालों में लगाया जाए, तो लाखों नौकरियाँ पैदा हो सकती हैं। लेकिन राजनीति का तर्क अलग है — यहाँ धन विचारों पर नहीं, दिखावे पर खर्च होता है। हर पांच साल में हम विकास नहीं, प्रचार पर निवेश करते हैं — और यही हमारी सबसे बड़ी आर्थिक विडंबना है।
लोकप्रियता का भ्रम और जीत का कारोबार
आज राजनीति में टिकट बाँटने का मापदंड एक शब्द बन गया है — “जीत”। पर “जीत” अब योग्यता या जनसंपर्क की नहीं, धनबल की हो गई है। पहले चुनाव में “लोकप्रिय” वही माना जाता था जो जनता से जुड़ा हो, जो समस्याओं को समझता हो। अब “लोकप्रिय” वो है जो हेलिकॉप्टर से उतरे, हज़ारों की भीड़ जुटा सके और टीवी पर लगातार दिखे। यही है लोकप्रियता का भ्रम — जहाँ दिखाई देना ही पर्याप्त है। राजनीतिक दल मान लेते हैं कि जो दिखता है, वही जीतता है। इसलिए टिकट उन्हीं को मिलते हैं जो पैसा बहा सकते हैं या सत्ता के गलियारों में जिनकी पकड़ मज़बूत है। यह एक भ्रष्ट चक्र बन गया है — धन से लोकप्रियता, लोकप्रियता से जीत, और जीत से फिर धन। हर चुनाव इसी चक्र में घूमता है और राजनीति धीरे-धीरे व्यवसाय बनती जा रही है।
कार्यकर्ता की मेहनत और नेताओं की मौज
हर दल की नींव उसके कार्यकर्ताओं पर टिकी होती है — वे लोग जो निष्ठा से, बिना किसी वेतन या लाभ के, सिर्फ़ विश्वास के सहारे काम करते हैं। वो गली-गली जाकर लोगों को समझाते हैं, घर-घर झंडे लगाते हैं, बूथ सँभालते हैं, यहाँ तक कि अपने खर्च पर यात्रा करते हैं। पर टिकट बांटने के वक़्त वही लोग सबसे पीछे खड़े नज़र आते हैं। उनकी जगह कोई बाहरी, सम्पन्न और चर्चित चेहरा parachute से उतर आता है — जिसे अक्सर अपने क्षेत्र का भूगोल तक नहीं पता होता। कार्यकर्ता चंदा जुटाता है, मेहनत करता है, पर वही पैसा ऊपर के कुछ लोगों की विलासिता में चला जाता है —
हेलिकॉप्टर, पांच सितारा होटल, विशाल मंच, और “सेलिब्रिटी प्रचारक” के खर्च में। यह भारतीय राजनीति का सबसे दर्दनाक चेहरा है —जनता की मेहनत का धन, जनता की निष्ठा की कीमत बन चुका है।
यदि आप सरकारी आँकड़ों को देखें तो 2024 में चुनाव आयोग का कुल प्रशासनिक खर्च केवल ₹10 से 12 हज़ार करोड़ रुपये था। यानी मतदान केंद्रों की व्यवस्था, सुरक्षा, ईवीएम, और कर्मचारियों का वेतन —सब। लेकिन कुल चुनावी खर्च ₹1.35 लाख करोड़ रहा, मतलब बाक़ी के ₹1.23 लाख करोड़ राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और निजी फंडिंग से आए। यह अनुपात बताता है कि लोकतंत्र को चलाने का खर्च मामूली, पर उसे जीतने का खर्च अपार है। चुनाव आयोग अनुशासन और सादगी से चुनाव कराता है; राजनीतिक दल उसी लोकतंत्र को शोर-शराबे और धन के प्रदर्शन में बदल देते हैं। राज्य व्यवस्था लोकतंत्र को कायम रखती है, राजनीति उसे बेचने का माध्यम बना देती है। अगर इस रकम की तुलना देश के सामाजिक बजट से करें तो यह तस्वीर और भी असहज हो जाती है। ₹1.35 लाख करोड़ रुपये से भारत दो वर्षों तक प्रधानमंत्री आवास योजना चला सकता था। या पूरे साल के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और ग्रामीण पेयजल योजना दोनों का खर्च उठा सकता था। इतने धन से लाखों युवाओं को कौशल विकास और रोज़गार प्रशिक्षण मिल सकता था। लेकिन यह सब नहीं हुआ।हमने यह राशि राजनीति के रंगमंच में झोंक दी — ताकि नेता बड़े मंच पर और ऊँची आवाज़ में अपनी ही तस्वीरें दिखा सकें। हर बार चुनाव के बाद देश थोड़ा और गरीब हो जाता है — और राजनीति थोड़ी और महँगी।
अगर यही ₹1.35 लाख करोड़ किसी उत्पादक काम में लगाया जाए तो इससे करीब 270 औद्योगिक पार्क, 20,000 कौशल केंद्र, या एक लाख से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए जा सकते हैं। यह पैसा हज़ारों युवाओं के हाथों में रोज़गार बनकर लौट सकता था। पर हमने उसे रैलियों की धूल और नारेबाज़ी की आवाज़ में उड़ा दिया।
हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है —जो धन देश के भविष्य में लगना चाहिए था, वह राजनीतिक प्रचार के गुब्बारों में उड़ जाता है।
भ्रष्टाचार का स्थायी चक्र
जब राजनीति इतनी महँगी हो जाए, तो ईमानदारी टिक नहीं सकती। उम्मीदवार करोड़ों रुपये लगाते हैं, और फिर सत्ता में जाकर उसी की वसूली करते हैं — सरकारी ठेकों, नियुक्तियों, या नीतिगत लाभों के ज़रिए। यह एक लागत–भ्रष्टाचार चक्र है — जहाँ हर खर्च किया गया रुपया, किसी न किसी रूप में जनता की जेब से ही वापस लिया जाता है। इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार अपवाद नहीं, अनिवार्यता बन चुका है। अब सत्ता सेवा नहीं, निवेश पर लाभ की गारंटी है। चुनाव खत्म होते ही विलासिता का दूसरा दौर शुरू होता है — अब सारा खर्च जनता के टैक्स से होता है। सरकारी बंगले, कारों के काफ़िले, निजी स्टाफ़, सुरक्षा — सब जनता की जेब से। सिर्फ़ वीआईपी सुरक्षा पर ही भारत हर साल 10 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च करता है। यह वही राशि है जिससे हज़ारों स्कूल या अस्पताल सुधारे जा सकते थे। यह सोचने वाली बात है कि जनता के प्रतिनिधियों को जनता से ही इतनी सुरक्षा की ज़रूरत क्यों पड़ती है। या तो समाज में अपराध बहुत गहराई तक है, या फिर राजनीति इतनी अपराधी हो चुकी है कि नेता अपने ही नागरिकों से भयभीत रहते हैं।
भावनाओं की राजनीति, स्थायी चुनाव और ठहरा हुआ शासन
अब चुनाव नीतियों या योजनाओं पर नहीं, बल्कि भावनाओं और पहचान पर लड़े जाते हैं — धर्म, जाति, क्षेत्रीय गर्व, अपमान और भय — यही सब राजनीतिक पूँजी बन गए हैं। इन भावनाओं को भड़काने और बनाए रखने के लिए भारी खर्च होता है — टीवी विज्ञापन, रैलियाँ, सोशल मीडिया अभियानों पर करोड़ों रुपये बहाए जाते हैं। इसलिए हर चुनाव पिछले से महँगा होता जा रहा है। जितना ज़्यादा पैसा, उतनी ज़्यादा आवाज़ — और नीति फिर कहीं पीछे छूट जाती है। लोकतंत्र का विमर्श धीरे-धीरे संवेदना से हटकर सनसनी की ओर जा चुका है। भारत में किसी न किसी स्तर का चुनाव हमेशा चलता रहता है — लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम या पंचायत। इस “लगातार चुनाव” ने शासन को ठहरा दिया है। हर चुनाव के समय प्रशासन चुनाव ड्यूटी में लग जाता है, योजनाएँ रुक जाती हैं, और शासन की प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। देश लगातार “चुनावी मोड” में है, पर “शासन मोड” में कभी नहीं। इससे नीतियाँ अधूरी, और जनता की उम्मीदें अधर में लटक जाती हैं।
लोकतंत्र की असली कीमत
हर पाँच साल में ₹1.35 लाख करोड़ का यह खर्च सिर्फ़ आँकड़ा नहीं — यह हमारे लोकतंत्र का आईना है। यह बताता है कि हमने राजनीति को सेवा से प्रदर्शन में बदल दिया है। अब हम प्रतिनिधि नहीं चुनते — हम ब्रांड खरीदते हैं। हर हेलिकॉप्टर की उड़ान, हर काफ़िले की सुरक्षा, और हर चमकता मंच — किसी न किसी अधूरे स्कूल, टूटी सड़क या बेरोज़गार युवा के हिस्से से आया है। लोकतंत्र का ढाँचा मज़बूत है, लेकिन उसकी आत्मा थक चुकी है। जनता वोट डालती है, पर उसके नतीजे जनता से दूर चले जाते हैं।
सादगी ही असली शान है
कभी इस देश में नेता जीप में घूमते थे, मिट्टी पर बैठकर लोगों से बात करते थे। अब वही राजनीति निजी विमानों, मंचों और सोशल मीडिया अभियानों में बदल गई है। जरूरत है उस सादगी की वापसी की — जहाँ जनप्रतिनिधि दिखावे से नहीं, अपने कर्म से पहचाने जाएँ। जहाँ प्रचार की जगह संवाद हो, और सत्ता की जगह सेवा। राजनीतिक चंदा पारदर्शी हो, प्रचार का खर्च सीमित हो, और जनता के टैक्स से मिलने वाली सुविधाओं पर सख़्त नियंत्रण हो। लोकतंत्र तभी सच्चा होगा जब सत्ता बोझ बने, प्रतिष्ठा नहीं। भारत अब भी एक चमत्कार है — एक ऐसा देश जहाँ अरबों लोग शांतिपूर्वक अपने शासक चुनते हैं। लेकिन यह चमत्कार तभी बचेगा जब हम उसे सादगी और ईमानदारी से संभालेंगे।
आज सवाल यही है —क्या हम सत्ता को सेवा बनाना चाहते हैं, या उसे हमेशा का व्यवसाय बनाए रखना चाहते हैं? लोकतंत्र की मजबूती इस पर नहीं निर्भर करती कि कितने लोग वोट डालते हैं, बल्कि इस पर कि सत्ता में बैठे लोग जनता के धन और विश्वास का कितना सम्मान करते हैं। “जब सत्ता उत्पाद बन जाए, लोकतंत्र बाज़ार बन जाता है — और बाज़ार में ईमानदारी कभी सस्ती नहीं बिकती।”