गयाजी की वृहतर सास्कृतिक यात्रा पर यदि गौर करें तो यह प्राचीन ग्रीक के ऐथेंस और स्पार्ट जैसा लगता है। ग्रीक में ओलंपिक यानी क्रीड़ा स्पर्धा की परमपरा र्थी। गयाजी में भी क्रीड़ा प्रतिस्पार्धा एवं अमोदप्रमोद की स्वस्थ व रचनातमक परम्परा थी। ग्रीक की ओलंपिक की परम्परा पुनर्जीवित हो गयी है लेकिन गयाजी की वह परंपरा पुनर्जीवन की आशा में है।
ओलंपिक की कहानी प्राचीन ग्रीक एथलेटिक उत्सवों से शुरू होती है जो 776 ईसा पूर्व के आसपास ओलंपिया में आयोजित किए जाते थे और देवताओं का सम्मान करते थे। लेकिन, ग्रीक की सभ्यता-संस्कृति के समाप्त होते ही वह परंपरा भी लुप्त हो गयी। हजारों वर्षों बाद पियरे डी कुबेर्टिन ने 1894 में इन खेलों को पुनर्जीवित किया, जिसके बाद 1896 में एथेंस में पहला आधुनिक ओलंपिक खेल आयोजित किया गया। तब से, ओलंपिक खेल हर चार साल में एक अलग मेजबान शहर में आयोजित किए जाते हैं।
विष्णु और पीतरों की नगरी गयाजी पर लक्ष्मी के साथ ही सरस्वती, गणेश और हनुमानजी की भी कृपा रही है। एक जमाना था जब भारत के इस अद्वितीय तीर्थ पर होने वाली क्रीड़ा प्रतियोगिता और मनोरंजन की रचनात्मक गतिविधि की चर्चा भारत और भारत से बाहर विदेशों में भी होती थी। वह कालखंड तीर्थ नगरी गयाजी के शान-शौकत का बेमिसाल ज़माना था। राजाराजवाड़े, नामचीन व्यापारी, कलाकार, ज्ञानी सबकी यहां जमावड़ा होती थी। जाहिर है ऐसे में यहां बेशुमार धन का प्रवाह था। ज्ञान के साथ संपन्नता उत्कर्ष पर थी। यह स्थिति क्रीड़ा और कला के विकास के लिए अनुकूल थी।
उसी काल खंड में पवित्र गयाजी में गयापालों की विशाल महलनुमा नक्कशेदार भवनों का निर्माण हुआ था। कहा जाता है कि भारत के कई इमामबाड़े गयापालों के कलात्मक विशाल भवनों की नकल कर बनाये गए थे। हवादार आड़ी तिरछी गलियों में बड़ी-बड़ी ईमारतें गयाजी की विशेषताओं में शामिल थी।
उनमें एक से एक नक्काशी, कसीदाकढ़ी करवाई गई। ठाकुरबाड़ियां बनीं, अखाड़े बने, बगान बने, हवेलियां बनीं, ड्योढ़ियां बनीं, गोशालाएं बनीं, अस्तबल बने, बैठकें बनीं तथा उतारे बने। उतारे में गया श्राद्ध कर पितृ ऋण उतारनेवाले यात्री ठहराए जाते थे।
पूजा-पाठ ठाकुरबाड़ियों में होती थी। बैठकों में गाना-बजाना, सामूहिक विचार-विमर्श होते थे। ध्रुपद, ठुमरी गायन की गयाजी घराना का पूरे भारत में अपना पहचान था।
इसके साथ ही पक्षी पालन और प्रशिक्षण के मामले में गयाजी का नाम था। तीतर, बुलबुल, चकोर की पाली यानि बल-प्रदर्शन प्रतियोगिता तथा तरह-तरह की चिड़ियों की नुमाइश होती थी।
गयाजी की सुरक्षा की अपनी व्यवस्था थी। अतः गयापालों के पास उतम हथियार और उन हथियारों को चलाने में दक्ष योद्धा भी होते थे। राजा राजवाडे़ की तरह हथियारों के रख-रखाव की व्यवस्था थी।
अखाड़े में ज़ोर होते तथा कसरत-कुश्ती होती थी। ड्योढ़ी पर अमला-जुमला रहते थे। इनके यहां पनाह पानेवाले अमले-जुमले के वर्गमें ड्योढ़ीदार, सिपाही, अचारज, पुजारी, पुरोहित, दीवान, टेसनिया यानि स्टेशन से यजमान लानेवाले, फेरीदार अर्थात् जजमानी में घूमनेवाले, सथवा यानि बंगाली रोज़गारी, लौड़ी तथा छौड़ा-छौड़ी आदि गिने जा सकते हैं।
अच्छी-अच्छी नसल के घोड़े पंडों के यहां पाले जाते थे जिन पर सवारी कसी जाती थी और वे लैंडो, फिटिन, पालकी गाड़ी तथा बग्गी में जुतते थे। एक से एक चिड़िया पाली जाती थी, यथा-काकातुआ, टेटियाँ, टुइयाँ, देशी मैना, पहाड़ी मैना, तीतर, चकोर, बुलबुल, मोर, सारस, चीनी मुर्गा, नकलोल, कुटिसा, हरेवा, दहियल, लाल, चिपुरनी, तूती, बजड़ी, पिंच तथा कबूतर आदि। कबूतर कई तरह के होते थे तामड़ा, जाग, सब्जा, निसौड़ तथा अमरसरा आदि। सैकड़ों कबूतर भांड़ियों में रहते थे और गर्मी के दिनों में सुबह और जाड़े के दिनों में शाम को ये आकाश में छा जाते तथा तह पर उड़ते-उड़ते अदृश्य हो जाया करते थे। तह पर ऊंची उड़ान भरते ये कबूतर बाज के झपट्टे से कभी उनके चंगुल में आ जाते थे। यदि घनघोर शोर किए जाने पर बाज की झपट से कोई कबूतर बच जाता तो आकाश से नीचे गिरे उस कबूतर की चिकित्सा होती और उसे नव-जीवन दान में मिलता था।
जीवात्मा को एक नियंत्रित, स्वस्थ, सुंदर और नैसर्गिक वातावरण देना, उनकी सेवा-सुश्रुषा में समर्पित भाव रखना इनके जीव-प्रेम का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
गया तीर्थपुरोहितों की दिनचर्या में पशु-पक्षी के प्रति इनका प्रेमभाव इनके चरित्र का एक उल्लेखनीय प्रसंग सिद्ध होता है।
इसी तरह गयापाल पंडों का पतंग उड़ाना भी जैसे अपने विचारों से गगन चूमने जैसा लगता है। गगनचुम्बी उन्नति के लिए मार्ग के विघ्नों को काटना और फिर बढ़ने के लिए आगे का रास्ता निकालना इनके पतंग उड़ाने की कला से परिलक्षित होता है। शीतकाल के दिनों में इनके पतंगों से अंतर्गया या अंदर गया का आकाश भर जाया करता था। एक से एक विशाल, आकर्षक, भारी-भरकम लटईं और उन पर लिपटे मॅजे, तेज-तर्रार धागे से जुड़े आकाश में उड़ते पतंग, जैसे डांकड़ा, मॅगटिक्का, घायल, लाल पहाड़ा, दुबाज, चरबागुल एक दूसरे को काटते, बढ़ते आकश को छूते होते थे।
इनके यहां बैठकों की सांगीतिक गोष्ठियों में एक से एक गायक, जैसे- फैयाज खाँ, मौजुद्दीन खाँ, बेगम अख्तर, रसूलन बाई आदि, तबला वादकों में कण्टे महराज, मौलवी राम, किशन महराज, गोदइ महराज आदि, सरोद वादकों में नब्बू खाँ, हाफिज़ अलि खाँ आदि तथा शहनाइ वादकों में बिसमिल्लाह खाँ आदि सिरकत करते रहते थे। इनके बीच गयापाल इसराज वादक कन्हैयालाल ढेढ़ी, बुल्लकलाल भिक्खम भैया, सरोदवादक बिहारीलाल महतो, मदनमोहनलाल वारीक, हारमोनियम वादक माधवलाल कटरियार, दादू बाबू वारीक, गोविंद बाबू नकफोका शंकर बाबू परवतिया, बच्चू बाबू बौधिया, मुन्नी बाबू झंगर बहुचर्चित रहे हैं। इनके गाने-बजाने में करुणाजनक आत्म-निवेदन की व्याकुलता, सुर-लय लहरी से इनके समर्पण के भाव को इनकी सांगीतिक प्रस्तुति में अत्यंत हृदयस्पर्शी बना देती थी। कहा जाता है- इनकी संगीत-साधना प्रदर्शन नहीं साधना थी।
एक लम्बे अरसे तक गयापाल समुदाय के बीच मल्ल क्रीड़ा का झंडा गड़ा रहा। साहित्य संसार के चमकते सितारे के रूप में महाकवि मोहनलाल महतो वियोगी की जन्मभूमि गयाजी हैं। कबीर की परमपरा वाले महतोजी गया के पंडा थे। बालपन से ही अखाड़े में कुश्ती का अभ्यास था। महाप्राण निराला की तरह शरीर से बलिष्ठ वियोगीजी के अंतर में काव्य की धारा प्रवाहित थी। पराधीन भारत का दर्द और त्रितापों से पीड़ित मानव के प्रति संवेदना उनकी काव्य में प्रस्फुटित थी। इस अर्थ में वे आदि कवि महर्षि बाल्मीकि की परंपरा में दिखते हैं।
गयापालों की समृद्ध परंपरा में साहित्य के साथ ही पहलवानी को भी संरक्षण मिलता था। रुस्तमेजहान गामा पहलवान तथा उनके भाई ईमामबख्श आदि इनके यहां पनाह पाते थे। बलवान पहलवान गयापाल नारायण जाट का नाम चारों ओर फैला था। मोतीलाल बिठ्ठल तथा माधवलाल बिठ्ठल ऊँचे जोड़ के पहलवान थे। गोविंदलाल सिजुआर, किशनलाल मेहरवार रईस पहलवान थे। पहलवानी में माधव लाल बौधिया, नारूलाल कटरियार, रामनाथ बाबू मेहरवार आदि के भी नाम गिनाए जाते हैं। इनकी मल्ल साधना में कोई प्रतियोगिता नहीं वरन् बल-संयम तथा शक्ति संपन्नता का प्रतिमान था।