औपनिवेषिक षक्तियों के चंगुल से भारत को मुक्त कराने की षुरूआत भारत के संतों ने की थी। ऐसे ही संतों की परमपरा में बीसवीं सदी के भारत के एक महानसंत सद्गुरु सदाफल देव जी की चर्चा आज हम करने जा रहे हैं। आज यानी भद्र कृश्ण पंचमी 23 अगस्त 2024 को उनकी 136 वीं जयंती है।
स्वतंत्रता का मंगलाचरण करने वाले दधीचि
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने अपनी रणनीति में बदलाव किया था। अब अंग्रेजों ने भारत पर अत्याचार व षोशण के लिए भारतीयों का ही उपयोग उपकरण के रूप में करना षुरू कर दिया। अंग्रेजों की सेना में भारी संख्या में भारतीय होते थे जो यवनों के आदेष पर अपने ही बंधुओं की हत्या कर देते थे।
अंग्रेजों के इस कुटिल चाल को विफल करने का पहला प्रयास संत विज्ञानानंद जी महाराज ने किया। असहयोग आंदोलन के पूर्व 1920 ई. में पटना के पास स्थित दानापुर सैनिक छावनी में सैनिकों के बीच भाशण कर आपने उनके अंदर में मातृभूमि के प्रति प्रेम व दायित्व का भाव जागृत कर दिया। महान संत श्री विज्ञानानंद जी ही बाद में बीसवीं सदी के महान संत सदाफल देव जी महाराज के नाम से विष्व में विख्यात हुए। उनका दिव्य जीवन अब तक हमारे अध्ययन व विमर्ष का हिस्सा नहीं बन सका है।स्वतंत्रता का मंगलाचरण करने वाले दधीचि सद्गुरु सदाफल देव जी महाराज का दिव्य जीवन कथा हमारे लिए प्रेरणापूंज है
जेल यात्रा के शताब्दी समारोह में पीएम मोदी
उनके रचित महान सद्ग्रंथ स्वर्वेद को अभिव्यक्त करने के संकल्प के साथ वाराणसी के पास निर्मित विशाल व भव्य स्वरवेद मंदिर के समारोह में शामिल होकर प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी जेल यात्रा के शताब्दी वर्ष में उनके महान योगदान की चर्चा की। उन्होंने चारों वेदों के तत्वों को लेकर स्वरवेद नामक ग्रंथ की रचना की थी। उस ग्रंथ में वर्णित विचार को पूरे विश्व में ले जाने के संकल्प के साथ वाराणसी के पास विशाल स्वरवेद महामंदिर का निर्माण कराया गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में इस महामंदिर का दौरा किया और वहां आयोजित समारोह में सदाफल देव जी महाराज की जेल यात्रा के शताब्दी वर्श की चर्चा की। भारत में राष्ट्रीयता की भावना व अधिकार बोध को समाप्त करने के लिए अंग्रेजों द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन, महात्मा गांधी की चम्पारण यात्रा आदि के बाद उनकी दमनकारी नीति के विरोध में वातावरण तैयार होने लगा था। लेकिन, उस दमन में अंग्रेजों का साथ दे रहे उनके सैनिक व पुलिस जैसे संगठनों में तैनात भारतीयों की मानसिकता में बदलाव लाने के अभियान की शुरूआत नहीं हो सकी थी।
नई राजनीतिक चेतना जागरण
इस दृष्टि से देखें तो बिहार की राजधानी पटना के निकट दानापुर सैनिक छावनी में 20 दिसंबर 1920 को संत श्री विज्ञानानंद जी महाराज का सैनिकों के समक्ष जोशिला भाषण, देश में नई राजनीतिक चेतना का उभार लाने वाला था। अपनी धरती माता को विदेशियों की निरंकुश रावणशाही से मुक्त कराने का आह्वान अपनी तपस्थली गुफा से निकलकर एक संत ने किया था।
छावनी में घुसकर सैनिकों के बीच वे भाषण दे ही रहे थे कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। सैनिकों के बीच राष्ट्र, समाज व धर्म के प्रति उनकी आस्था व जिम्मेदारी का बोध कराने वाली यह घटना पटना स्थित उस समय के बड़े अंग्रेज अधिकारियों के लिए बिल्कुल नयी थी। सैनिक विद्रोह व राजद्रोह की धाराओं के तहत श्री विज्ञानानंद जी पर जिस समय मुकदमा हुआ, उस समय उनकी उम्र मात्र 31 वर्ष थी।
सेशन जज पटना श्रेणी एक की अदालत ने 22 दिसंबर 1920 को फौज विद्रोह की धारा 131 के तहत उन्हें दो वर्ष की सश्रम कठोर कारावास की सजा सुना दी। अदालत में जज ने कहा कि आपने अपने भाषण द्वारा राजद्रोह कर फौज को भड़काने की कोशिश की है। अदालत की इस टिप्पणी के जवाब में संत श्री विज्ञानानंद जी ने कहा कि मैं अपने देश भारत के लोगों को उनके धर्म और कर्म का उपदेष कर रहा था। मंगल पांडेय के नेतृत्व में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत में फौज विद्रोह कराने का यह पहला केस था।
इस घटना के कुछ ही दिन बाद 1921 में भारत में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ जिसमें कई राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। असहयोग आंदोलन के साथ ही भारत में अंगेजों से मुक्ति का आंदोलन व्यापक स्तर पर मुखर हुआ था। इस प्रकार सदाफल देव जी महाराज असहयोग आंदोलन व भारत की स्वतंत्रता की निर्णायक लड़ाई के अग्रदूत बने। उनके अभियोग की चर्चा पूरे देश में हो रही थी।
झूठ बोलने का सुझाव ठुकराया
सदाफल देव जी महाराज के केस में निःशुल्क पैरवी करने के लिए कई वकील सामने आए। वकिलों ने सुझाव दिया कि शीघ्र रिहाई के लिए वे कोर्ट के सामने यह कह दें कि उन्होंने पटना नगर निगम क्षेत्र में भाषण दिया था। सैनिक छावनी में नहीं। सदाफल देव जी ने यह असत्य बोलना स्वीकार नहीं किया। इसके परिणाम स्वरूप उस केस की चर्चा और तेजी से होने लगी। उस समय के युवाओं के समक्ष यह एक नया उदाहरण मिला कि सत्य संकल्प वाला एक भारतीय अंग्रेजों के सामने तनकर खड़ा हो सकता है।
22 दिसंबर 1920 अगहन शुक्ल द्वादशी को दो वर्ष की कठोर सजा मिलने के बाद उन्हें दानापुर जेल भेज दिया गया था। दानापुर जेल से ही उन्होंने 26 दिसम्बर 1920 को उस समय के डिप्टी साहब को पत्र लिखा। श्यामलाल नामक भारतीय अधिकारी को पत्र लिखकर उन्हें अपने देश व धर्म के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करने का आग्रह किया। वह पत्र बड़े अधिकारियों तक पहुंच गया। इसके बाद फिरंगी शासन का उन पर अत्याचार बढ़ गया।
उन्हें अन्य कैदियों से दूर कर उनसे कठोर श्रम कराया जाने लगा जिसके कारण 14 जनवरी 1921 को वे ज्वर से पीड़ित हो गए थे। ज्वर से पूर्णतः स्वस्थ भी नहीं हुए कि उन्हें गेहूं पीसने के काम में लगा दिया गया। समय मिलते ही वे स्वदेश, स्वाभिमान, धर्म की चर्चा साथी बंदियों के साथ शुरू कर देते थे। इसके कारण उन्हें 11 फरवरी 2021 को दानापुर से बक्सर जेल भेज दिया गया।
बंदियों को देश भक्ति का उपदेश
कुछ ही दिनों बाद बक्सर जेल से अंग्रेज अधिकारियों को सूचना मिली कि बक्सर जेल में बंद संत विज्ञानानंद जी कैदियों को एकत्रित कर भारत प्रेम व कर्तव्य का उपदेश कर रहे हैं। इसके बाद उनसे फिर कठोर श्रम कराया जाने लगा, जिसके कारण वे पुनः ज्वर से पीड़ित हो गए। हालत बिगड़ने के बाद 4 मई 2021 को उन्हें चिकित्सक के पास भेजना पड़ा। इसके बाद भी वे अपने अभियान में लगे रहे। सरकार ने उन्हें तब गया जेल भेज दिया। 10 जून 2021 को उन्हें गया जेल में बेड़ी की सजा दी गयी और उनसे किसी कैदी को नहीं मिलने देने का निर्देश दिया गया।
गया जेल के कैदी उन्हें अपना गुरु मानने लगे थे, जिसके कारण उन्हें भागलपुर जेल भेज दिया गया। वह जेल कैदियों की प्रताडना के लिए उस समय कुख्यात था। भागलपुर जेल में उन्हें बेड़़ी हथकड़़ी के साथ ही 30 दिनों तक दांत नहीं दिखाने की सजा दी गयी थी। शायद उन्हें बोलने से रोकने के लिए यह सजा दी गयी थी। जेल यात्रा के क्रम में उनकी साधना व रचना का कार्य चलता रहा। संत विज्ञानानंद जी महाराज ने ‘बक्सर जेल प्रार्थना’ की रचना की जिसे वे राष्ट्रीय प्रार्थना कहते थे। कागज न रहने के कारण उन्होंने अपनी वह प्रार्थना जेल में दीवार पर लिख दी थी ताकि अन्य कैदी उसे याद कर सकें। बाद में उनकी यह प्रार्थना एक पुस्तक में प्रकाशित हो गयी थी।
संत विज्ञानानंद जी महाराज लिखित वह प्रार्थना इस प्रकार है-
शोक का दिन आज मेरा, न्याय भगवन कीजिए।
विश्व का तू न्याय करता, ईश यह वर दीजिए।
स्वाधीन भारत कीजिए, पद दीजिए अब ना टरूं।
रोऊं मैं किससे को सुने, प्रभु शरण किसकी मैं परूं।
परचार में परभाव में, प्रभु रोक वाणी है यहां।
स्वच्छन्द वाणी धार बिनु, प्रभु अज्ञता दुःख दूर कहां।
नीति नियम विरुद्ध सारे, काम भारत हो रहा।
किस भांति तव आदेश जीवन, को सुनाऊं प्रभु महा
गोबध मद्यप पाप सारे, धर्म भक्ति क्षीण गई।
मलेच्छ नीच समाज बाढ़े, भक्त सज्जन हीन भई।
इन दुर्जनों को शुद्ध कीजे या निकालो या मही।
प्रभु दीन भारत लो शरण में विनय दुख जनकी यही
विदेषियों को देन था, ऐश्वर्य भारत का तुझे।
तब काम धेनु मातृ भूमि, जन्म क्यों मिला मुझे।
यदि है हमारा दो मुझे, फिर स्वर्ग भारत कीजिए।
विनती सदाफल की सुनो, भगवान शरण जन लीजिए।
जेल से निकलने के बाद संत विज्ञानानंद जी महाराज, सदाफल देव के नाम से प्रसिद्ध हुए। विज्ञानानंद जी के माता-पिता ने उनका नाम सदाफल देव रखा था। इसलिए उन्होंने अपने माता-पिता से प्राप्त नाम से ही स्वयं का परिचय देना शुरू किया। लेकिन, अध्यात्म व स्वराष्ट्र के भाव जागरण का उनका अभियान अनवरत जारी रहा। जेल से छूटने के बाद वे अपने शिष्यों व प्रेमियों के साथ जेल में रचित उस प्रार्थना का नियमित पाठ करते थे।