पटना : डा. राजेन्द्र प्रसाद को आम आदमी की स्मृतियों से दूर रखने के प्रयास उनके राष्ट्रपति रहते शुरू कर दिया गया था। सन् 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आदेश से जो हुआ उसका निषकर्ष तो यही निकलता है कि उन्हांेने भारत के आधुनिक इतिहास में अपने समक्ष किसी को भी दिखने देना नहीं चाहते थे।
एका एक राजेंद्र बाबू के पेट से खून निकलने लगा
बात 20 जून 1961 की है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद रात्रि 8.00 बजे विशेष ट्रेन से मध्यप्रदेश की यात्रा पर जाने वाले थे। सारी तैयारियां हो चुकी थी। इसी बीच राजेन्द्र बाबू को शौच अनुभव हुआ। वे शौच के लिए गए लेकिन शौच की जगह उनके पेट से खून की धारा निकलने लगी। तेजी से खून निकलने के कारण उन्होंने बहुत अधिक कमजोरी का अनुभव किया। उठने में असमर्थ हो गए। तब उन्होंने अपने निजी परिचारक सीताराम को पुकारा। अत्यंत दर्द भरे आवाज को सुनकर सीताराम उनके पास पहुंचा तब उसने राजेन्द्र बाबू को खून से लथपथ देखा। राष्ट्रपति भवन के अधिकारी तुरंत सक्रिय हो गए। मध्यप्रदेश की उनरकी यात्रा टल गयी। इसके बाद राजेन्द्र बाबू की तबियत और खराब होने लगी। एक समय ऐसा आया जब लगा कि वे एक-दो दिनों में चल बसेंगे।
राजेंद्र बाबू के लिए दौड़ पड़ा था डॉक्टरों की टोली
प्रधानमंत्री नेहरूराष्ट्रपति भवन के चिकित्सकों से उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहते थे। चिकित्सकों ने उन्हं बताया कि अब उनके बचाये जाने की आशा बिल्कुल नहीं है। बीमारी के कारण राजेन्द्र बाबू का निधन दिल्ली में ही हो जाने की आशंका के बाद उनकी अत्येष्टि भी दिल्ली में ही होना तय था। चुकि वे भारत के राष्ट्रपति थे अतः उनकी अंत्येष्टि की व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय स्तर का करना होता। इसलिए प्रधानमंत्री ने गुप्त तरीके से राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि की तैयारी करने का निर्देष गृह विभाग को दे दिया। अंत्येष्टि के लिए गुप्त रूप से जगह चयन करने के लिए नेहरूजी ने केंद्रीय गृहमंत्री के साथ सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों को निर्देश दिया। एक अधिकारी ने महात्मा गांधी की समाधि स्थल के पास ही राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि के लिए जगह चयन का सुझाव दिया।
नेहरू जी ने आदेश दिया दिया था समाधि की तैयारी का आदेश
इसपर जवाहरलाल नेहरू ने अत्यंत तल्ख लहजे में शासत्री जी को आदेश दिया कि गांधीजी के समाधि स्थल से जितना दूर हो सके उतना दूर अंत्येष्टि के लिए जगह का चयन कराइये। पत्रकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक फ्राम कर्जन टू नेहरू में लिखा है कि चुकि पंडित नेहरू ने इस काम को अत्यंत गुप्त तरीके से कराने का निर्देश दिया था। अतः इस काम को अत्यंत नाजुक समझ लाल बहादुर शास्त्री दिल्ली के चीफ कमिश्नर श्री भगवान सहाय के साथ यमुना किनारे घूमने चले गए। उस समय उनकी गाड़ी दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर श्री सुशीतल बनर्जी चला रहे थे। इन लोगों ने किसी चालक को नहीं लिया ताकि बाहर का कोई व्यक्ति बातचीत नहीं सुन सके। शास्त्रीजी ने राजघाट यानी महात्मा गांधी की समाधि स्थल से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर एक स्थान का चयन किया था। इसी बीच राजेन्द्र बाबू के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा और वे पूरी तरह से स्वस्थ हो गए।
नेहरू जी ने उनकी अंत्येष्टि के लिए जिस जगह का चयन कराया था, उसी स्थान पर पांच वर्ष बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की अंत्येष्टि की गयी थी। आज वह स्थान लाल बहादुर शास्त्री की समाधि स्थल विजय घाट के नाम से जाना जाता है। राजेन्द्र बाबू के निधन के लगभग 1 वर्ष बाद जवाहरलाल नेहरू का भी निधन हो गया। राजघाट यानी महात्मा गांधी की समाधि स्थल के बगल में जवाहरलाल नेहरू की अंत्येष्टि हुई थी। वर्तमान में उनकी समाधि स्थल का नाम शांतिवन है। महात्मा गांधी एक वैश्विक व्यक्तित्व हैं। महात्मागांधी की समाधि पर आने वाले विदेशी मेहमान बगल मंे स्थित जवाहरलाल नेहरू की समाधि स्थल शांतिवन भी चले जाते हैं।
राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद राजेन्द्र बाबू पटना आ गए। पटना में ही उनका निधन हुआ और पटना स्थित बांस घाट पर सार्वजनिक श्मशान पर उनकी अंत्येष्टि हुई थी। यहीं उनकी छोटी सी समाधि स्थल है। गुमनाम जैसे इस स्थल पर विदेशी या पटना के बाहर के लोग भी शायद ही जाते हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंन्द्र बाबू के विराट व्यक्तित्व व उनके योगदान के अनुकूल यह नहीं है।