भगवान बुद्ध को अति प्रिय था राजगृह
-राम रतन प्रसाद सिंह “रत्नाकर”
नवादा : भगवान बुद्ध की पवित्र भूमि राजगीर बिहार की राजधानी पटना से दक्षिण में 102 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिन्दुओं की तीर्थ भूमि गया यहाँ से केवल 70 किलोमीटर दक्षिण में है। बोधगया राजगीर से 80 किलोमीटर की दूरी पर है और पावापुरी पक्की सड़क के रास्ते 40 किलोमीटर पर। यही कारण है कि राजगीर की सुरम्य घाटियाँ प्राचीन काल से ही सभी धर्मावलम्बी-पर्यटकों को आकर्षित करती रही हैं। राजगीर की घाटियों में परिव्याप्त आध्यात्मिक शांति तथा यहाँ की मनोरम पहाड़ियों पर बिखरे प्राकृतिक सौन्दर्य प्रागैतिहासिक युग से ही साधना एवं संस्कृति के केन्द्र बने हुये हैं।
प्राचीन राजगीर का वर्णन रामायण, महाभारत तथा अन्य कई प्राचीन धर्मग्रंथों में भी किया गया है। रामायण में बताया गया है कि ब्रह्मा के पुत्र बसु के नाम पर इस नगर का नाम बसुमती पड़ा। महाभारत के अनुसार, राजा बृहद्रर्थ ने सर्वप्रथम इस नगर में अपनी राजधानी बसायी थी। इसके कारण इसे बाह्रदर्थ के नाम से भी जाना जाता है।
कहा जाता है कि प्राचीन राजगीर में कुश नामक एक प्रकार की घास काफी मात्रा में होती थी। अतः कुश नामक घास से भरी-पूरी होने के कारण इस स्थान को कुशाग्रपुरी भी कहा जाने लगा। महाभारत में मगध सम्राट जरासंध का नाम आया है। इस सम्राट की राजधानी भी राजगीर में ही थी।
राजगीर का नाम राजगृह क्यों पड़ा? इसके भी हैं कारण:
राजगृह शब्द का अर्थ होता है राजा का गृह। चूँकि कई शताब्दियों तक कई प्रतापी नरेश तथा सम्राटों ने इस नगर में वास किया अतएव, यह नगर राजगृह के नाम से पुकारा जाने लगा।यही वह पवित्र भूमि है, जहाँ बौद्धों ने अपनी प्रथम धर्मसभा वैभार पर्वत के उत्तर सप्तपर्णी गुफा में आयोजित की थी। इसी पहाड़ी के शीर्ष पर हिन्दू धर्मावलम्बी ऋषि मुनि भी अनवरत तपस्या किया करते थे। इसी घाटी के गृद्धकूट पर संबोधि प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ने लगभग पाँच वर्ष बिताये थे।राजगीर की सुरम्य घाटियों में बिखरित प्राकृतिक सुषमा के साथ-ही- साथ राजनीतिक पृष्ठभूमि भी कुछ ऐसी रही है, जिसने राजगीर को आकर्षक बनाये रखा।
जरासंध ने हजारों पराकर्मी सम्राटों को परास्त कर और पकड़ कर अपने राजगीर के दुर्ग में बंदी बना कर रखा था। अठाइस दिनों के अनवरत मल्लयुद्ध में जब भीम ने जरासंध के दोनों पैरों को पकड़कर चीर डाला, तब इन हजारों बन्दी सम्राटों को परित्राण मिला। यहाँ के शासक बिम्बिसार एवं अजातशत्रु आदि की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं, जिसके फलस्वरूप यहाँ के अतीत के वैभव का पता चलता है।राजगीर पहुँचने के क्रम में सड़क से दक्षिण दिशा में कुछ दूर चलने पर दाहिनी ओर पत्थर के टुकड़ों से बनी कुछ मोटी दीवारें दिखाई पड़ती हैं। ये दीवारें अजातशत्रु के गढ़ के भग्नावशेष हैं।
कहते हैं कि एक बार वैशाली गणतंत्र की सेना मगध साम्राज्य पर हमला करने के लिए गुप्त रीति से गंगा के इस पार आ चुकी थी। परन्तु, अजातशत्रु के गुप्तचरों ने तुरन्त इसकी सूचना सम्राट तक पहुँचायी। फिर तो दुर्ग की रक्षा के लिए अजातशत्रु ने इन मोटी दीवारों का निर्माण शुरू कर दिया। जब लिच्छवियों को पता चला कि अजातशत्रु उनका सामना करने की तैयारी कर रहा है, तो उनकी हिम्मत पस्त हो गयी और वे वहीं से लौट गये और इस तरह इन दीवारों को पूरा नहीं किया जा सका।अजातशत्रु गढ़ से कुछ ही आगे बढ़ने पर सड़क की बायीं ओर बौद्धों का एक मंदिर है, जो बमज मंदिर के नाम से पुकारा जाता है।
बर्मा के रहने वाले एक बौद्ध साधु ने इस मंदिर को 1925 में बनवाया था। इस मंदिर में ठहरने के लिए कुछ कोठरियाँ भी बनी हुई हैं, जिनमें यात्री विशेषकर बौद्ध यात्री ठहरा करते हैं।बर्मीज मंदिर से कुंड की दिशा में कुछ आगे बढ़ने पर हमें गोरक्षिणी भवन दिखाई पड़ता है। इस भवन का विशेष महत्व इसलिए है कि गो माता की रक्षा के लिए इस भवन का निर्माण एक मुसलमान नवाब हुसैनबाद की विशेष सहायता से हुआ था। इसके आधे भाग में राजगीर आने वाले यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था है।
गोरक्षिणी से कुछ दूर और आगे चल कर हमें एक प्राचीन वृक्ष दिखाई पड़ता है, जो धूनिवट् के नाम से विख्यात है। विशेषकर ऐसे अवसरों पर जब राजगीर में मेला लगा रहता है, तो मेले में आये हुए यात्री सैकड़ों की संख्या में इस वट् वृक्ष की छाया में बने चबूतरे पर बैठकर विश्राम करते हैं। कहते हैं कि किसी मलमास मेले के अवसर पर एक तेजस्वी महात्मा कुछ लकड़ी के कुन्दों को जलाकर धूनी लगा रहे थे। अन्त में कुछ कुन्द बच गये। साधु ने प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम लोग भी बढ़ जाओ और राजगीर आने वाले राहियों को अपनी शीतल छाया से तृप्त करो।
धूनि वट् से कुछ और आगे बढ़कर हम राजगीर के उस क्षेत्र में पहुँचते हैं, जहाँ इस भूमि के सर्वाधिक आकर्षण केन्द्र गर्म झरने हैं। ये झरनें सड़क की दाहिनी और बायीं दोनों दिशाओं में हैं। इसका उद्गम स्थल तो वैभारगिरि में है और कई का विपुलाचल में। वैभारगिरि के आँचल में गर्म पानी का खजाना है, इसे पहले भी लोग मानते थे आज भी मानते हैं।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह।ह्वेनसांग ने भी राजगृह का भ्रमण किया था। उसने अपने यात्रा विवरण में इस बात का उल्लेख किया है कि वैभारगिरि की पूर्वोत्तर दिशा में गर्म पानी के झरने थे। ह्वेनसांग के अनुसार, उस समय राजगीर में लगभग पाँच सौ झरने थे, जिनमें कुछ झरने गर्म पानी के और कुछ ठंडे पानी के थे। वैसे तो 52 कुण्ड का उल्लेख मिलता है। इसमें कुछ कुण्ड गर्म जल के हैं, जिसमें सप्तधारा, ब्रह्मकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
राजगीर के गर्म झरनों के पानी में गंधक के साथ कई प्रकार के रेडियोऐक्टिव तत्व मिले हुए हैं। इन कुण्डों में स्नान करने से तथा इनके जल का सेवन करने से अनेक प्रकार के रोग मुख्यतः चर्मरोग, हड्डी के रोग तथा अन्य रोग जैसे- गठिया, लकवा, अल्सर आदि अच्छे हो जाते हैं। खून की कमी या खून की खराबी के कारण होने वाली सभी तरह की बीमारियों के लिए इन झरनों का पानी लाभप्रद है। इन स्वच्छ जलों के झरनों से होकर आस-पास की पहाड़ियों पर उगी हुई अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां टकराती हैं।सप्तधारा से कुछ ही दूर ऊपर वैभारगिरि पर पूर्व दिशा से ऊपर चढ़ने के मार्ग में थोड़ी दूरी पर पत्थरों का बना एक चौकोर स्थान दिखाई पड़ता है। स्थानीय लोग इसे जरासंघ की बैठक कहते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि प्रतापी मगध सम्राट जरासंध की राजधानी राजगीर में ही थी। उसकी राजधानी पाँच पहाड़ियों के बीच बसी हुई थी। कभी-कभी जरासंध अवकाश के क्षणों में वैभारगिरि की ओर आता था और पत्थर के इस चौकोर स्थान पर बैठकर प्रकृति का मुक्त आनन्द लेता था। इसी कारण, यह स्थान जरासंघ की बैठकी के नाम से विख्यात हुआ। भगवान बुद्ध के जीवन काल में भी कभी-कभी बौद्ध भिक्षु इस स्तम्भ पर बैठकर चिंतन मनन किया करते थे। स्वयं भगवान बुद्ध ने भी इस स्थान पर होने वाली सभाओं में कई बार भाग लिया।वैभार पर्वत के ऊपर सप्तपर्णी गुफा पत्थरों से बनवायी गयी है।
कहते हैं कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद अजातशत्रु के प्रयास से बुद्ध की पहली सभा यहीं आयोजित हुई थी। सप्तपर्णी गुफा उन चट्टानों में बना छह या सात गुफाओं के सामने बनायी गयी एक लम्बी मानवाकृति है। इस मार्ग के कुछ हिस्से में पत्थर जमाए हुए हैं और यह सात फीट चौड़ा एक पारपथ सा लगता है। सप्तपर्णी गुफा जैन इतिहास में रोहणियां ओर की गुफा के नाम से प्रसिद्ध है।
वैभार पर्वत के अंचल में स्थित स्वर्ण भंडार राजगीर का एक प्रमुख दर्शनीय स्थान है। इसके बारे में कहा जाता है कि इसके भीतर खजाना भरा है। पर यह बात कहाँ तक सही है, नहीं कहा जा सकता है। इस गुफा के दो भाग हैं। यह भी कहा जा सकता है कि स्वर्णभंडार में दो गुफाएँ हैं, जो एक दूसरे से सटी हैं। जनरल कनिंघम, बेंगलर तथा मार्शल आदि कई पुरातत्ववेत्ताओं ने इस गुफा के बारे में छानबीन की। जनरल कनिंघम का मत था कि स्वर्णभंडार में ही बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम संगति मगध नरेश अजातशत्रु के समय में हुई थी।
प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता और कनिंघम के सहयोगी बेंगलर ने बताया है कि स्वर्ण भंडार की एक गुफा में भगवान बुद्ध रहते थे और बगल वाली गुफा में उनके शिष्य आनन्द। पर, बेंगलर के मत को अधिक समर्थन नहीं मिला। स्वर्णभंडार में पत्थरों की दीवार पर शिलालेख खुदे हैं। जो इस प्रकार हैं- निर्वाण लाभाय तपस्वी योगये सुभे गुहे अर्हत-प्रतिमा प्रतिष्ठे। आचार्य रत्नम मनि भैरवदेव विमुक्तये काश्याद ऊरध्वतेजाह। यह शिलालेख लगभग तीसरी और चौथी शताब्दी की है।
स्वर्ण भंडार से कुछ दूर पश्चिम चल कर हम उस स्थान पर पहुँचते हैं। जहाँ महाभारत युग में भीम और जरासंध ने अठाइस दिनों तक मल्लयुद्ध किया था। यह स्थान आज भी रणभूमि या जरासंध का अखाड़ा के नाम से विख्यात है। राजगीर आने वाले अनेक पर्यटक इस रणभूमि के दर्शनार्थ भी आते हैं और यहाँ की मिट्टी अपने शरीर में लगाते हैं।राजगीर जिन पहाड़ियों से घिरा है, उनकी सबसे ऊँची चोटियों में गिद्धकूट है। भगवान बुद्ध को यह पहाड़ी अत्यधिक प्रिय थी। इसके ऊपर बैठकर उन्होंने कई प्रसिद्ध सूत्रों को अपने शिष्यों के बीच कहा था।
ह्वेनसांग के यात्रा विवरण के अनुसार वहाँ दो स्तूप थे-एक नीचे से कोई अस्सी गज ऊपर और दूसरा ऊपर जाकर, जहाँ सड़क उत्तर की ओर मुड़ती है। खुदाई के समय रोगनी मिट्टी की परतें मिली थी, जिनपर सात भूतपूर्व बौद्धों के तथा आगामी बुद्ध मैत्रेय की मूर्तियां दो कतारों में बनीं थीं। हर मूर्ति के नीचे बौद्ध सूत्र लिखा हुआ था।उदयगिरि और सोनागिरि के बीच के दर्रे से जाते हुए पर्यटक वन गंगा तक पहुँचते हैं-वहाँ पहुँचने पर राजगीर की पहाड़ियों की चोटियों पर बनी बाहरी रक्षा दीवारें ध्यान आकर्षित करती हैं।
गिद्धकूट के पार्श्ववर्ती रत्नागिरि पर्वत पर विश्व शान्ति स्तूप है। इसे बनाने में लगभग पच्चीस लाख की लागत लगी है। स्तूप की ऊँचाई 120 फीट है तथा इसके शीर्ष भाग पर दस फीट ऊँचा कमल कलश विराजमान है। स्तूप का व्यास 103 फीट है। इस स्तूप के भीतर एक मनोमुग्धकारी मंजूषा में सप्तरत्नों सहित भगवान बुद्ध का अवशेष स्थापित किया गया है। स्तूप के चारों ओर बुद्ध की प्रतिमाएँ हैं, जो अत्यन्त भव्य और आकर्षक हैं। इन दिनों यह स्थान पर्यटकों के लिए आकर्षण का मुख्य केन्द्र बना हुआ है।