आश्विन कृष्णपक्ष जिसे पितृपक्ष कहते है। इसी पितृपक्ष के अवसर पर गयाजी में श्राद्ध को लोग महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन, वर्ष में तीन पितृपक्ष हैं और तीनों अवसरों पर श्राद्ध का समान फल है। शास्त्रीय मान्यता है कि वर्ष में तीन बार संक्रांति होती है और इसके कारण तीन पक्ष पितृपक्ष होते हैं। प्रतिवर्ष कन्या की संक्रांति अर्थात् आश्विन कृष्णपक्ष यानि पितृपक्ष महालय, मकर संक्रांति अर्थात् पौष कृष्ण तथा मेष संक्रांति अर्थात् चौत्र कृष्णपक्ष गयाश्राद्ध के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यदि तीनों पितृपक्षों के समान महत्व की जानकारी लोगों तक पहुंचे तो गया का तीर्थ पर्यटन और समृद्ध हो सकता है। इससे इस प्राचीन तीर्थ की जीवंतता और सुविधा का विकास संभव है।
लोक में आश्विन पितृपक्ष का स्थान सर्वाेपरि मान लिया गया है। इस काल में सूर्य पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध के सम्मुख होते हैं। अग्नि का सोम में लय होने लगता है। इसी शीतप्रधान काल को महालय कहते हैं। वस्तुतः गया श्राद्ध जिसे वृहत् गयायज्ञ कहते हैं वह तृपाक्षिक है अर्थात् पूर्णमासी, सम्पूर्ण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष प्रतिपद। तृरात्रि या एक रात्रि रहकर भी गया में गया श्राद्ध करने का विधान है। इसके साथ ही ‘गयायाम् सर्वकालेषु पिण्डं दद्यात् विचक्षणाः’ के अनुसार गया में कभी, किसी समय पिंडदान की महिमा है। कुछ श्राद्धकर्मी मात्र फल्गु, विष्णुपद तथा अक्षयवट वेदियों पर पिंडदान करते हैं। कुछ श्राद्धकर्मी वृहद् गयाश्राद्ध के अंतर्गत गयातीर्थ के उत्तरी छोर पर स्थित प्रेतशिला, रामशिला आदि वेदियों सहित इस तीर्थ के दक्षिणी प्रसार- धर्मारण्य क्षेत्रीय वेदियों तक पैंतालीस वेदियों पर श्राद्ध सम्पन्न करते हैं। कहीं-कहीं पैंतीस वेदियों तक ही गयाश्राद्ध संपन्न माना जाता है।
अपघात मृतप्राणी के लिए नारायणबलि श्राद्ध का विधान है। प्रेतबाधा निवारणार्थ विष्णुपद के समीप गयाकूप में श्राद्ध होता है। अनेक श्राद्धकर्मी प्रेतबाधा से छुटकारा के लिए प्रेतशिल या धर्मारण्य जाते हैं। प्रेतशिला वेदी पर कर ग्रहण करनेवाले धानुष्क प्रेत कहे गए हैं- प्रेताः धानुष्क रूपेण कर ग्रहण कारकाः।’ इस कर का ब्रह्मोत्तर गायापाल तीर्थपुरोहितों को मिलता है। प्रायः समस्त पिंडदान की वेदियों पर श्राद्धकर्मियों को कर देना पड़ता है। इस कर विधान का पुराना नाम श्बलिश् अर्थात् समर्पण है, जो धर्मराज्य के प्रति धर्मदाय है।
पितरों को पिंडदान करने का पहला अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को है- सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्ठेनैव तु यत् कृतम। गया श्राद्ध शुरू करने के पहले तीर्थयात्री कुलदेव पूजन, ग्रामदेव पूजन, गयातीर्थ से पहले मिलेनवाली नदी में स्नान-तर्पण आदि करते हैं और पश्चात् संन्यस्त भाव से तीर्थपुरोहित के आश्रय में उन्हें तीर्थगुरु वरण कर आचार्य के या गयापाल के नेतृत्व में गयातीर्थ की वेदियों पर पिंडदान करते हैं। पिंड हविष्य या जव के आटे से बनता है।
तीन पीढ़ियों तक पितरों की तथा बंधुवर्गादि की पिंड-प्रतिष्ठा होती है, यथा- पिता, पितामह, प्रपितामह तथा माता, मातामह, प्रमातामह आदि इत्यादि। प्रतिष्ठित पिंड की पूजा होती है। पश्चात् पदासीन पितरों के मंडल से बाहर सव्य हो पश्चिम की ओर पंचबलि, यथा- गोबलि, श्वानबलि, काकबलि, देवादिबलि तथा पिण्पालिकादि बलि होती है। पिंडदान के बाद पिंड को हिलाकर विसर्जित किया जाता है। गयायज्ञ में पिंडदान के बाद पुरश्चरण का विधान है। गयाश्राद्ध का समापान, अक्षयवट में गया तीर्थपुरोहित के सुफल स्वस्तिवाचन से होता है।

पितृकर्म में वाक्य शुद्धि तथा क्रियाशुद्धि आवश्यक हैं। पितृगण के लिए श्रद्धापूर्वक किया जानेवाला कर्मविशेष श्राद्ध है श्रद्धया इदम् श्राद्धम। मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध हैं नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधिम श्राद्ध मुच्यते। यम स्मृति में श्राद्ध पाँच प्रकार के हैं नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धि श्राद्धमचापरम् पार्वणं चेति विज्ञेयं श्राद्धं पंचविधं बुधैः। भौतिक शरीर के अंत होने पर और्ध्वदैहिक संस्कार दशगात्र, पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध, एकादश, सर्पिर्डिकरण, अशौच निर्णय, कर्म विपाक आदि के सनातनी धर्मशास्त्रीय कर्मकाण्ड की पुस्तकों में यथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्त्व, पितृदयिता आदि में उपलब्ध हैं। मनुस्मृति में महर्षि पराशर कहते हैं- देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत्। तिलैर्वर्मेश्च मंत्रैश्च श्राद्धं स्याच्छूद्धयायुतम् अर्थात् देश, काल, पात्र में हविष्यादि द्वारा जो कर्म तिल, यव, दर्भ सहित मंत्रों द्वारा श्रद्धापूर्वक किया जाए वह श्राद्ध है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है सूक्ष्म शरीरघारी पितर जीवित मनुष्यों में छिपे होते हैं तथा जल, अग्नि, वायुप्रधान होते हैं। वे लोकलोकांतर में जा सकते हैं। वायुपुराण में वर्णन है जैसे गोमाता बछड़े को ढूँढ़ लेती है वैसे ही मंत्र तद्वस्तुजन्य को प्राणी के पास पहुँचा देता है। श्राद्ध में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मार्तण्ड सूर्य यानी दिन के मध्य वेला में श्राद्ध उत्तम माना जाता है। श्राद्ध में खड़गपात्र, कम्बल, चाँदी, कुश, तिल, घी तथा दौहित्र कुतप फलदायी हैं।
विष्णु के शरीर से उत्पन्न कुश तथा काला तिल श्राद्ध-रक्षा में सर्व समर्थ हैं। तुसली से पिंड की अर्चना करने पर पितर प्रलय पर्यंत तृप्त रहते हैं। स्मृतिसार के अनुसार अगस्त्य पुष्प, भृंगराज, तुलसी, शतपत्रिका, चम्पा, तिल, पुष्प पितरों को विशेष प्रिय हैं। श्राद्ध में अन्य प्रयोजनीय अन्न तथा फल में गोदुग्ध, दही, जव, धान, गेंहू, मूंग, साँवा, सरसों का तेल, तिन्नि का चावल, आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, कैथ, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्रजौ तथा भतुआ है।
श्राद्ध करानेवाले ब्राह्मण को ब्राह्मण के गुणों से संपन्न होना चाहिए। धूप, दीप, मधु, घी, दूध, जल, तिल, अन्न- ये पिण्डदान के अष्टांग हैं। पिंड का आकार आँवले के बराबर होता है। ताम्रपत्र तथा पलाशपात्र श्राद्ध में अनिवार्य हैं। वेदी पर कुश बिछाने की क्रिया को कुशास्तरण कहते हैं। मोटक अर्थात् कुशवटु के पितृ ब्राह्मण प्रतिनिधि हैं। पिंडदान के दशोपचार हैं- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य। अंगूठे तथा तर्जनी के मध्य भाग से अर्थात् पितृतीर्थ से पिंड पर पोषणार्थ दिया जानेवाला जल प्रत्यवेजन कहलाता है। हाथ के अंगुष्ठमूल यानि ब्रह्मतीर्थ से स्वधावाचन के साथ पिंड प्रतिष्ठित किए जाते हैं।