बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणाम की समीक्षा की जा रही है। अपनी-अपनी दृष्टि से लोग इस चुनाव परिणाम की अलग-अलग व्याख्या कर रहे हैं। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अपेक्षित डाटा उपलध हैं। कोई जाति के चश्में से इस परिणाम को देख रहा है तो कोई बिहार के मतदाताओं के मन-मिजाज और सोच में आए बदलाव का आंकलन कर रहा है। डाटा के विश्लेषण के आधार पर भी कुछ निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं। जिनकी करारी हार हुई है, वे चुनाव आयोग से प्राप्त डाटा की ऐसी व्याख्या करने में लगे हैं कि वोट तो उन्हें बहुत मिले हैं लेकिन सीट नहीं मिले। इतना तो स्पष्ट है कि चुनावी लोकतंत्र में वोटों की गिनती से ही कुछ भी निर्णय होता है। इसमें सभी मतों का मान बराबर होता है। यानी लोकतंत्र में ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिमान-मूर्ख, लालची-संयमी, दानी-ठग, उपकारी-दुष्ट, देशभक्त-देशद्रोही, पापी-पुण्यात्मा सभी समान मूल्य वाले अपने मतों का प्रयोग करते हैं।
बहुमत से जो निर्णय होता है वह सबका निर्णय हो जाता है। अच्छा निर्णय हुआ तो सबका भला होता है और यदि बुरा निर्णय हुआ तो सबका बुरा होगा। अच्छा निर्णय हो इसके लिए मतदाताओं का ठीक प्रकार से शिक्षण-प्रशिक्षण, उनके मत देने की क्षमता का परिष्कार आवश्यक है। यदि यह नहीं हुआ तो लोकतंत्र वरदान की जगह अभिशाप हो जाता है। चुनाव में अपराधियों का जीत जाना इसका प्रमाण है। लोकतंत्र में मतदाताओं को भ्रमित करने के संगठित प्रयास बहुत पहले से होते रहे हैं। लेकिन, सोशल मीडिया के जमाने में यह कार्य अत्यंत घातक रूप धारण कर चुका है। अब देश से बाहर बैठी विध्वंसक शक्तियां भी किसी लोकतंत्रिक देश के चुनाव में उथलपुथल मचवा सकती हैं। कभी-कभी बहुत कम वोटों से भी हार-जीत का फैसला होने का ट्रेंड चल पड़ता है जिसमें त्रिशंकु विधानसभा या कमजोर सरकार गठन की संभावना बढ़ जाती है। यह लोकतंत्र व किसी देश के लिए अहितकारी होता है। ऐसे में वोटों के आधार पर मतदाताओं के सोच-विचार के संबंध में एक अवधारण बनाना, निश्चित व सार्वभौम निर्णय लेना उचित नहीं होगा।
चुनाव परिणाम में अवधारणा की भूमिका प्रधान होती है। वर्तमान युग में आम चुनाव को नैरेटिव गेम यानी आख्यानों का खेल भी माना गया है। यह कभी सत्य पर आधारित हो सकता है तो कभी सत्य जैसा लगने वाले मनगढ़ंत असत्य विषय वस्तु और काल्पनिक कथाओं पर आधारित। यही कारण है कि लोकतंत्र में जीत पर बहुत खुश होना और अपेक्षा पाल लेना उचित नहीं होता है। चुनाव में वादे किए जाते है लेकिन उन वादों को भूल जाने की परंपरा पुरानी रही है। वादे यदि पूरे किए जाये तो लोकतंत्र में मतदाताओं का विश्वास बढ़ेगा। लेकिन, मतदाताओं को लुभाने के लिए अक्सर ऐसे वादे भी कर दिए जाते हैं जिसे पूरा करना संभव नहीं होता। ऐसे वादों के आधार पर वोट लेने का प्रयास वास्तव में मतदाता के साथ धोखा और लोकतंत्र की जड़ें खोदने जैसा है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मजबूत सरकार देने वाला सत्ता पक्ष के साथ ही मजबूत प्रतिपक्ष की भी आवश्यकता होती है। चुनाव में प्रबल जीत के साथ सत्तापक्ष के निरंकुश हो जाने का खतरा रहता है। इससे बचने के लिए मजबूत प्रतिपक्ष भी आवश्यक है। लेकिन, दोनों की दृष्टि में क्षुद्र स्वार्थ की जगह लोकहित प्रथम होना चाहिए।