
गयाजी कई मामलों में अन्य तीर्थों से निराला हैं। मुसलमानों के आक्रमण के बाद हिंदू समाज में तेजी से विघटन शुरू हो गया था। जातीय विभेद बढ़ने लगे थे। युद्ध में जो पराजित हो जाते थे उनके साथ अमानवीय अत्याचार होता था। उनसे मैला ढोने का काम लिया जाता था। इस प्रकार जो क्षत्रीय थे वे अश्पृश्य की श्रेणी में चले गए। हजारों वर्षो के उस कालखंड में गोत्र की जगह जाति की प्रधानता हो गयी। जाति की प्रधानता के समय गयापाल समाज ने सभी जातियों की उपधियों को अपना कर सांस्कृतिक पुनर्व्याख्या (कल्चरल रिविजिट) जैसा एक सामूहिक प्रयास किया था।
गयापालों के ऐसे प्रयास की चर्चा न तो अकादमिक जगत में होती है ओर ना ही सामाजिक और सांस्कृतिक जगत में। जबकि, गयाजी के पंडा समाज की यह परम्परा भारत में सामाजिक समरसता की दृढ़ता के लिए एक माडल के रूप में आज भी प्रासंगिक है।
मध्यकाल में भी गयावालों की समाज में प्रतिष्ठा थी। उनकी प्रमुखता को सभी स्वीकारते थे। उसी समय से, हम गयावालों और मुसलमानों के बीच एक जातीय विद्वेष तथा असहिष्णुता की भावना देखते हैं। 1113 ई० में बख्तियार खिलजी के आक्रमण से गयाजी आक्रांत हुए थे। असंख्य आराध्य प्रतिमाओं के साथ अमर्यादित राक्षसी व्यवहार हुए थे। ऐसे में प्राण रक्षा के लिए अनेक संन्यासी, परिव्राजक, भिक्षु और विद्वान आचार्य भी गयाजी छोड़ने पर मजबूर हुए थे। बहुत लोग तिब्बत, नेपाल तथा दक्षिण भारत की ओर भागे और इस तरह बौद्ध धर्म जो बिहार का एक लोकप्रिय धर्म था और जिसकी अन्तिम सांसें उत्तरी भारत में चल रही थी, उसको समाप्त प्राय कर दिया गया।
इस आक्रमण के बाद से ही गया मुसलमानी शासन के अन्तर्गत चली आयी और इसका इतिहास भी सूबे बिहार के साथ अंतर्भुक्त हो गया। मुसलमानों के इस आक्रमण तथा विजय से गयावालों का सामान्य जीवन बड़ा ही लड़खड़ा गया। उनके समक्ष अनिश्चितता थी। अपनी शुद्धता तथा धर्म को बचाए रखने के ख्याल से इन्होंने गया छोड़कर पड़ोस के गांवों में शरण लेना उचित समझा। कुरकीहार, परोरिया, महाबोधि, दुमल, कटारी आदि गांवों में गयाजी के पंडों ने बसना आरम्भ किया। इस तरह गया की आबादी घटने लगी और यात्रियों का आना भी कम हो गया। एक शोध के अनुसार इस संकट के समय में गयापालों ने अपने नाम के साथ गैरब्राह्मण उपाधियों को जोड़ने की परंपरा चलायी। यह परम्परा आज भी जीवित है। नकफोफा, हाड़ा, घोकड़ी, धोकड़ेश्वर, महतो, अहीर, कुट्टी, भइया, जज, बौधिया, पहाड़ी, महथा, पांडे, मिश्र, पध्या, गुर्दा, गायब, चौधरी, गुप्त, कटरियार, बारिक, टाटक, पाठक, दुबे, दुभलिया, चिरैयाँ, अगिनवार, मेहरवार, बड्डीहा, ढेढ़ी, सिजुआर, पसेरा, चारयारी, खड़खउका, गोस्वामी, हल, विठ्ठल, मउआर, झंगर आदि इनकी वंश उपाधियां है। इससे उस समय उनकी प्राणों की रक्षा हुई थी।
वर्तमान में उनकी यह व्यवस्था सम्पूर्ण हिंदू समाज को ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का संदेश दे रहा है। सामाजिक समरसता का यह एक निराला माडल है।
संभवतः गया के पंडों के चौदह सौ चौरासी घराने थे। वर्तमान समय में इनकी जनसंख्या लगभग तीन हजार है। ये विष्णुपद के पास जन्म लेते हैं। यहीं इनका विवाह होता है और यहीं पूरा जीवन व्यतीत करने के बाद इनका देहांत हो जाता है। कुछ गयापालों के यहां इनकी कई पीढ़ियों की वंशावली लिखित रूप में उपलब्ध है। गयापाल तीर्थपुरोहितों का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता। बहुत कुछ परंपरा से मौखिक रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंची है। गया के पंड़ों की अपनी कूट भाषा है जिसे बाहर के लोग नहीं समझ सकते। गयापाल अपनी भाषा को एकसिराही कहते हैं।

गया के पंडों को अग्निहोत्र तीर्थपुरोहित और ब्रह्म प्रकल्पित ब्राह्मण भी कहा गया हैं। आग्नेय चंद्रिका में इनकी चर्चा है। अमानुषा गयार्विप्राः ब्रह्मणा ये च प्रकल्पिताः । तेषु तुष्टेषु पितृभिस्सह गुह्यकाः अर्थात् गया के अग्निहोत्र विप्र ब्रह्मकल्पित हैं। इनकी संतुष्टि से पितरों के साथ देवों की संतुष्टि होती है। ये माध्व-संप्रदाय के अनुयायी, द्वैत वेदांती हैं। इंदौर की महारानी अहल्या बाई होल्कर द्वारा निर्मित विष्णुपद मंदिर के आसपास ये प्रायः दो किलोमीटर में बसे हैं। जन-धर्म आदेश से इन्हें विष्णुपद वेदी पर तथा गयातीर्थ की अन्य वेदियों पर श्राद्ध तथा पूजा करने-करवाने का अधिकार प्राप्त है। इन्हीं से गयातीर्थ की महिमा है। ये साक्षात् विष्णु स्वरूप पूजित हैं। आरंभ में गौतम, कश्यप, कौरस, कौशिक, कण्व, भारद्वाज, औसनस, वत्स, पराशर, सनत्कुमार, माण्डण्य, लौंगाक्षि, वशिष्ठ, अत्रि इनके चौदह गोत्र थे।
संकट के उसे काल में भी धर्म के प्रति दृढ़ हिंदुओं के गया तीर्थ आने का सिलसिला जारी रहा। किंतु उनलोगों को भी मुसलमान शासन के करपरताजों तथा लुटेरों से त्राण न था। यह स्थिति लगभग दो या तीन शताब्दियों तक रही थी। इस बीच इस तीर्थ को मजहबी अत्याचारी आक्रमणकारियों के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास जारी रहा। इस कालखंड में गयापालों के प्रयास से एक सामाजिक रचना खड़ी हुई थी जिसमें समाज के अन्य वर्ग के लोग भी शामिल थे। गया धाम को बचाने के लिए धानुक समाज के लोगों ने अपना बलिदान किया था। उन्हंे धामी पंडा की पदवी देकर सम्मान दिया गया।
उदयपुर के महाराणा लक्षा, जिन्होंने संवत् 1446 में गया की यात्री की थी। उन्हांेने तातारियों के विरूद्ध लड़ाई छेड़ दी। ततारी सुन्नी मुसलमान थे जो अत्यंत क्रकुर और पाश्विक थे। दुर्भाग्यवश वे अपने प्रयत्न में सफल न हो सके और लड़ाई के मैदान में ही वीरगति को प्राप्त हुए। उनके पुत्रों तथा पोतों ने करीब पांच पीढ़ियों तक इस लड़ाई को जारी रखा। राणा लक्षा की छठी पीढ़ी में राणा सांगा का जन्म हुआ, जो 1509 ई० में उदयपुर का राणा हुए थे। राणा सांगा अपने इस प्रयत्न में सफल हुए थे। उन्होंने गया को तातारियों के चंगुल से मुक्त कराया था। फिर औरंगजेब के समय गयाजी पर संकट के बादल छाये थे। गया के पंडों ने कई शताब्दियों तक सम्पूर्ण हिंदू समाज को जातीय विद्वेष से मुक्त कराने के जो प्रयास किए थे उसके अनुकूल परिणाम हुए।
गयापालों में अहिर, महतो, बेलदार, भूइया जैसे उपनाम मिलते हैं। इसके कारण समाज के पिछड़े या श्रमिक वर्ग में एक सदेश गया कि वे भी सम्मान के हकदार हैं। उनका स्वाभिमान जगा और वे विदेशी आक्रामणकारियों से लड़ाई में उनके साथ हो गए। गयाजी में होने वाले श्राद्ध में छठ व्रत जैसा वातावरण होता है। सभी एक समान होते हैं। ऊंच-नीच, छूआछूत का भाव कही नहीं दिखता। सभी समान रूप से पितरों को तर्पण और पिंडदान करने के अधिकारी होते हैं।