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संस्कृति

गयाजी यानी भारत बोध की भूमि

Swatva Desk
Last updated: September 13, 2025 1:17 pm
By Swatva Desk 152 Views
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13 Min Read
फल्गु नदी का मुख्य घाटफल्गु नदी का मुख्य घाट
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  विष्णुलाल वारिक गयापाल एवं भारतीय ज्ञान परंपरा के विशेषज्ञ

 

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गयाजी की सांस्कृतिक यात्रा कब और कैसे शुरू हुई, गयाजी का महात्म्य क्या है, इसका सम्पूर्ण वर्णन शायद शब्दों में संभव नहीं। परमब्रह्म के बारे में कहा गया है एकोहं बहुस्याम्। गयाजी के संदर्भ में भी यही कहना उचित होगा। इस अर्थ में गया बोध होने का अर्थ भारत का बोध हो जाना है। गयाजी भारत की संस्कृति और ज्ञान परंपरा का वह प्रवाह है जो तमाम विघ्न-बाधाओं को लांघते हुए, झीनी और मोटी अवस्था में आगे बढ़ती जा रही है। जैसे भारत की हस्ती नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही गयाजी का अस्तित्व भी प्रलयकाल तक विद्यमान रहेगा।
गयाजी के सम्पूर्ण कर्मकांड के केंद्र में मनुर्भव का ऋषि सिद्धांत है। यदि आप मनुष्य है तो आप में भारत है। भारत यानी ज्ञान में रमन करने वाला। मनुष्य यानी निद्रा, भय, भूख, मैथून के अलावा धर्म को धारण करने वाला मानव देहधारी जीवात्मा। गया श्राद्ध के क्रम में एक मनुष्य को प्रकृति और मानवेत्तर जीवों के प्रति दायित्व का बोध होता है। जैसे ही यह बोध हमारे मन-मस्तिष्क से होते हुए चिंतन और व्यवहार मंे उतरता है, सर्वेभवन्तु सुखिनः का सिद्धांत साकार होने लगता है।
गया श्राद्ध शुरू करने के पहले तीर्थयात्री कुलदेव पूजन, ग्रामदेव पूजन, गयातीर्थ से पहले मिलेनवाली नदी में स्नान-तर्पण आदि करते हैं। इसके बाद संन्यस्त भाव से तीर्थपुरोहित के आश्रय में उन्हें तीर्थगुरु वरण कर आचार्य के या गयापाल के नेतृत्व में गयातीर्थ की वेदियों पर पिंडदान करते हैं। पिंड हविष्य या जव के आटे से बनता है। एकादशी के दिन खोए का पिंडदान करते हैं। पिंड में काले तिल आदि का मिश्रण होता है। कुश की बनी पवित्री अंगुली में धारण की जाती है तथा कुश से बने मोटक का प्रयोग मार्जन आदि के लिए होता है। पितरों तथा विश्वदेव के आह्वान से पूर्व कुश का आसन लेते हैं। पिंडदान की मुद्रा अंतर्जाहनु है तथा अपसव्य होने का विधान है। इस अवसर पर अवगान एवं अवनेजन के विनियोग होते हैं। पिंडदान करने के पूर्व विश्वदेव की प्रतिष्ठा और पूजन के विधान हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि गयाजी व्यक्ति में वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव भरते हैं। मानव चेतना को उन्मूख कर उसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड और प्रकृति से जोड़ता है।
गया-तीर्थ पर पितृयज्ञ का सर्वाधिक महत्त्व है। पितृयज्ञ श्राद्ध है। तर्पण इसका अंगभूत है जिससे देव-पितरों को तृप्ति मिलती है। श्राद्ध का संबंध गति त्रय के तीसरे चरण विलय से है। पहला जन्म है, दूसरा जीवन और तीसरा विलय। श्रद्धा, मन का द्रवित होना है। श्रद्धान्वित द्रवीभूत मन गया श्राद्ध में पिंडदान करनेवाले पुत्र को दिवंगत पितृगण से जोड़ता है। यह घटना आधिभौतिक स्तर से ऊपर आधिदैविक स्तर पर घटती है। पुत्र पितृ-जीवांश के सोलह गुणों में आठ गुणों की समानता रखता है।
ऋग वेद के दसवे मंडल में यम के संबोधन में तीन सूक्त हैं। वह मृत का शासक है। वही सर्वप्रथम पितृयान से पितरों के मार्ग पर अग्रगामी होता है। पितरों एवं देवों के मार्ग भिन्न-भिन्न दिशाओं से ऊपर उठते हैं। पितृयान का मार्ग तरह-तरह के धुएँ और अंधकार से भरा है जो चंद्रलोक जाता है। कुछ पितृयान मार्ग मृतभवन से ब्रह्मलोक जाते हैं। अन्य पितृयान मार्ग मनुष्य से कीट तक की अनेक योनियों में गुण-कर्म के अनुसार लौटते हैं। मुक्तात्मा या जीवनमुक्त जीवात्मा यथार्थ सत्ता का उच्चांश है। इसकी शक्ति प्रसरणशील है। इसके अंदर चेतना दैवी अंश है। चेतना का परमात्मा से मिलन आनंदमय अवस्था में होता है। आनंदमय अवस्था मन के संशय, अधैर्य और भय के गिरने पर स्वतः स्फूर्त श्रद्धा का उत्स है। साधना की इस पराकाष्ठा में प्रारब्ध नष्ट हो जाता है। स्थूल शरीर क्रमशः सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर या लिंग शरीर को धारण करनेवाली जीवात्मा का आश्रय प्राणवायु है। प्राणवायु मन के आश्रय में है और मन इंद्रियों का समाहार है। जीवात्मा परमात्मा से मिलने के लिए सतत् प्रयत्नशील है लेकिन राग-द्वेष, अविद्या, अस्मिता और अभिनिवेश के कारण उस से पृथक है। लिंग शरीर यानि कारण शरीर सूक्ष्म शरीर धारण करता है, जिस के उपादान हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चंद्र आदि। लिंग शरीर मातृगर्भढूँढ़ता है जहाँ स्थूल शरीर का निर्माण होता है। पदार्थ का अत्यंताभाव नहीं वरन् रूपांतरण होता है। स्थूल शरीर के नष्ट होने पर सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है और सूक्ष्म शरीर की ग्रंथियों के खुलने पर लिंग शरीर शेष रह जाता है और क्रममुक्ति, में यह भी परमात्मा में विलीन हो जाता है। जीवात्मा की मुक्ति में द्वैत विघ्न है। मरणोपरांत सूक्ष्म शरीर चंद्रलोक जाना चाहता है पर जा नहीं पाता पर पिंडदान से लिंग शरीर की ग्रंथियाँ खुलती हैं और पदार्थ परमात्मा में विलीन हो जाता है अन्यथा प्रेतयोनि में भटकता है। प्रेतयोनि में जाने के बाद मृत प्राणी दूसरे के शरीर से अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है।

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मरणो उपरांत, क्रममुक्ति में उस सर्वाेच्च तक की पहुँच में पितृयान के पश्चात् देवयान मार्ग है किन्तु जन्म-मरण चक्र में सूक्ष्म शरीर के अंदर एकत्रित नैतिक प्रवृत्तियों से निर्मित लिंग शरीर जीवात्मा को एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में ले जाता रहता है। पितर का पारमाण्विक, तैजस, वायव्य लिंग शरीर अदृश्य होता है। यह उर्ध्वगमन करता है। योगी इसे उर्ध्वाकर्षण में देखते हैं। यह दर्शन त्रिगुणातीत दैवयोग है और त्वरा युगपत् घटित है। जन्म-मरण के बीच जीवन नाभिकीय ऊर्जा भोग और योग के धनात्मक ऋणात्मक द्वैत पर है और पितरों का वास प्रद्यौलोक में है जो दक्षिण की ओर झुकता है। यह लोक भूलोक तथा अंतरिक्ष से ऊपर है जिस में कई प्रकार के पितर हैं।यज्ञाश्रित आध्यात्मिक मुक्ति से भौतिक सिद्धि और भौतिक सिद्धि से आध्यात्मिक मुक्ति का यह तीर्थदर्शन अध्यात्म तथा अधिभूत के मध्य अधिदैव की अनिर्वचनीय लीला है जिसका उपादान कारण तथा निमित्त कारण दोनों वही है। इसे बुद्धि से नहीं देखा जा सकता क्योंकि बुद्धि सापेक्ष है और परमार्थ सत्ता निरपेक्ष। यज्ञ-यज्ञांग, वेद-वेदांग के साधन से साधक उस साध्य में तल्लीन हो सकता है।
पितृयज्ञ सविधान है। मनु स्मृति में श्राद्ध के सुफल का उल्लेख है। ‘श्राद्धकल्प’ के अनुसार पितृयज्ञ ही श्राद्ध है। श्राद्ध के अधिकारी का विवरण याज्ञवलक्य स्मृति, वृहत्पराशर स्मृति में मिलता है। वायुपराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण, नृसिंहपुराण, मत्स्यपुराण आदि पुराणों में पितृयज्ञ के वर्णन हैं।
श्राद्ध भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक तथा सांप्रदायिक परम्पराओं में वैविध्य से भरापूरा है। सनातन धर्मावलम्बियों के बीच जन्म के बाद नांदीमुख श्राद्ध से लगायत मरणोपरांत तक के श्राद्धों की एक लम्बी सूची है। श्राद्ध में पिंड की प्रतिष्ठा होती है। पिंड सोममय होता है क्योंकि सूक्ष्म शरीर की ग्रंथियाँ भी सोममय हैं। सोममय ग्रंथि को खोलने के लिए पिंडादान सोममय आहुति है। सोम में सोम की आहुति सोम को विष्कलित करती है। जगत् अग्नि सोमात्मक है और अग्नि विष्कलनधर्मा है। अग्नि में सोम की आहुति ग्रंथिभेदन है।’
नांदीमुख श्राद्ध में दही-चावल के पिंड का विधान है। मांगलिक अवसरों पर किए जानेवाले श्राद्ध आभ्युदयिक श्राद्ध कहलाते हैं। नांदीमुख श्राद्ध में पुत्रवान होने पर पिता अपने पितरों को इस श्राद्ध के द्वारा अपनी श्रद्धा समर्पित करते हैं। एकोदिष्ट श्राद्ध कई परंपराओं में जटिल हैं। एकोदिष्टश्राद्ध के उपरांत तिथिश्राद्ध तथा पार्वणश्राद्ध होते हैं।
उर्ध्वदैहिक गयाश्राद्ध की नाभिकीय वेदी विष्णुपद है। यहां आक्षांश और देशांतर रेखाएं विरल विष्णुपदीय वृत्त बनाती हैं, जिसे 360 अंशों में विभाजित कर सूर्य की गति निश्चित की जाती है। जीवांश यहां क्षिप्र गति से सूर्य की ओर आकर्षित होता है। सूर्य जिसका पर्यायवाची विष्णु है वह अपने प्रातकालीन सविता स्वरूप से तथा सांध्य आदित्य स्वरूप से पृथ्वी पर प्राणों का उत्सर्जन-विसर्जन करता है। पृथ्वी अपने क्रांतिवृत्त पर इसी उत्सर्जन-विसर्जन की गतियों से घूमती है। सूर्य और पृथ्वी के मध्य चंद्रमा एक सेतु है।एक दिन में समाप्त होने वाले श्राद्ध को एकाह कहते हैं। एकोदिष्ट तथा पार्वण श्राद्ध प्रायः सत्रह दिनों की अवधि में संपन्न होते हैं। महालय श्राद्ध त्रिपाक्षिक है। इन्हें अहीन कहते हैं। श्राद्ध के आठ प्रकार हो सकते हैं, यथा-आद्यश्राद्ध, मासिक श्राद्ध, उन्मासिक श्राद्ध, उन्वार्षिक पार्वण श्राद्ध, महालया, नाक्षत्रिक श्राद्ध तथा तीर्थश्राद्ध। आद्यश्राद्ध में दाह-संस्कार से सपिण्डीकरण तक मुख्य श्राद्ध हैं।


मरणोपारांत मृतक का सूक्ष्म शरीर सूर्य किरणों में प्रविष्ट होता है। पश्चात् इसकी यात्रा पाक्षिक, मासिक, ऋतुगत, षट्मासिक, उत्तरायणीय, दक्षिणायणीय तथा सांवत्सरिक होते हुए सूर्यलोक तक है। मृत स्थूल शरीर स्थित पिता का सूक्ष्म शरीर अग्न्याधान तथा अग्निहोत्र द्वारा पुत्र से जुड़ता है और तब आद्यश्राद्ध संपन्न होता है। तदनंतर मासिक श्राद्ध होता है। इस में दशपौर्णमास याग पाक्षिक तथा मासिक सूर्य किरण से मृतक के सूक्ष्म शरीर को पुत्र से जोड़ता है। इसी प्रकार ऋतुओं में चातुर्मास याग होता है। उन्मासिक तथा उन्वार्षिक श्राद्ध उत्तरायण तथा दक्षिणायण में होते हैं। सूक्ष्म शरीस्थ पितृप्राण से जुड़ने के लिए पुत्र इन श्राद्धों के पूर्व पशुबन्ध यज्ञ करता है। ‘उन्मासिक तथा उन्वार्षिक श्राद्धों से सूर्य की ओर गति होती है। प्रतिमास मृतक की मरणतिथि पर्यंत श्राद्ध एकोदिष्ट श्राद्ध है।
एकोदिष्ट श्राद्ध के पश्चात् गया-श्राद्ध का विधान है। प्रतिवर्ष कन्या की संक्रांति अर्थात् आश्विन कृष्णपक्ष यानि पितपृक्ष महालय, मकर संक्रांति अर्थात् पौष कृष्ण तथा मेष संक्रांति अर्थात् चौत्र कृष्णपक्ष गयाश्राद्ध के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इन में पितृपक्ष का स्थान सर्वाेपरि है। इस काल में सूर्य पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध के सम्मुख होता है। अग्नि का सोम में लय होने लगता है। इसी शीतप्रधान काल को महालय कहते हैं।
वस्तुतः गया श्राद्ध जिसे वृहत् गयायज्ञ कहते हैं वह तृपाक्षिक है अर्थात् पूर्णमासी, सम्पूर्ण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष प्रतिपद । तृरात्रि या एक रात्रि रहकर भी गया में गया श्राद्ध करने का विधान है। ‘गयायाम् सर्वकालेषु पिण्डं दद्यात् विचक्षणाः’ के अनुसार गया में कभी, किसी समय पिंडदान की महिमा है। कुछ श्राद्धकर्मी मात्र फल्गु, विष्णुपद तथा अक्षयवट वेदियों पर पिंडदान करते हैं। कुछ श्राद्धकर्मी वृहद् गयाश्राद्ध के अंतर्गत गयातीर्थ के उत्तरी छोर पर स्थित प्रेतशिला, रामशिला आदि वेदियों सहित इस तीर्थ के दक्षिणी प्रसार- धर्मारण्य क्षेत्रीय वेदियों तक पैंतालीस वेदियों पर श्राद्ध सम्पन्न करते हैं। कहीं-कहीं पैंतीस वेदियों तक ही गयाश्राद्ध संपन्न माना जाता है। अपघात मृतप्राणी के लिए नारायणबलि श्राद्ध का विधान है। प्रेतबाधा निवारणार्थ विष्णुपद के समीप गयाकूप में श्राद्ध होता है। अनेक श्राद्धकर्मी प्रेतबाधा से छुटकारा के लिए प्रेतशिल या धर्मारण्य जाते हैं। प्रेतशिला वेदी पर कर ग्रहण करनेवाले धानुष्क प्रेत कहे गए हैं- प्रेताः धानुष्क रूपेण कर ग्रहण कारकाः। इस कर का ब्रह्मोत्तर गायापाल तीर्थपुरोहितों को मिलता है। प्रायः समस्त पिंडदान की वेदियों पर श्राद्धकर्मियों को कर देना पड़ता है। इस कर विधान का पुराना नाम ‘बलि’ अर्थात् समर्पण है, जो धर्मराज्य के प्रति धर्मदाय है।

TAGGED: gayaji, Manthan, Sanskrit, गया श्राद्ध, गयाजी, गयाजी का महात्म्य, सांस्कृतिक
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