गया तीर्थ की वेदियां भारत की सांस्कृतिक इतिहास की साक्षी हैं। इन वेदियों के आविर्भाव और इतिहास में अखंड भारत की एकात्मता के सूत्र मिलते हैं। इन वेदियों के पास चारो दिशाओं से आने वाले तीर्थ यात्री अपने परम्परागत पहचान वेश-भूषा के साथ कर्मकांड में तल्लीन दिखते है। इस प्रकार अनेकता में एकता की संस्कृति इस तीर्थ पर साकार दिखती है। भाषा, क्षेत्रीयता की भावना के ऊपर महान ऋषि पीतरों की संतान होने का बोध एक का ही अनेक रूप होने का अहसास कराता है। इस अर्थ में गयाजी की वेदियां भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक मानी जा सकती हैं।
विष्णुपद वेदियों के केन्द्र में है। इससे उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चारों ओर कई कलोमीटर तक पिंडदान, तर्पण, दर्शन-स्पर्शन की वेदियां हैं। जिन में कुछ गुप्त हो गईं, कुछ लुप्त हो रही हैं। गयाजी तीर्थ को लेकर युगानुकूल योजना का अभाव रहा है जिसके कारण अनेक महत्वपूर्ण वेदियों पर व्यवस्था का अभाव है। वैसे वेदियों की कुल संख्या 360 थी लेकिन अब मुश्किल से 40-50 ही दृश्यमान हैं। उत्तर में राजगृह से दक्षिण कोलेश्वरी तक के प्रसार में ये वेदियां अवस्थित थीं।
विष्णुपद फल्गु नदी वेदी के किनारे अवस्थित है। यह, फल्गु नदी वेदी गदाधरघाट से पितामहेश्वर स्थित उत्तरमानस-दक्षिण से उत्तर प्रायः तीन किलोमीटर तक फैली है। विष्णुपद से उत्तर प्रायः 15 किलोमीटर पर रामशिला, प्रेतशिला, रामकुंड, रामेश्वर, प्रभासतीर्थ, नगपर्वत, कागबलि, प्रेतपर्वत, ब्रह्मकुंड, ब्रह्मवेदी हैं। उत्तरमानस वेदी पितामहेश्वर के पास है। यहीं उत्तरार्क और मां शीतला हैं। विष्णुपद के निकट सूर्यकुंड में दक्षिणमानस, उदीची, कनखल वेदियों हैं। सूर्यकुंड के ऊपर सूर्यमंदिर दक्षिणार्क है। अंतर्गया, विष्णुपद से दक्षिण धर्मारण्य के पथ पर, सूर्यपुरा बस्ती से पूरब फल्गु नदी पार सरस्वती तीर्थ है। सरस्वती तीर्थ से दक्षिण धर्मारण्य, धर्मेश्वर, रहट कूप, धर्मयज्ञ स्तम्भ तथा मतंगवापी वेदियाँ हैं।
इन वेदियों के माध्यम से श्रद्धालुओं को भारत के दक्षिण,उत्तर, पूरब एवं पश्चिम सबका स्मरण हो जाता है। धर्मारण्य से पश्चिम बोधितरु अश्वत्थ है। इसके नीचे कपिलवस्तु के शाक्यवंशीय गौतम सिद्धार्थ ने पूर्व बुद्धों द्वारा दृष्ट प्रत्युत् समुत्पन्न अतीन्द्रिय अद्वैत न कारण है, न कार्य है, इसका बोध पाया।
इस वेदी के पास आने वालों में यह बोध होता है कि गौतमबुद्ध भी हमारे पूर्वज पीतर ही है। बौद्ध धर्म कोई अलग धर्म नहीं बल्कि सनातन धर्म की ही एक शाखा है। श्रद्धालुओं के हृृदयों में उतरने वाला यह अनुभव भारत को बांटने के षड़यंत्र का प्रभावशाली जवाब है।
गयाजी स्थित विष्णुपद से 15 किलोमीटर दक्षिण निरंजना नदी के किनारे महाभारत काल में विदित धर्मारण्य का यह क्षेत्र बोधगया के नाम से जाना जाता है। इसे उरुवेला तथा बुद्धगया भी कहते हैं। बोधितरु के नीचे समाधि संकल्पित होने के बाद वज्रासन पर उनमें अनके वासनात्मक वृत्तियाँ घनघोर विक्षेप लाने की कोशिश कीं लेकिन उन्हें हिला न सकीं। समाधि के धर्ममेघ से उनके विक्षेप नष्ट हुए। यही बोध तो गया पितृयज्ञ का सुफल है। यही तो सनातन की मूल प्रकृति है।
बोधगया, बोधितरू के नीचे आनेवाले विख्यात विदेशी साधकों की लंबी सूची है। ईसा की पाँचवीं शतक के आरंभिक दशकों में चीनी यात्री फाहियान, छठी शती में श्रीलंका के राजा शीलकला, शती में ही वियतनामी, पच्चीस वर्षीय भिक्षु खुप सुंग तथा इसी प्रसिद्ध चीनी यात्री इत्सिंग यहां आए थे। सातवीं शती के चौथे-पांचवें दशक में चीनी यात्री हवेनत्सांग आए थे। उनके विवरण में यहां की वेदियों के गौरवशाली अतीत और संवाद समन्वय का पता चलता है।

बोधितरु के नीचे वज्रासन पर गौतम सिद्धार्थ को ज्ञानलाभ होने के पूर्व इस स्थल को बोधिमंद या बोधिबंद भी कहा गया था। यह स्थान बोधिगया के नाम से भी जाना जाता था। बोधितरु ज्ञानस्थली वेदी तथा महाबोधि महाविहार की व्यवस्था बोधगया मंदिर प्रबंधकारिणी समिति देखती है। बोधितरु वेदी तथा महाबोधि महाविहार विश्व धरोहर की मान्यता से स्वीकृत यूनेस्को का विश्वदाय है। बोधितरु वेदी महाबोधि स्तूप से सटे पश्चिम है। जातककथा के अनुसार बुद्ध ने इसे पूजनीय कहा है। संभवतः यह मूल अश्वत्थ के पांचवें उत्तराधिकार में गिना जाता है। प्राचीन अभिचित्रण में इसे बुद्ध का स्थानापन्न दिखलाया गया है।
तुर्क आक्रमणकारियों के द्वारा विध्वंस किए जाने के बाद बोधगया स्थित शैव मठ महंथ घमंडी गिरि तक महाविहार की व्यवस्था से संबंधित तथ्य नहीं मिलते। महाविहार के व्यवस्थापक बोधगया महंथ रहे। सन् 1885 में ‘द लाइट ऑफ एशियाज’ के लेखक एडविन आरनॉल्ड ने प्रश्न उठाया था कि महाविहार की व्यवस्था क्यों न बौद्ध अनुयायियों को सुपुर्द कर दी जाए। इसके साथ ही बौद्धों को हिंदुओं से अलग करने का प्रयास अंग्रजों ने शुरू कर दिया। सन् 1949 ई० में बिहार विधानसभा द्वारा पारित विधेयक के अनुसार बोधगया मंदिर प्रबंधकारिणी समिति गठित हुई। 19 जून 1949 को बिहार के राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद यह विधेयक कानून बन गया। इसके बाद महंथ हरिहर गिरि से प्रबंध का औपचारिक अधिग्रहण हो गया। इसके बाद यहां की वेदियां श्रद्धालुओं से दूर होती चली गयीं।
धर्मारण्य जाने के मार्ग पर ब्रह्मसर, ब्रह्मकूप, काकबलि, वैतरणी, मार्कण्डेयेश्वर, भीमगया, पुण्डरीकाक्ष, भस्मकूट स्थित जनार्दन, मंगलागौरी स्थित गोप्रचार, आम्रसिंचन, तारकब्रह्म, माँ मंगाल गयातीर्थ की वेदियों हैं।
विष्णुपद मंदिर परिसर में रूद्रपद आदि 19 वेदियाँ मंडल में स्थित हैं। विष्णुपद मंदिर परिसर में पंचगणेश, रथमार्ग, कनकेश, केदार, नृसिंह, बावन तथा इंद्र हैं। मंदिर के चबूतरे पर तथा परिक्रमा में हनुमान जी, सौन, शिवलिंग वर्त्तमान है। परिसर में स्थित अनेक विग्रह अध्ययनीय हैं, जिनके पास पुरानी लिपि में शिलालेख भी हैं। विष्णुपद मंदिर के पास दक्षिण में जगन्नाथ हैं। मंदिर के पूर्वोत्तरीय पार्श्व में जिह्वालोल घाट पर गयेश्वरी हैं। यहां से लगभग पचास कदम उत्तर श्मशान चंडी हैं। पास में ही संगमेश हैं। विष्णुपद मार्ग पर मंदिर के निकट कामख्या हैं। विष्णुपद मंदिर से दक्षिण श्मशानघाट के पास बैद्यनाथ हैं। यहाँ से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर सुषुम्नेश्वर हैं। विष्णुपद के पास गदाधर घाट पर गदाधर हैं। गदाधरघाट का उत्तरी घाट जिह्वालोल है। गदाधर घाट से गया श्मशान घाट के मध्य मधुश्रवा है।
विष्णुपद मंदिर से दक्षिण वैद्यनाथ मंदिर के पास गयाकूप कृत्यशिला या करसिल्ली स्थित मुंडपृष्ठ, आदिगया, आदिगंदाधर तथा धौतपद हैं। वैद्यनाथ मंदिर से दक्षिण-पूर्व संकटा हैं। विष्णुपद मंदिर से पूर्व फल्गु पार नागकूट, भरताश्रम, रामगया, सीताकुंड, मतंगपद, हंसप्रयत्न तथा दशाश्वमेध हैं। वैद्यनाथ मंदिर से दक्षिण अक्षयवट, घृतकुल्या, मधुकुल्या, गदालोल, प्रपितामहेश्वर, रुक्मिणी कुंड, कपिलधारा, अग्निधारा, सोमधारा, गंधर्व पर्वत तथा कपिलेश्वर हैं। अक्षयवट से दक्षिण-पूर्व प्रायः ३ किलोमीटर पर पांडुशिला है। कोटीश, कोटितीर्थ, मधुसूदन, गोदावरी, गृद्धेश्वर अक्षयवट के पास हैं। ऋणमोचन, पापमोचन वशिष्ठकुंड, काशीखंड, महाकाशी, आकाशगंगा, पातालगंगा, अगस्त्यकुंड, भैरवनाथतीर्थ, गोदावरी पर हैं।
गदाधरघाट से उत्तर प्रायः दो किलो मीटर ब्राह्मणीघाट पर फल्गवीश, विरंचि-नारायण तथा गायत्रीघाट पर गायत्री देवी हैं। अक्षयवट से पश्चिम ब्रह्मयोनि तथा उद्यंतगिरि हैं। पहाड़ी से नीचे सावित्री हैं और सावित्रीकुंड हैं। पास में धौतपद है। विष्णुपद मार्ग पर कृष्णद्वारिका में कृष्ण हैं। गया कचहरी के पास विशाला हैं। यह वेदी बिसार तालाब के नाम से जाना जाता है। इसी वेदी के पास स्वर्णदीर्घिका वेदी है जिसे अब लोग दिग्धी कहते हैं। विष्णुपद, मार्ग के पास रामपुष्करिणी वेदी है जो रामसागर के नाम से जाना जाता है।
अंतर्गया यानि अंदरगया, ऊंपरडीह पर कर्दमालय है तथा कर्दमेश्वर हैं। गोबछवा यानि गया सैनिक छावनी के पास घेनुकारण्य तथा कामधेनु वेदियां हैं। यहां से और पश्चिम जम्बूकारण्य तथा यमुना नदियां हैं। मतलब गयाजी में सम्पूर्ण भारत है।