डा.आयुष आनंद
सहायक प्राध्यापक
महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय
विमर्श समाज की सामूहिक चेतना का दर्पण होता है। विमर्श का अर्थ केवल चर्चा या संवाद करना नहीं होता बल्कि यह सम्पूर्ण समाज की सोच एवं दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है। जहां एक ओर सकारात्मक विमर्श समाज के विकास एवं भविष्य की दिशा निर्धारित करने मे सहायक होता है, वहीं दूसरी ओर नकारात्मक विमर्श समाज के उत्थान में अवरोध पैदा करता है और उसे दिशाहीन बना देता है। भारतीय सभ्यता में सकारात्मक विमर्श की परंपरा आदि काल से ही विद्यमान रही है और यही कारण है की जो विमर्श भारतीय मूल की अवहेलना करता है वो नकारात्मक, विभाजनकारी एवं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं। भारत में वर्षों की गुलामी एवं उपनिवेशवाद के प्रभाव के कारण योजनाबद्ध तरीके से एक ऐसे ही नकारात्मक विमर्श का निर्माण किया जाता है जिसमे भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं ज्ञान को ओछा एवं पष्चिमी मूल्यों को श्रेष्ठ बताया गया।
आजादी के बाद इस मानसिकता को खंडित करने एवं सकारात्मक विमर्शों को स्थापित करने का एक सुनहरा मौका था मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव एवं वामपंथियांे के प्रभाव के कारण यह तब भी संभव नहीं हो सका।
आजादी के पश्चात पष्चिमी देशों ने भारत समेत कई एषियाई देशों को ‘वाइट मेंस बर्डेन’ की संज्ञा दी और हमने ‘इंग्लिश मॉडल ऑफ़ डेवलपमेंट’ को ही विकास का एक मात्र विकल्प मानना शुरू कर दिया। इस तरह 1947 में भारत राजनीतिक रूप से तो आज़ाद हुआ मानसिक, आर्थिक और तंत्र के दृष्टि से पष्चिमी देशों के अधीन ही रह गया।
बहरहाल पिछले एक दषक से भारत में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक वातावरण में व्यापक परिवर्तन होना शुरू हो गया है। जिसकी वजह से न सिर्फ भारत में बल्कि वैष्विक पटल पर भी भारत से जुड़े विमर्शों में सुधार दिखने लगे है। पिछले एक दषक में भारत अपने व्यवहार से पूरे विष्व को यह यकीन दिलाने में कामयाब हो गया है की 21वीं सदी का यह भारत केवल अपने अतीत पर गर्व करने वाला देश नहीं है बल्कि वह आज की चुनौतियों का सामना करने में भी उतना ही सक्षम है।
यही नया भारत की अवधारणा है। नया भारत की यह अवधारणा केवल एक कल्पना मात्र नहीं है बल्कि यह एक संकल्प है जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2025 को लाल किले के प्राचीर से किया। अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने देश के सामने 2047 तक भारत को विकसित भारत बनाने का पूरा रोडमैप प्रस्तुत किया जिसमे भारत को हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना, हर भारतीय में राष्ट्रवादी चेतना का विकास करना एवं वासुधैव कुटुम्बकम की भावना से पुरे विष्व का मार्गदर्शन करने जैसा लक्ष्य निर्धारित किया गया।
भारत की वैश्विक भूमिका
एक दशक से पूर्व जिस भारत को वैश्विक स्तर पर महज एक फॉलोवर के रूप में देखा जाता था। वह देश आज हर क्षेत्र में विश्व का पथप्रदर्शन कर रहा है। जहां एक ओर कई पक्षिमी देश इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में स्थिरता, लोकतंत्र की मजबूती, सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करना तथा जलवायु परिवर्तन जैसे तमाम अहम विश्वस्तरीय मुद्दों पे बैकफुट पर दिखाई दे रहा है वहीं भारत इन मुद्दों पर विश्व की दिशा तय करने में अहम् भूनिका निभा रहा है। भारत ने जहाँ एक तरफ कोरोना महामारी के वक्त विश्व के कईं विकसित देशों को मुफ्त दवाईयाँ उपलब्ध करा कर वसुदेवकुटुम्बकम का पाठ पढ़ाया वहीं दूसरी ओर आतंकवाद जैसे मुद्दों पर जीरो टॉलरेंस का रुख अपना कर ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ जैसे बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया। ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ जैसे साहसिक कदमों से भारत ने पुरे विश्व को अपने सामर्थ का परिचय देते हुए यह स्पस्ट कर दिया की नया भारत की तरफ आँख उठा कर देखने वाले देशों के खिलाफ अब भारत केवल डायलॉग नहीं करेगा बल्कि एक्शन लेगाद्य नवकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारत हवा और सौर्य से सबसे ज्यादा बिजलीउत्पान्न करने वाला विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। नोवी इंस्टिट्यूट द्वारा प्रकाशित एशिया पावरफुल इंडेक्स के रिपोर्ट के मुताबिक भारत जापान को पछाड़ कर एशिया का तीसरा सबसे शक्तिशाली देश बन चूका है। वैश्विक विषयों पर भारत द्वारा लिए गए यह सभी साहसिक कदम यह दर्शाते है कि भारत पुनः विश्व गुरु बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।
मुसलमानों का तुष्टिकरण
वैश्विक मुद्दों के साथ-साथ अपने आतंरिक मामलों में भी भारत में कई कड़े निर्णय लिए जा रहे है जो भारत को नया भारत बनाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पिछली दषक से पूर्व भारत में मुसलमानो को केवल एक वोट बैंक के रूप में देखा जाता था। नजीतन मुसलमानों द्वारा दिए गए वोट कभी उनकी शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति के सुधार में ट्रांसलेट नहीं हो सका। अपने राजनीतिक लक्ष्यों को साधने के लिए तमाम पार्टियां मुसलमानों का वर्षों से तुष्टिकरण करते आ रही है। मगर वर्तमान सरकार द्वारा मुसलमानो को सरकार एवं पार्टी में शामिल करना, कम ब्याज दरों पर लोन उपलब्ध कराना या ट्रिपल तलाक को रद्द करने जैसे कदमों ने पहली बार मुसलमानों को आर्थिक एवं सामाजिक विकास का केंद्र बनाया है।
‘पीपल रिसर्च ऑफ़ इंडिया कंस्यूमर इकॉनमी’ के 2024 के रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से 2023 के बीच भारत में मुसलमानों की औसत घरेलु आय में 27.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो हिन्दुओं (18.8 प्रतिशत) के औसत घरेलु आय से लगभग 11 प्रतिशत अधिक है। विडंबना यह है कि इन तथ्यों के बावजूद विपक्ष ने भारत के मुसलमानों को भाजपा से डराने का कोई कसार नहीं छोड़ा। यहां तक की देशहित में लिए गए सीएए (सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल) और एनआरसी (नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजनषिप ) जैसे जरुरी कदमों को मुस्लिम विरोधी के रूप में सिर्फ प्रस्तुत ही नहीं किया गया बल्कि इसे लेकर देशभर में अराजकता का माहौल बनाने की भी कोशिश हुई। मगर आज देश विपक्ष के तुष्टिकरण के रणनीति को अच्छी तरह समझ रहा है और इसके विरोध में मुखर होकर अपने भाव प्रकट कर रहा है।
क्षेत्रीय भाषा और भारतीय ज्ञान परंपरा
भाषा केवल संवाद का माध्यम मात्र नहीं होती बल्कि वह किसी भी समाज के पहचान को बनाये रखने, सामाजिक एकता को बढ़ावा देने, शिक्षा को सुलभ बनाने एवं नागरिक भागीदारी को सुनिश्चित करने में अहम योगदान देती है। भारत जैसे बहुभाषी देश के ऊपर किसी एक भाषा को थोपना सिर्फ अकल्याणकारी ही नहीं बल्कि अन्यायपूर्ण भी है। शोध की माने तो जो व्यक्ति अपने मातृभाषा पर अच्छी पकड़ बना लेता है, वह विश्व का कोई भी भाषा सरलता से सीख सकता है। भारत में औपनिवेशिक मानसिकता के प्रभाव के कारण वर्षाे से अंग्रेजी बोलने वालों को क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की तुलना में अधिक इंटेलेक्चुअल समझा जाता रहा है। हलांकि वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा, बैंकिंग, न्यायपालिका एवं अन्य सरकारी संस्थानों में क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के प्रयासों ने ऐसे विमर्शों को सुधार कर समाज को पहले से ज्यादा समावेशी बनाना शुरू कर दिया है। इसके अलावा नई शिक्षा निति 2020 जैसे पहल से क्षेत्रीय भाषाओं और भारतीय ज्ञान परम्पराओं का एकीकरण करना परिवर्तनकारी कदम है। इससे क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले तमाम भारतीयों को भारत के विज्ञान, कला, दर्शन, गणित, खगोल, चिकित्सा समेत विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध शोध आधारित सामाजिक एवं बौद्धिक विरासत को आत्मसात करने का अवसर प्राप्त होगा। आज पूरा विश्व जिन आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक चुनौतियों का समाधान ढूंढ रहा है वह भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित इंडियन मॉडल ऑफ़ डेवलपमेंट में पहले से ही मौजूद है, जरुरत है तो सिर्फ उनका पुनः अवलोकन करने का। आज विश्वविद्यालयों में शोध के क्षेत्र में भारतीय ज्ञान परंपरा से जुड़े विषय ट्रेंड कर रहे हैं जिनके इनसाइट्स पूरे स्कॉलरली डोमेन को भारत के ज्ञान भण्डार से बोध करा कर विस्मित कर रहा हैं। यह बदलते विमर्श का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आजाद भारत की गुलाम मानसिकता
भारत आजाद हो गया। इसके बाद अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए। सरकार की बागडोर भारतीयों के हाथों में चला आया। सरकार के आदेश को धरातल पर उतारने वाले नौकरशाहों के तंत्र मंत्र भी भारतीय आ गए। लेकिन, शासन तंत्र और भारत के शिक्षण संस्थानों की मानसिकता पुरानी बनी रही। यानी अंग्रेजों ने भारतीय लोगों पर शासन करने के लिए जिस प्रकार का मानव संसाधन तैयार किया था वही भारत का भाग्य विधाता बना रहा। इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत में जो शिक्षा, शासन, न्याय जैसे अति महत्वपूर्ण विषयों के लिए जो मानक तय किया था उसी पर आजाद भारत भी चल रहा था। कांग्रेस की सरकार के समय भारत का शिक्षा विभाग ने जिस प्रकार के पाठ्यक्रम तैयार कराए उसमें भारत की संस्कृति, इतिहास और ज्ञान परंपरा के प्रति भारत की नई पीढ़ी में अश्रद्धा और अविश्वास पनपता चला गया। आजादी के बाद यानी 1947 से लेकर 1977 तक भारत का शिक्षामंत्री एक संप्रदाय विशेष से बनाए गए। इसे कोई महज संयोग नहीं मान सकता। यह एक प्रयोग था। शिक्षा मंत्री के पद पर आसीन भारत के ऐसे शिक्षामंत्रियों ने अपने प्रभाव का प्रयोग कर भारत के इतिहास के पाठ्यक्रम में 11वीं शताब्दी के बाद के कालखंड को विशेष रूप से शामिल कराया। यह एक प्रकार से भारत पर बर्बर आक्रमण करने वाले लोगों की अच्छी छवि गढ़ने का अनैतिक प्रयास था। इसके कारण भारत अपने इतिहास और संस्कृति से दूर होता चला गया। भारत अपनी समस्याओं के समाधान के लिए बाहर के विद्वानों पर अधिक भारोसा करने लगा। इसके कारण आजादी के बाद भी भारत औपनिवेषिक मानसिकता का गुलाम बना रहा। नवभारत में इस मानसिकता से मुक्ति का अभियान तेज हो गया है।