पद्मश्री डॉ. शांति राय
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पटना मेडिकल कालेज मेरे लिए मंदिर है, जहां एक छात्र के रूप में मैने साधना की। आज मैं जो भी हूं उस विद्या मंदिर के कारण ही हूं। उस विद्या मंदिर में मेरा नामांकन 1957 में हुआ था। मेरे समय में प्रतियोगिता परीक्षा के माध्यम से वहां नामांकन होता था। सौभाग्य से प्रतियोगिता परीक्षा में मैं लड़कियों में प्रथम आयी थी। आज भी मैं समय-समय पर अपने उस विद्या मंदिर में जाती हूं। वहां के शिक्षकों और छात्रों से मुलाकात होती है। मैं अनुभव करती हूं कि उस समय और आज के माहौल में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। सामाजिक माहौल हो या शिक्षक और छात्र के बीच संबंध हो या लोगों से संबंध हो इनमें अंतर हुआ है। मेरे समय में लड़का और लड़की बिल्कुल अलग-अलग रहते थे। आपस में बातचीत भी नहीं होती थी। शिक्षकों से हम आंख मिलाकर बात नहीं कर सकते थे। अपने शिक्षकों के प्रति हमारा अगाध आदर का भाव होता था। हम उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे प्रयास यह करते थे कि वह जो भी बता रहे हैं वह हम ग्रहण कर लें। शिक्षक भी बहुत समर्पित थे। निर्धारित समय पर क्लास में पहुंच जाना ओर छात्रों पर पूरा ध्यान देना उनकी आदत जैसी थी।
बहुत से शिक्षक तो क्लीनिक में शाम के समय भी दो-तीन घंटे अपने छात्रों के साथ व्यतीत करते थे। छात्रों की भीड़ लगी रहती थी पढ़ने के लिए, सीखने के लिए। आज तो छात्र क्लास ही नहीं करना चाहते हैं। पता नहीं आज के छात्र किस प्रकार की तैयारी में व्यस्त रहते हैं। हमारे समय में कालेज के प्रिंसिपल से छात्रों का मिलना साल में एक-दो बार ही होता था। लेकिन, आज छात्र सीधे प्रिंसिपल के पास ही पहुंच जाते हैं। अच्छी बात है, छात्रों के लिए प्राचार्य को सहजता से उपलब्ध होना चाहिए। आजकल के बच्चे ज्यादा खुले हुए हैं। मिलना-जुलना और आपस में बातचीत करना, यह अच्छा है। लेकिन, क्लास में उपस्थिति का कम होना उचित नहीं है। हम लोगों के समय मे ऐसा नहीं था। प्रिंसिपल के कक्ष में छात्रों के जाने की हिम्मत ही नहीं थी। मुश्किल से साल में एक-दो बार प्रिंसिपल के दर्शन हो जाते थे।
मेरे समय में क्लीनिकल शिक्षण पर विषेष ध्यान होता था। मरीज और चिकित्सक के बीच किस प्रकार के संबंध होने चाहिए, इसका पूरा प्रशिक्षण होता था। मरीज को कैसे देखना है इस पर भी ध्यान ज्यादा होता है। मरीजों का केवल परीक्षण करके कैसे रोग का निदान कर देना है, रोग का पता लगा लेना है, इस प्रकार का कौशल विकसित करने का प्रयास होता था। आज के जैसा अल्ट्रा साउंड, एमआरआई, सीटी स्कैन जैसी बात नहीं थी। मरीज की देखभाल केवल क्लीनिकल अनुभव और निर्णय पर आधारित था। इसीलिए हमारे समय में इस पर विशेष ध्यान दिया जाता था। इससे जो प्रशिक्षण होता था उसमें वहां जानकार चिकित्सकों की टोली तैयार होती थी जिसके कारण इस महाविद्यालय की ख्याति देश-विदेश में थी। वैज्ञानिक अनुसंधान से तैयार मशीन चिकित्सा क्षेत्र में महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन, उसी से काम नहीं चलता है, मरीज और रोग को समझने का कौशल तो होना ही चाहिए। यह कौशल योग्य शिक्षकों के सानिध्य में क्लीनिकल शिक्षण-प्रशिक्षण से ही संभव है। मशीन सब कुछ नहीं होता बल्कि वह सहायक होता है। हमारे बहुत सीनियर शिक्षकों के क्लास में हमें सैद्धांतिक स्पष्टता मिलती थी। वहीं जब वे राउंड पर होते थे तब मरीज के माध्यम से रोगों की पहचान, परीक्षण और निर्णय तक पहुचने के व्यावहारिक पक्ष का अनुभव कराते थे। जो हम देखते-सुनते थे वह उनके साथ मिलकर कन्फर्म करते थे। यदि हम कुछ गलत करते थे तो हमारे शिक्षक उसे ठीक करते थे। इस प्रकार क्लीनिकल शिक्षण के माध्यम से छात्रों में मरीज देखने ओर निर्णय लेने की क्षमता ओर कौशल का विकास होता था। यही चिकित्सा विज्ञान या आयुर्विज्ञान में षोध का आधार और प्रवृति है। मेडिसीन में डा.मधुसूदन दास, डा. एचएन सिंह, आंख में डा. एएन पाडेय जैसे शिक्षकों के सानिध्य में हम लोगों का क्लीनिकल शिक्षण-प्रशिक्षण होता था।
आज एआई यानी आर्टीफिषियल इंटेलीजेंस की बात हो रही है। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन, मेरा मानना है कि क्लीनिकल शिक्षण का महत्व चिकित्सा शास्त्र में हमेशा बना रहेगा। एआई का महत्व कहीं-कहीं है। यह आवश्यक भी है लेकिन, यह आदमी का जगह नहीं ले सकता है। क्लीनिकल समझ और अनुभव की जगह एआई नहीं लेसकता है। यह केवल मदद कर सकता है। प्रश्न यह उठता है कि पटना मेडिकल कालेज अन्य संस्थानों से भिन्न क्यों है? यह संस्थान योग्य शिक्षकों एवं प्रतिभावान छात्रों के कारण सबसे भिन्न है। इस मेडिकल कालेज में बिहार के सबसे अधिक प्रतिभावन व कुशाग्र बुद्धि वाले छात्रों का ही नामांकन होता था। उनमें पहले से विद्यान प्रतिभा को वहां के शिक्षक निखरते रहे हैं। छात्रों में भी आपस में अच्छा करने की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। इस प्रकार चिकित्सा शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली पीढ़ियां यहां तैयार होती रही है। इस अर्थ में यह संस्थान भारत में एक विशेष स्थान रखता है। इसके कारण इस संस्थान की भारत से बाहर भी प्रतिष्ठा रही है। ऐसा विश्वास था कि प्रिंस आफ वेल्स मेडिकल कालेज यानी पटना मेडिकल कालेज का छात्र है तो इसे सब कुछ आता है। समाज के लोग छात्रवृति देकर यहां के छात्रों की सहायत करते थे। सर गणेश दत्त छात्रवृति मुझे भी मिलती थी।
इस संस्थान की जो प्रतिष्ठा थी वह एक काल खण्ड में कम हो रही थी। यह संतोष की बात है कि सरकार और वहां के शिक्षक मिलकर इसकी प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के प्रयास में लग गए है। संयोग है कि इस संस्थान के श्ताब्दी वर्ष में यह प्रयास सफल होता दिख रहा है। इसके लिए वर्तमान सरकार के मुखिया नीतीश कुमार और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय और उनके अधिकारी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। पीएमसीएच ने समाज में यह विश्वास अर्जित किया है कि उस अस्पताल में जाने के बाद गरीब-अमीर सभी मरीजों का भला हो जाता है। पीएमसीएच का यह विश्वास आगे भी बना रहेगा। यह हमारे लिए हर्ष की बात है कि हमारा पीएमसीएच अब भारत का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा बड़ा अस्पताल बनने जा रहा है। लेकिन, हमारा मानना है कि केवल भवन और सुविधा से ही कोई संस्थान बड़ा नहीं होता। बड़े शिक्षक, छात्र, तकनीकी सहायक, प्रबंधक योजनाकार सभी मिलकर उसे बड़ा बनाते हैं। मरीजों के बेहतर उपचार के साथ ही उच श्रेणी का शिक्षण, प्रशिक्षण, शोध पीएमसीएच की विशेषता रही है। मेरा विश्वास है कि सेवा के साथ चिकित्सा विज्ञान को समृद्ध बनाने की यह परमपरा आगे भी जारी रहेगी।